मुख्तार की मौत से सबक
माफिया डॉन के नाम से मशहूर और बरसों से जेल की सजा भुगत रहे पूर्व विधायक मुख्तार अंसारी की पिछले सप्ताह मौत हो गई। पिछले कुछ सालों में एक के बाद एक माफिया को रहस्यमय परिस्थितियों में मौत का सामना करना पड़ा है।
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फिर वो चाहे विकास दुबे की पलटी जीप हो या प्रयागराज के अस्पताल में जाते हुए तड़ातड़ चलीं गोलियों से ढेर हुए अतीक बंधु हों। अगर कोई यह कहे कि योगी आदित्यनाथ की सरकार साम, दाम, दंड, भेद अपना कर उत्तर प्रदेश से एक एक करके सभी माफिया का सफाया करवा रही है, या ऐसे हालात पैदा कर रही है कि ये माफिया एक एक करके मौत के घाट उतर रहे हैं, तो यह अर्धसत्य होगा। क्योंकि आज देश का कोई भी राजनैतिक दल ऐसा नहीं है जिसमें गुंडे, मवालियों, बलात्कारियों और माफिया को संरक्षण न मिलता हो।
फर्क सिर्फ इतना है कि जिसकी सत्ता होती है वो केवल विपक्षी दलों के माफिया को निशाने पर रखता है। अपने दल के अपराधियों की तरफ से आंख मूंद लेता है। यह सिलसिला पिछले पैंतीस बरसों से चला आ रहा है। आजादी के बाद से 1990 तक अपराधी, राजनेता नहीं बनते थे। क्योंकि हर दल अपनी छवि न बिगड़े, इसकी चिंता करता था। पर ऐसा नहीं था कि अपराधियों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त न रहा हो। चुनाव जीतने, बूथ लूटने और प्रतिद्वंद्वियों को निपटाने में तब भी राजनेता पर्दे के पीछे से अपराधियों से मदद लेते थे और उन्हें संरक्षण प्रदान करते थे। 90 के दशक से परिस्थितियां बदल गई। जब अपराधियों को यह समझ में आया कि चुनाव जितवाने में उनकी भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण होती है तो उन्होंने सोचा कि हम दूसरे के हाथ में औजार क्यों बनें? हम खुद ही क्यों न राजनीति में आगे आएं? बस, फिर क्या था अपराधी बढ़-चढ़ कर राजनैतिक दलों में घुसने लगे और अपने धन-बल और बाहु-बल के जोर पर चुनावों में टिकट पाने लगे। इस तरह धीरे-धीरे कल के गुंडे-मवाली आज के राजनेता बन गए। इनमें बहुत से विधायक और सांसद तो बने ही, केंद्र और राज्य में मंत्री पद तक पाने में सफल रहे। जब कानून बनाने वाले खुद ही अपराधी होंगे तो अपराध रोकने के लिए प्रभावी कानून कैसे बनेंगे? यही वजह है कि चाहे दलों के राष्ट्रीय नेता अपराधियों के खिलाफ लंबे-चौड़े भाषण करें, चाहे पत्रकार राजनीति के अपराधिकरण को रोकने के लिए लेख लिखें और चाहे अदालतें राजनैतिक अपराधियों को कड़ी फटकार लगाएं, बदलता कुछ भी नहीं है।
योगी आदित्यनाथ अगर यह दावा करें कि उनके शासन में उत्तर प्रदेश अपराध मुक्त हो गया तो क्या कोई इस पर विश्वास करेगा? जबकि आए दिन महिलाएं उत्तर प्रदेश में हिंसा और बलात्कार की शिकार हो रही हैं। पुलिस वाले होटल में घुस कर बेकसूर व्यापारियों की हत्या कर रहे हैं, और थानों में पीड़ितों की कोई सुनवाई नहीं होती। हां, यह जरूर है कि सड़कों पर जो छिछोरी हरकतें होती थीं, उन पर योगी सरकार में रोक जरूर लगी है। पर फिर भी अपराधों का ग्राफ कम नहीं हुआ। 90 के दशक में आई वोरा समिति की रिपोर्ट अपराधियों के राजनेताओं, अफसरों और न्यायपालिका के साथ गठजोड़ का खुलासा कर चुकी है, और इस परिस्थिति से निपटने के सुझाव भी दे चुकी है।
बावजूद इसके आज तक किसी भी सरकार ने इस समिति की या 70 के दशक में बने राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों को लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। ऐसी तमाम सिफारिशें आज तक धूल खा रही हैं। ऐसा नहीं है कि सत्ता और अपराध का गठजोड़ आज की घटना हो। मध्य युग के सामंतवादी दौर में भी अनेक राजाओं का अपराधियों से गठजोड़ रहता था। यह तो प्रकृति का नियम है कि अगर समाज में ज्यादातर लोग सतोगुणी या रजोगुणी हों तो भी कुछ फीसद लोग तो तमोगुणी होते ही हैं। ऐसा हर काल में होता आया है। फिर भी सतोगुणी और रजोगुणी प्रवृत्ति के लोगों का प्रयास रहता है कि समाज की शांति भंग करने वाले या आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों को नियंत्रित किया जाए, उन्हें रोका जाए और सजा दी जाए। यह सब होने के बावजूद समाज में अपराध होते हैं। क्योंकि आपराधिक प्रवृत्ति के व्यक्ति को अपराध करना कतई अनुचित नहीं लगता। उसके लिए तो अपराध सहज प्रक्रिया ही होती है।
जब यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा कि संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? तो युधिष्ठिर ने कहा कि हम रोज लोगों को काल के मुंह में जाते हुए देखते हैं पर फिर भी इस भ्रम में जीते हैं कि हमारी मौत नहीं आएगी। और इसीलिए हर तरह का अनैतिक आचरण और अपराध करने में संकोच नहीं करते। सोचने वाली बात यह है कि हर अपराधी की मौत अतीक अहमद, विकास दुबे या मुख्तार अंसारी जैसी ही होती है। फिर भी हर अपराधी इसी भ्रम में जीता है कि उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वाल्मीकि जी डाकू थे। रोज लूट-पाट करते थे। एक दिन कुछ संत उनकी गिरफ्त में आ गए। संतों ने डाकू वाल्मीकि से पूछा कि वो ये अपराध क्यों करता है? डाकू बोला अपने परिवार को प्रसन्न करने के लिए।
इस पर संतों ने वाल्मीकि से कहा कि जिनके लिए तू ये पाप करता है क्या वे तेरे साथ इस पाप की सजा भुगतने को तैयार हैं? वाल्मीकि को लगा कि इसमें क्या संदेह है, पर संतों के आग्रह पर वो अपने परिवार से ये सवाल पूछने गया तो परिवार जनों ने साफ कह दिया कि हम तुम्हारे पाप में भागीदार नहीं हैं। वाल्मीकि की आंखें खुल गई और वो डाकू से ऋषि वाल्मीकि बन गए। पुराणों और इतिहास के ये सभी उद्धरण उन अपराधियों के लिए हैं, जो इस भ्रम में जीते हैं कि वे अमृत पी कर आए हैं, और जो कर रहे हैं कि वो अपने परिवार की खुशी के लिए कर रहे हैं। उनका यह भ्रम जितनी जल्दी टूट जाए उतना ही जल्दी उनका और समाज का भला होगा।
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