बिहार : यह हार की जीत है
सोमवार को विधानसभा में भाजपा-जदयू की नीतीश सरकार ने विश्वास मत हासिल कर लिया। 243 सीटों वाली विधानसभा में उसके पक्ष में 129 मत आए।
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वोटिंग के पहले ही विपक्ष बहिर्गमन कर गया। इस तरह बिहार की राजनीति पर पिछले पखवाड़े भर से लगाए जाने वाले कयास खत्म हो गए। हल्का-फुल्का राजनीतिक ड्रामा भी हुआ। सब की आंखें जीतनराम मांझी पर लगी थीं। उनके दल के चार सदस्य हैं। उनके बगैर कोई खेल होना संभव नहीं था। वह एनडीए में बने रहने के अपने वचन पर स्थिर रहे। सत्ता पक्ष के कोई पांच सदस्य आरंभ में अनुपस्थित रहे। अध्यक्ष पद पर अविश्वास प्रस्ताव स्वीकृत हो जाने पर जब स्थिति स्पष्ट हो गई तभी वह सदन में लौटे। राजद के तीन सदस्य सत्ता पक्ष में जा बैठे। बावजूद इन सब के सदन में कोई विशेष हंगामा नहीं दिखा। हंगामा आम तौर पर विपक्ष करता है, और खास बात यह रही कि वह अनुशासित दिखा।
सबसे अनुशासित प्रतिपक्ष के नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का भाषण था। लगभग चालीस मिनट के उनके भाषण को सदन ने ध्यानपूर्वक सुना। एक युवा नेता का इतना परिपक्व भाषण लोगों को अचंभित कर रहा था। पिछले दिनों बिहार में जो राजनीतिक घटनाचक्र चला, उसके कई मुद्दे तेजस्वी को उत्तेजित कर सकते थे। कुछ ही घंटों पहले आधी रात को उनके घर पर पुलिस का छापा पड़ा था। उनके ही दल के विधायक को उनके घर से पुलिस उठा ले गई। पार्टी के तीन विधायकों को दबाव में लेकर अपने पक्ष में किया गया। लेकिन इन सब की कोई गिला-शिकायत तेजस्वी ने अपने भाषण में नहीं की। संयमित रहे। भाषण के आरंभ में ही कहा कि ‘नीतीश जी हमारे लिए आदरणीय थे, हैं और रहेंगे’। उन्होंने पिछली बातों का जिक्र करते हुए कहा कि ‘हम नहीं, 2022 में वह हमारे पास आए थे’। उनका कहना था कि ‘भाजपा हमें अपमानित कर रही है।
चूंकि वह समाजवादी पृष्ठभूमि से आते हैं, इसलिए हमारा फर्ज था कि उनकी बातों को सुनते और उनका दर्द समझते। हमने यही किया। वह बड़ी-बड़ी बातें कर रहे थे। उनका कहना था कि मुझे कोई पद नहीं चाहिए। हम देश भर के बिखरे हुए विपक्ष को भाजपा के विरुद्ध एकजुट करना चाहते हैं। यह समय की मांग है। हमने उनकी बात पर विश्वास किया और अपनी पार्टी के विधायकों की संख्या उनसे बहुत ज्यादा होने के बावजूद उनके नेतृत्व में काम करना स्वीकार किया। हमने उन्हें पूरा सम्मान और काम करने की स्वतंत्रता दी कि वह बिहार का विकास करें। एक थके हुए मुख्यमंत्री को अपना बल दे कर हमने दौड़ाया। हमारा जोर इस बात पर जरूर था कि हमारे दस लाख रोजगार-नौकरियां देने के संकल्प को वह पूरा करें। वह और उनके अधिकारी बार-बार आर्थिक संकट की बात कर रहे थे। जब हमने जोर दिया और सुझाव दिए तो उसी खजाने से यह सब संभव हुआ। सत्रह माह में ही लगभग एक तिहाई संकल्प पूरा हुआ।’
तेजस्वी ने पौराणिक रामकथा से दशरथ का प्रतीक लिया। कहा कि मुख्यमंत्री नीतीश जी की कोई विवशता रही होगी। उनका कोई दोष नहीं है। दशरथ ने दिल से राम को वनवास नहीं दिया था। इसके पीछे कैकेयी थी। उनका इशारा भाजपा की तरफ रहा होगा। उन्होंने भाजपा पर कटाक्ष किया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी गारंटी की बात करते हैं। क्या वह इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि नीतीश जी अब फिर कभी पाला नहीं बदलेंगे। नीतीश पर निशाना साधते हुए चुटीले अंदाज में उन्होंने कहा, ‘आप को जब भी वहां पीड़ा महसूस हो, हम आपका साथ देने के लिए तैयार मिलेंगे।’
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के जवाबी भाषण ने तेजस्वी के भाषण को एक तरह से रेखांकित कर दिया। वह पिटी-पिटाई 2005 पूर्व के लालू-राबड़ी शासनकाल की बुराइयां गिनाने में लगे रहे। चूंकि यह बहुत ही पुराना मसला है, इसलिए नीतीश की बात जम नहीं रही थी। इसके बाद वह 2015 और 2022 में फिर साथ क्यों हुए, यह कोई भी पूछ सकता है। गरिमा से नीचे उतर कर उन्होंने राजद के मंत्रियों पर पैसा कमाने के आरोप लगाए। यह बात भी जमी नहीं। क्योंकि यदि उनके संज्ञान में यह हो रहा था तो इसकी धड़-पकड़ उन्हें करनी थी क्योंकि वह मुख्यमंत्री थे।
यदि इसे आधार बना कर उन्होंने राजद से राजनीतिक नाता तोड़ा होता तो देश भर में इसकी चर्चा होती और नीतीश कुमार की भ्रष्टाचार विरोधी छवि निखरती। इसलिए उनका भाषण चूं-चूं बन कर रह गया। उनकी देह-भाषा दयनीय और वाक्य-विन्यास बेतरतीब थे। किसी जमाने में अपने शिष्ट अंदाज और निखरी हुई भाषा के लिए देश भर में चर्चित नीतीश स्वयं अपनी ही तस्वीर तोड़ते दिख रहे थे। उनके मुकाबले उपमुख्यमंत्री और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सम्राट चौधरी का भाषण अधिक प्रौढ़ और राजनीतिक था। उन्होंने राजद पर निशाना बनाया और पूरे जोशीले अंदाज में दिखे। उनका बॉडी-लैंग्वेज भी देखने लायक थी। निश्चित ही भाजपा के दिल्ली दरबार ने इसे पसंद किया होगा।
राजनीति में हार-जीत होती रहती है। लेकिन कभी-कभी जीत निस्तेज और हार शानदार दिखती है। यही पिछले दिनों बिहार में हुआ। नीतीश सरकार ने विश्वास मत जरूर हासिल कर लिया लेकिन उनका राजनीतिक इकबाल बिखर गया। उनके प्रसंशक रहे लोग भी उन पर कोई सकारात्मक टिप्पणी देने से बच रहे हैं। यह एक नायक का दुर्भाग्यपूर्ण पतन है। अब जब बजट-सत्र आरंभ हो गया है, चर्चा का विषय बस तेजस्वी का भाषण है। उनका संयम, साहस और व्यंगपूर्ण टिप्पणियां बिहार के लोकतांत्रिक जीवन में थोड़ी उम्मीद प्रदर्शित करती हैं। सदन में हार कर भी तेजस्वी ने लोगों का दिल जीता। यह बड़ी बात थी। शायद इसे ही कहते हैं हार की जीत।
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