धर्मस्थल : कब तक चलेगा झगड़ा
अयोध्या में भगवान श्री राम की भव्य प्राण-प्रतिष्ठा के बाद अब हिन्दुत्व की शक्तियों का ध्यान काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की कृष्ण जन्मभूमि मस्जिद पर केंद्रित हो गया है।
![]() धर्मस्थल : कब तक चलेगा झगड़ा |
विपक्षी दल चिंतित हैं कि धर्म के नाम पर भाजपा हिन्दू मतदाताओं के ऊपर अपनी पकड़ बढ़ाती जा रही है। इन दो धर्मस्थलों पर से मस्जिद हटाने की जिद्द का भाजपा को पहले की तरह चुनावों में लाभ मिलता रहेगा। धर्म निरपेक्षता को आदर्श मानने वाले विपक्षी दल चाह कर भी भावनाशील हिन्दुओं को आकर्षित नहीं कर पाएंगे।
इन धर्मनिरपेक्ष राजनेताओं का सनातन धर्म में आस्था का प्रदर्शन इन्हें वांछित परिणाम नहीं दे पा रहा क्योंकि भावनाशील हिन्दुओं को लगता है कि ऐसा करना अब इन दलों की मजबूरी हो गया है। इसलिए वो इन्हें गंभीरता से नहीं ले रहे। दूसरी तरफ जो आम जनता की जिंदगी से जुड़े जरूरी मुद्दे हैं जैसे बेरोजगारी, महंगाई, सस्ती स्वास्थ्य व शिक्षा सेवाएं, इन पर जोर देकर विपक्ष मतदाताओं को धर्म के दायरे से बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है। कितना सफल होगा, यह तो 2024 के चुनावी परिणाम बताएंगे। जहां तक बात काशी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में श्री कृष्ण जन्मस्थान मस्जिद की है तो यह कोई नया पैदा हुआ विवाद नहीं है। सैकड़ों बरस पहले जब ये दोनों मस्जिदें बनीं तो हिन्दुओं के मन्दिर तोड़ कर बनी थीं, इसमें कोई संदेह नहीं है। तब से आज तक सनातनधर्मी अपने इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर से मुस्लिम आक्रांताओं के इन अवशेषों को हटा देने के लिए संघषर्शील रहे हैं।
नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से वृहद् हिन्दू समाज में नया उत्साह पैदा हुआ है। उसे विश्वास है कि इन दोनों तीर्थस्थलों पर से भी ये मस्जिदें आज या कल हटा दी जाएंगी। उधर, मुस्लिम पक्ष पहले की तरह उत्तेजना दिखा रहा है। ऐसे में दोनों पक्षों के बीच टकराव होना स्वाभाविक है जो दोनों पक्षों के लिए घातक साबित होगा। भलाई इसी में है कि दोनों पक्ष बैठ कर शांतिपूर्ण तरीके से इसका हल निकाल लें। हालांकि दोनों पक्षों के सांप्रदायिक नेता आसानी से ऐसा होने नहीं देंगे। इसलिए यह जिम्मेदारी दोनों पक्षों के समझदार लोगों की है कि वे दोनों मस्जिदों के विवाद को बाबरी मस्जिद विवाद की तरह लंबा न खिंचने दें।
मुसलमानों के प्रति बिना किसी दुराग्रह के मेरा शुरू से मानना रहा है कि मथुरा, अयोध्या और काशी में जब तक मस्जिदें हमारे इन प्रमुख तीर्थस्थलों पर बनी रहेंगी तब तक सांप्रदायिक सौहार्द स्थापित नहीं हो सकता क्योंकि भगवान कृष्ण, भगवान राम और भोलेनाथ सनातनधर्मिंयों के मुख्य आराध्य हैं। दुनिया भर के करोड़ों हिन्दू पूरे वर्ष इन तीथरे के दर्शन करने जाते रहे हैं जहां खड़ी ये मस्जिदें उन्हें उस दुर्भाग्यशाली क्षण की याद दिलाती हैं, जब आतताइयों ने यहां भव्य मंदिरों को बेरहमी से नेस्तनाबूत कर दिया था। इन्हें वहां देख कर हर बार हमारे जख्म हरे हो जाते हैं। यह बात मैं अपने लेखों और टीवी रिपोर्ट्स में पिछले 35 वर्षो से इसी भावना के साथ लगातार कहता रहा हूं। जो धर्मनिरपेक्ष दल तर्क देते हैं कि गढ़े मुर्दे नहीं उखाड़ने चाहिए क्योंकि इस सिलसिले का कोई अंत नहीं होगा?
आज हिन्दू पक्ष तीन स्थलों से मस्जिदें हटाने की मांग कर रहा है, कल को तीस या तीन सौ स्थलों से ऐसी मांगें उठेंगी तो देश के हालात क्या बनेंगे, उनसे मैं सहमत नहीं हूं। एक तरफ तो मक्का मदीना है जहां गैर-मुसलमान जा भी नहीं सकते और दूसरी तरफ तपोभूमि भारत है जहां सब को अपने-अपने धर्मो का पालन करने की पूरी छूट है पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के लोगों को नीचा दिखाएं या उस खौफनाक मंजर की याद दिलाएं जब उन्होंने अपनी सत्ता को स्थापित करने के लिए बहुसंख्यक समाज की भावनाओं को आहत किया था।
दशकों से चले अयोध्या प्रकरण और उसे लेकर 1984 से विश्व हिन्दू परिषद के आक्रामक अभियान से निश्चित रूप से भाजपा को लाभ हुआ है। आज भाजपा विकास या रोजगार की बात नहीं करती। 2024 का चुनाव केवल अयोध्या में राममन्दिर और हिन्दुत्व के मुद्दे पर लड़ा जा रहा है। हिन्दुओं में आए इस उफान की जड़ में है मुसलमानों की असंवेदनशीलता। जब 1947 में धर्म के आधार पर भारत का बंटवारा हुआ तो भी भारत ने हर मुसलमान को पाकिस्तान जाने के लिए बाध्य नहीं किया। ये बहुसंख्यक हिन्दू समाज की उदारता का प्रमाण था जबकि कश्मीर घाटी, पाकिस्तान, बांग्लादेश और हाल के दिनों में अफगानिस्तान में हिन्दुओं पर जो अत्याचार हुए और जिस तरह उन्हें वहां से निकाला गया, उसके बाद भी आरोप लगाना कि विहिप, संघ और भाजपा मुसलमानों के प्रति हिन्दुओं में उत्तेजना को बढ़ा रहे हैं, सही नहीं है।
भाजपा हिन्दुओं के उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जो मुसलमानों के सार्वजनिक आचरण से विचलित रहा है। दरअसल, धर्म आस्था और आत्मोत्थान का माध्यम होता है। इसका प्रदशर्न यदि उत्सव के रूप में किया जाए तो वह एक सामाजिक-सांस्कृतिक घटना मानी जाती है जिसका सभी आनंद लेते हैं। चाहे विधर्मी ही क्यों न हों।
दीपावली, ईद, होली, बैसाखी, क्रिसमस, पोंगल, संक्रांति और नवरोज आदि ऐसे उत्सव हैं, जिनमें दूसरे धर्मो को मानने वाले भी उत्साह से भाग लेते हैं। अपने-अपने धर्मो की शोभायात्राएं निकालना, पंडाल लगा कर सत्संग या प्रवचन करवाना, नगर-कीर्तन करना या मोहर्रम के ताजिये निकालना, कुछ ऐसे धार्मिंक कृत्य हैं, जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होती या नहीं होनी चाहिए। बशर्ते कि इन्हें मर्यादित रूप में, बिना किसी को कष्ट पहुंचाए, आयोजित किया जाए किंतु हर शुक्रवार को सड़कों, बगीचों, बाजारों, सरकारी दफ्तरों, हवाईअड्डों और रेलवे स्टेशनों जैसे सार्वजनिक स्थलों पर मुसल्ला बिछा कर नमाज पढ़ने की जो प्रवृत्ति रही है, उससे हिन्दुओं में मुसलमानों के प्रति आक्रोश बढ़ा है। ठीक वैसे ही जैसा आक्रोश आज यूरोप के देशों में मुसलमानों के इसी रवैये के प्रति पनप रहा है। इसलिए समय आ गया है कि मुस्लिम समाज बिना हील-हुज्जत के मथुरा और काशी के धर्मस्थलों से मस्जिदों को खुद ही हटा कर स:सम्मान दूसरी जगह स्थापित कर दें, जैसा अनेक इस्लामिक देशों में किया भी जा चुका है। इससे दोनों पक्षों के बीच सौहार्द बढ़ेगा और किसी को भी सांप्रदायिकता भड़काने का मौका नहीं मिलेगा।
| Tweet![]() |