बिहार : गणित, रसायन और राजनीति

Last Updated 12 Feb 2024 12:57:47 PM IST

बिहार में हालिया सत्ता परिवर्तन के बाद राजनीतिक गहमा गहमी बढ़ी है। पाला बदल-बदल कर नीतीश कुमार ने पांच दफा सरकार के गठन और पतन को अंजाम दिया है।


बिहार : गणित, रसायन और राजनीति

विगत एक दशक (2013-24) में बिहार ने ‘आए नीतीश, गए नीतीश’ के दर्द को झेला है। इस अभ्यास से नीतीश ने अपने आपको व्यक्तिगत तौर पर आवश्यक अपरिहार्य बना लिया है।  
नौवीं बार मुख्यमंत्री की शपथ लेने के बाद नीतीश को परिस्थितियों का नायक तो माना जा सकता है लेकिन इस दौर-ए-सियासत में उनकी छवि, शुचिता और क्षमता पर  प्रश्नवाचक चिह्न लग गया है। उनकी विसनीयता घटी है। अब की बार इस आचरण के लिए उनकी भरपूर किरकिरी हो रही है। बहुमत के लिए उपयुक्त संख्या होने के बावजूद ऊहापोह की स्थिति है। फ्लोर-टेस्ट में क्रॉस-वोटिंग का डर भी सता रहा है।

एनडीए में भाजपा (78), जदयू (45), हम (4) और एक निर्दलीय को जोड़कर कुल 128 सदस्य हैं, जबकि महागठबंधन में राजद (79), कांग्रेस (19) और वामदलों (16) के कुल 114 विधायक हैं। इस गणित को रसायन से चुनौती मिलती दिख रही है। राजनीतिक विमर्श में जदयू-भाजपा गठबंधन को सहज माना गया है जबकि वोटर्स समीकरण के दृष्टिकोण से यह परस्पर विरोधी है।लगभग दो दशक से दोनों दल गठबंधन  में रहे हैं। फिलवक्त में यह सहजता ढहती दिख रही है। भाजपा कोटे के दोनों उपमुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा और सम्राट चौधरी का रुख आक्रामक है। पिछले कार्यकाल (2020-22) में भी जदयू को कमतर दिखाने में भाजपा कभी पीछे नहीं रही जो अंतत: गठबंधन टूटने का प्रमुख कारण बना था।

नये परिप्रेक्ष्य में कोई खास परिवर्तन की गुंजाइश नहीं दिख रही। राजद-जदयू गठबंधन के स्वाभाविक होने के दो प्रमुख कारण हैं। पहला, दोनों दलों के प्रमुख लालू-नीतीश का उभारबिंदु जेपी आंदोलन था। दूसरा, दोनों के वैचारिक प्रेरणा-पुंज भी लोहिया-कर्पूरी रहे हैं। दोनों मंडल आंदोलन में एक साथ रहे हैं। सत्रह साल बाद जब दोनों दल एक साथ मिल कर विधानसभा (2015) चुनाव लड़े तो ऐतिहासिक जीत दर्ज की।

आधार वोट के समीकरण पर नजर डालें तो दोनों का गठबंधन स्वाभाविक प्रतीत होता है। दिलचस्प है कि दोनों के बीच गठबंधन के दोनों अवसर क्रमश: बीस (2015-17) और सत्रह (2022-24) महीने ही टिक पाए। जदयू से पहली टूट के बाद राजद का विपक्षी दल के रूप में कार्यकाल (2017-20) यादगार रहा। इस अवधि में नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी प्रसाद यादव की नेतृत्व क्षमता और जनस्वीकार्यता चर्चित रही।

उन्होंने जन सरोकार के मुद्दों को सड़क से सदन तक जोरदार तरीके से उठाया और नीतीश के समक्ष स्वयं को एक सक्षम एवं लोकप्रिय नेता के रूप स्थापित किया। बेरोजगारी यात्रा के माध्यम से वे युवाओं को बेहद प्रभावित कर पाए। उनकी मेहनत बिहार विधानसभा चुनाव (2020) के परिणाम में दिखाई दी जब भाजपा के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और जदयू के पदासीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को जोरदार चुनौती देते हुए तेजस्वी प्रसाद यादव ने अकेले उस चुनाव में राजद को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में जीत दिलाई। पढ़ाई, कमाई, दवाई, सिंचाई और कार्रवाई जैसे मुद्दों को चुनाव में चर्चा का मुख्य बिंदु बनाने में सफल रहे।

राजद-जदयू के साथ आने का दूसरा अनुभव (2022-24) भी संक्षिप्त रहा लेकिन यह कार्यकाल भी राजद के लिए सकारात्मक रहा। इस बार उपमुख्यमंत्री के रूप में तेजस्वी की छवि, कार्यकुशलता, परिपक्वता और स्वीकार्यता काफी बढ़ी है। इस संक्षिप्त कार्यकाल में प्रदेश के युवाओं को बड़े पैमाने पर सरकारी नौकरी मिली हैं। लाखों नियोजित शिक्षकों को राज्यकर्मी का दर्जा मिलना, मानदेय दुगुना करना, जाति गणना कराना व इसके उपरांत आबादी के अनुसार हिस्सेदारी का दायरा बढ़ाकर 75 फीसद करना जैसे ऐतिहासिक निर्णयों के लिए तेजस्वी को मुक्तकंठ से समवेत स्वर में श्रेय मिल रहा है।

नीतीश इस बार पाला बदलने का खास कारण स्पष्ट नहीं कर पाए और राजद पर इसकी जिम्मेदारी भी नहीं थोप पाए। भाजपा ने जान-बूझकर रणनीतिक ढंग से कोई जल्दीबाजी नहीं दिखाई जिसके कारण बेहतर कार्य करने वाली सरकार को अस्थिर करने का  दोष नीतीश के पाले में ही जाता दिख रहा है। यही कारण है कि जदयू  विधायक अपने राजनीतिक भविष्य को लेकर चिंतित हैं। भाजपा के निर्णय से भी उनके विधायक परेशान हैं। ऐसी परिस्थिति में बारह फरवरी का फ्लोर-टेस्ट चर्चा का विषय है। बिहार की राजनीति में चर्चित चाचा-भतीजा के बीच इस जंग में कौन बाजी मारेगा? देखना दिलचस्प होगा! लोक सभा चुनाव की पृष्ठभूमि में बिहार में जारी राजनीतिक उठापटक आने वाले कालखंड को रोचक बनाने में दिशा प्रदान कर रही है। पूरे प्रसंग से प्रतीत हो रहा है कि वाकई में राजनीति संभावनाओं की कला है।

प्रो. नवल किशोर


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