सामयिक : सम्मानपूर्वक विदाई लें नीतीश

Last Updated 30 Jan 2024 01:23:09 PM IST

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार (Nitish Kumar) जब राजभवन में अपना त्यागपत्र सौंपने जा रहे थे तो वहां किसी तरह की कोई हलचल नहीं थी।


सामयिक : सम्मानपूर्वक विदाई लें नीतीश

आम जनता की तो छोड़िए यहां उनकी पार्टी जनता दल (यू) का भी कोई कार्यकर्ता झंडा लेकर उनका स्वागत करने या उनके पक्ष में नारा लगाने के लिए नहीं था। जिस राष्ट्रीय जनता दल से वे गठबंधन तोड़ रहे थे उसका भी कोई वहां विरोध करने के लिए नहीं था। अगर पत्रकार वहां नहीं होते तो लगता ही नहीं कि कोई मुख्यमंत्री वाकई त्यागपत्र देने जा रहा है। यह स्पंदनहीन स्थिति ही प्रमाणित करती है कि एक समय सुशासन बाबू का विशेषण पाने वाले नीतीश कुमार ने खुद की कैसी दयनीय अवस्था बना ली है।

इसमें सामान्य राजनीति तो यही होती कि नीतीश दूसरे दलों के साथ अपने दल में भी अकेले पड़ जाते, किंतु 2013 से वह जब चाहे गठबंधन तोड़ते हैं और दूसरा पक्ष उनका साथ लेने के लिए तैयार रहता है। वे फिर दूसरे पक्ष को छोड़ते हैं और पहला पक्ष उनके साथ आ जाता है। सन 2005 से बिहार में सत्ता के शीर्ष केंद्र बिंदु वही हैं। वास्तव में वह अगर स्वयं पलटी मारते हैं तो दूसरे को पलटवाते भी हैं। पलटने और पलटवाने का यह चक्र ऐसा हो गया है जिससे समान्य व्यक्ति के अंदर नीतीश की राजनीति को लेकर एक ही भाव पैदा होता है, वह है जुगुप्सा का। बावजूद अगर वह राजनीति में आज भी स्वीकार्य हैं तो इसे उनका राजनीतिक कौशल कहें या वर्तमान विशेषकर बिहार की राजनीति की विडंबना।

अब यह बताने की भी आवश्यकता नहीं कि नीतीश और आज भी हृदय से उनके साथ बने हुए नेताओं की न कोई विचारधारा है, न सिद्धांत, न उनकी राजनीति के किसी भी मान्य व्यवहारों के प्रति प्रतिबद्धता ही। वे जिसको छोड़ेंगे उसकी आलोचना करेंगे और यह भी कहेंगे कि दोबारा लौटकर उनके साथ नहीं आऊंगा। अगली बार फिर जिनके साथ जाएंगे उनकी आलोचना करेंगे और यही कहेंगे। अगस्त, 2022 में जब वह भाजपा को छोड़ राजग गठबंधन के साथ गए तो उन्होंने कहा कि ‘मैं मर जाऊंगा, लेकिन भाजपा के साथ नहीं आऊंगा।’ तो क्या यह मान लिया जाए कि अब उन्होंने मृत्यु को प्राप्त कर पुनर्जन्म लिया है?

बिहार के दोनों मुख्य दलों भाजपा और राष्ट्रीय जनता दल उनकी आलोचना सुनकर और स्वयं घोषणा कर कि अब उनके लिए दरवाजे बंद है, फिर दरवाजा खोल देते हैं। राजनीति में रु चि रखने वाले देश के लोग यह प्रश्न उठा रहे हैं कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा? इस समय की स्थिति देखिए, सामने लोक सभा चुनाव है और विपक्ष भाजपा के विरुद्ध एकबद्ध होने की कवायद कर रहा है। इस समय भाजपा का मुख्य लक्ष्य स्वाभाविक ही किसी तरह विपक्ष कमजोर करना तथा लोक सभा चुनाव में बड़ी विजय प्राप्त करना है। नीतीश कुमार को अस्वीकार करने के तीन परिणाम आते।  एक, बिहार में लालू प्रसाद यादव परिवार के नेतृत्व में राजद गठबंधन की सरकार बनती। दूसरा, बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू होता या तीसरा, हारकर नीतीश कुमार फिर राजद गठबंधन के भाग होते। ये तीनों स्थितियां भाजपा के लिए प्रतिकूल होती।  

राजद के साथ नीतीश की सरकार के बने रहने का अर्थ ‘इंडिया’ गठबंधन का जीवित रहना होता। यह स्पष्ट है कि राजद ने अंतिम समय तक सरकार बनाने की कोशिश की। अगर नीतीश को भाजपा समर्थन नहीं देती तो उन्होंने जिस लचर अवस्था में अपने दल को पहुंचा दिया है उसमें उनके विधायक छोड़कर राजद के साथ जा सकते थे। चूंकि नीतीश कुमार ने ही विपक्षी एकता की शुरु आती कोशिश की और उन्हीं के प्रयासों से बिहार की राजधानी पटना में ज्यादातर विपक्षी दल एक साथ बैठे, इसलिए उनके अलग होने के बाद आम आदमी भी यही मानेगा कि ‘इंडिया’ खत्म हो गया। राजनीति में इससे बढ़िया मुंहमांगा अवसर और कुछ हो ही नहीं सकता। यह स्थिति नहीं होती तो शायद भाजपा इस बार उनकी पलटी को अपने समर्थन की ताकत नहीं देती। हालांकि पहली बार भी नीतीश कुमार राजद के साथ 2 वर्ष से ज्यादा नहीं चल सके। उन्हें इस बात का अनुभव हो गया था कि लालू प्रसाद यादव परिवार के साथ मुख्यमंत्री की अथॉरिटी का पालन करते हुए सरकार चलाना असंभव है। उनकी पार्टी मंडलवादी होते हुए भी राजद के साथ असहज थी। बावजूद अगर दूसरी बार उन्होंने यही किया तो इसे भूल नहीं अपराध मानना चाहिए।

उन्होंने पिछले दिनों विधानसभा में पति-पत्नी संबंधों पर दिए गए वक्तव्य को लेकर कहा कि मैं स्वयं अपनी निंदा करता हूं। इसी तरह उन्हें अपने इस राजनीतिक अपराध की सजा देने की स्वयं तैयारी करनी चाहिए। वे कह रहे हैं कि कुछ ठीक नहीं चल रहा था और इसीलिए हमने बोलना भी बंद कर दिया था। तो क्या ऐसा पहली बार हुआ? बिहार की जनता ने आपकी गलतियों को ठुकरा कर फिर से भाजपा-जद (यू) को बहुमत दिया। हालांकि आपसे नाराजगी थी तभी जद (यू) की सीटें 43 तक सिमट गई।

इस भावना को समझते हुए अगर वो सरकार चलाना जारी रखते तो बिहार की राजनीति इस तरह दयनीय तस्वीर नहीं बनती। तेजस्वी यादव ने सधे वक्तव्य में भी कहा है कि 2024 में ही उनकी पार्टी खत्म हो जाएगी। इतना सच है कि नीतीश की मानिसक अस्थिरता के कारण उनकी पार्टी ही दिल से उनके साथ नहीं थी और वैचारिक रूप से पार्टी का बहुमत उनसे अलग हो चुका था। अस्वाभाविक गठबंधन में जाने के कारण उनका मानसिक संतुलन कितना गड़बड़ हो गया था इसके प्रमाण उनके वक्तव्यों और व्यवहारों से लगातार मिलने लगा था। अनेक गंभीर विश्लेषकों ने भी कहना शुरू कर दिया था कि नीतीश को अब पद से अलग कर मानसिक उपचार के लिए तैयार किया जाना चाहिए।

त्यागपत्र देने एवं नए सिरे से शपथ ग्रहण करने पर लंबे समय बाद उनके चेहरे पर हंसी दिखाई दी। उम्मीद करनी चाहिए कि अब यह हंसी बरकरार रहेगी और आगे जब तक शासन में हैं, सकारात्मक राजनीति करेंगे। भाजपा के लिए आवश्यक है कि एक ओर नीतीश कुमार को सम्मानपूर्वक विदाई का रास्ता तैयार करे तो दूसरी ओर पार्टी को अपने पैरों पर खड़ा करे। अयोध्या के श्रीराम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा के साथ जो वातावरण संपूर्ण देश और बिहार में बना है उसमें यह कार्य कठिन नहीं होगा। यह बदला हुआ वातावरण ही है जहां शपथग्रहण समारोह में जय श्रीराम के नारे तो लगे, लेकिन नीतीश जिंदाबाद के नहीं। नीतीश के लिए भी एक ही रास्ता है कि वे सम्मान के साथ स्वयं को बिहार के नेतृत्व से आने वाले समय में अवसर तलाश कर अलग करें।

अवधेश कुमार


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