हंसदेव अरण्य : मध्य भारत का फेफड़ा बचाना होगा
मध्य भारत के छत्तीसगढ़ राज्य के तीन जिले कोरबा, सूरजपुर, सरगुजा में एक जंगल है, उसका नाम है हंसदेव अरण्य। यह 1,70,000 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैला हुआ है।
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इस भरपूर जैव विविधता के बीच में गोंड जैसे आदिवासी समुदाय का पुश्तैनी निवास स्थान है। इस वन भूमि को कोयला निकालने के लिए खदान कंपनियों को आवंटित कर दिया गया है। वर्तमान में यहां परसा ईस्ट एवं केते कोल बासेन खदान के लिए 1136 हेक्टेयर वन क्षेत्र में फैले लगभग 2 लाख से अधिक पेड़ों पर संकट मंडरा रहा है, जिसका विरोध यहां के आदिवासी लोग कर रहे हैं। बताया जाता है कि अब तक 1.37 हेक्टेयर जंगल काटे जा चुके हैं। लगभग एक दशक से हंसदेव के जंगल को कोयले के खदान के लिए नष्ट किया जा रहा है। इसके लिए रात-दिन बड़ी-बड़ी भीमकाय मशीनें जंगल की जड़ों को उधेड़ने का काम कर रही है।
यहां पर 10 हजार से अधिक आदिवासी समाज के लोग निवास करते हैं। जिन्हें अपनी जमीन और जंगल से बेदखल होना पड़ेगा। भूगोल के जानकार मानते हैं कि यह जंगल मध्य भारत का फेफड़ा है। जहां से शुद्ध हवा, पानी, मिट्टी का सतत प्रवाह है और आदिवासी लोगों की आजीविका इसी से चल रही है। हंसदेव (कोरबा) का जंगल झारखंड और उड़ीसा की सीमा से भी लगा हुआ है। माइनिंग के लिए जंगल की नीलामी के बाद से यहां बड़ी संख्या में पेड़ों का कटान चल रहा है। आदिवासी छात्र संगठन ने भी सरकार से कटान रोकने की मांग की है। देश के कोने-कोने के पर्यावरणविद् और सामाजिक कार्यकर्ता हंसदेव जंगल को बचाने के लिए केंद्र और राज्य सरकार से गुहार लगा रहे हैं।
हंसदेव जंगल की कटाई के लिए जिस तरह से रास्ता खोला गया है उसी तरह से पहले भी बक्स्वाहा, दिवांग घाटी, उत्तराखंड में लाखों पेड़ों की प्रजातियां काटी जा चुकी है। अंधाधुंध जंगल काटने के ये ऐसे उदाहरण है, जिसके आधार पर कह सकते हैं कि जिस तरह से ग्लोबल में पर्यावरण को स्वस्थ रखने के लिए हम अपनी भूमिका को रेखांकित करते हैं; उसकी सच्चाई स्थानीय स्तर पर कुछ और ही देखने को मिलती है। वन विनाश की ऐसी स्थिति में अवश्य ही हम आने वाली पीढ़ियों के लिए बैंक बैलेंस तो छोड़ सकते हैं, लेकिन हवा, पानी की बर्बादी करके कोई भी मनुष्य बैंक से पैसे निकाल कर असुरक्षित पर्यावरण में जीवन नहीं जी सकता है, लेकिन आदिवासी लोग अपने जंगल की उपयोगिता को अच्छी तरह से समझते हैं, जिसका उदाहरण है कि वे इस कंपकंपाती ठंड में भी अपने बच्चों और महिलाओं के साथ दिन-रात रैली, प्रदर्शन, जुलूस निकालकर हंसदेव जंगल को बचाने की मांग कर रहे हैं।
चिंताजनक है कि कोई भी राजनीतिक दल कंधा-से-कंधा मिलाकर प्रत्यक्ष रूप से उनका साथ नहीं दे रहे हैं। स्थानीय नेता यदा-कदा अपने वोट बैंक के लिए क्षण भर के लिए जरूर साथ हो जाते हैं, लेकिन पूरी तरह से जंगल बचाने के इस आदिवासी प्रयास के साथ जनप्रतिनिधियों की हिस्सेदारी संतोषजनक नहीं दिखाई दे रही है। वैसे भी पर्वतीय इलाके हो या आदिवासी क्षेत्र में जहां लोग थोड़ा भी पढ़-लिखकर नौकरी के लिए बाहर चले गए हैं, वहां भी पलायन कर गए लोग अपने यहां के जंगल बचाने में कोई सहयोग नहीं कर पाते हैं। यह जगजाहिर है कि जहां पर भी प्राकृतिक संसाधनों की कीमत पर विकास परियोजनाएं और खनन की शुरुआत होती है; वहां सबसे पहले संबंधित क्षेत्र के नवयुवक नौकरी के लिए कंपनियों के मालिक से मिलने लगते हैं।
वे बहुत ही अल्प समय के रोजगार के लिए नौकरियां प्राप्त कर लेते हैं। उनके सामने चाहे उनके जंगल कट रहे हों या उनकी खेती-बाड़ी नष्ट हो रही हो; उसका वे जरा भी विरोध नहीं कर पाते हैं। किसी भी परियोजना प्रभावित क्षेत्र में इस अल्प समय के रोजगार में शामिल होने वाले नौजवानों की संख्या हजारों तक भी पहुंच जाती है और वे पैसे के लालच में अपने प्राकृतिक संसाधनों की पूरी कीमत खो बैठते हैं। और स्थानीय विरोध के चलते भी लोगों की स्थाई जीवनशैली को बहुत बड़ा भारी नुकसान पहुंचता है। कहते हैं कि इसी तरह देश में पर्वतों और नदियों पर निर्माणाधीन एवं निर्मिंत विकास परियोजनाओं के कारण लगभग 7 करोड़ से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं।
खनन के नाम पर हसदेव जंगल को जितनी बेरहमी से नुकसान पहुंचाया जा रहा है। उसका उत्तर यही मिलता है कि इसके बदले नए स्थान पर वृक्षारोपण का आासन मिलता है। इस सच्चाई को पुराने अनुभव के आधार पर सत्यापन करने की आवश्यकता है कि नर्मदा घाटी और भागीरथी घाटी, कोसी घाटी सिंधु घाटी यमुना और गंगा घाटी में बनाई गई बड़ी-बड़ी जल परियोजनाओं और सड़कों के निर्माण से काटे गए लाखों जंगल के बदले कहां-कहां जंगल खड़े हुए हैं? उसकी सही पहचान करने की जरूरत है। तभी समझ में आता है कि यह केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे वि में पर्यावरण को स्वस्थ रखने वाले जंगलों के प्रति मौन लापरवाही महाविनाश के संकेत देती है।
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