क्रिकेट : ये कैसी दीवानगी

Last Updated 27 Nov 2023 01:17:52 PM IST

तेईस साल के राहुल ने कोलकाता में आत्महत्या कर ली। वो क्रिकेट के विश्व कप में भारतीय टीम की हार का सदमा बर्दाश्त नहीं कर सका।


क्रिकेट : ये कैसी दीवानगी

देश के अन्य हिस्सों में दूसरे नौजवानों ने हार के सदमे को कैसे झेला, इसका विवरण उपलब्ध नहीं है। यह सही है कि अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में अपने देश की टीम के साथ देशवासियों की भावनाएं जुड़ी होती हैं, और इसलिए जब परिणाम आशा के विपरीत आते हैं तो उस खेल के चाहने वाले हताश हो जाते हैं। खेलों में हार-जीत को लेकर अक्सर प्रशंसकों के बीच हाथापाई या हिंसा भी हो जाती है। इसके उदाहरण हैं, दक्षिणी अमेरिकी देश जहां फुटबॉल के मैच अक्सर हिंसक झड़पों में बदल जाते हैं। यूरोप और अमेरिका में भी लोकप्रिय खेलों के प्रशंसकों के बीच ऐसी वारदात होती रहती हैं।

यहां हम अहमदाबाद के नरेन्द्र मोदी स्टेडियम में क्रिकेट विश्व कप के लिए खेले गए फाइनल मैच के प्रभाव की चर्चा करेंगे और सोचेंगे कि आखिर, क्यों राहुल ने एक खेल के पीछे अपनी जान दे दी। हमें हमारे छात्र जीवन के दौरान बार-बार बताया जाता है कि खेल, खेल की भावना से खेले जाते हैं, हार-जीत से खेल के दौरान कौशल का प्रदर्शन महत्त्वपूर्ण होता है। जो खिलाड़ी बढ़िया खेलते हैं, वो सबके चहेते बन जाते हैं। विराट कोहली की बैटिंग की प्रशंसा जितनी भारत में होती है, उतनी ही अन्य देशों में भी होती है। ब्राजील के मशहूर फुटबॉलर पेले पूरी दुनिया के फुटबॉल प्रेमियों के हीरो थे। चिंता की बात यह है कि पैसे की हवस ने आज खेलों को भी एक उद्योग बना दिया है, और खिलाड़ियों को उद्योगपतियों के ग़ुलाम।

इस मामले में भारत में क्रिकेट पहले नम्बर पर है जिसे खिलाड़ी या खेलों के विशेषज्ञ नहीं, बल्कि सत्ताधीश और पैसे की हवस रखने वाले नियंत्रित करते हैं। इसलिए क्रिकेट को इतना ज्यादा बढ़ावा दिया जाता है। खेल के नाम पर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किए जाते हैं। कौन नहीं जानता कि क्रिकेट मैच के लिए सटोरिये लार टपकाए बैठे रहते हैं। बार-बार इस तरह के मामले उछले हैं, जब क्रिकेट के सट्टे या मैच फिक्सिंग के आरोपों में क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के सदस्यों पर भी छींटे पड़े हैं। हमारे देश में बड़े-बड़े घोटालों की जांच तो कभी तार्किक परिणति तक पहुंचती ही नहीं है। अखबारों की सुर्खियां और राजनैतिक लाभ का सामान बन कर रह जाती हैं। पिछले हफ्ते की घटना को ही लीजिए। आरोप लग रहे हैं कि सवा लाख दर्शकों की क्षमता वाले स्टेडियम में प्रवेश पाने के लिए टिकटों की जमकर कालाबाजारी हुई। अहमदाबाद के होटल वालों ने कमरों के किराए दस गुना बढ़ा दिए। पांच हजार रोज का कमरा 50,000 रुपये पर उठा। यही हाल हवाई यात्रा की टिकटों का भी रहा। कुल मिलाकर इस एक मैच से अरबों-खरबों का कारोबार हो गया। ये सारा मुनाफा मुख्यत: अहमदाबाद के व्यापारियों की जेब में गया। उधर खिलाड़ियों, चाहे वे जीतें या हारें, को जो शोहरत मिलती है उसका फायदा तो उन्हें मिलता ही है। बड़ी-बड़ी कंपनियां उन खिलाड़ियों को दिखा कर विज्ञापन बना कर मोटा लाभ कमा लेती हैं।

सारे मायाजाल में घाटे में तो आम दर्शक रहता है जो बाजार की शक्तियों के प्रभाव में इस मायाजाल का शिकार बन जाता है। कुछ देर के मनोरंजन के लिए अपना कीमती समय और धन गंवा बैठता है। उसकी हालत वैसी ही होती है जैसी ‘न खुदा ही मिला, न बिसाले सनम। न इधर के रहे, न उधर के रहे।’ इस तरह के खेल से न तो उसका शरीर मजबूत होता है, और न ही दिमाग। इसके मुकाबले तो फुटबॉल, हॉकी, बैडमिंटन, वॉलीबॉल जैसे खेल कहीं ज्यादा सार्थक हैं जिनको खेलने में खूब श्रम करना पड़ता है, और अपने गांव-कस्बों में इन खेलों को खेलने वाले युवाओं की सेहत बनती है। क्रिकेट के मुकाबले ये खेल काफी सस्ते भी हैं। जब हम हर बात में अपने औपनिवेशिक शासक रहे अंग्रेजों की आलोचना करते हैं, यहां तक कि उनके रखे नाम ‘इंडिया’ की जगह 75 वर्ष बाद अपने देश को ‘भारत’ कह कर पहचनवाना चाहते हैं, तो अंग्रेजों के इस औपनिवेशिक खेल क्रिकेट के पीछे इतने दीवाने क्यों हैं? यह दावा किया जाता है कि भारत और कुछ  राज्यों की सत्ता हिन्दुत्ववादी है तो स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि हिन्दुत्ववादी सरकारों ने अपने शासन के इन वर्षो में सनातनी संस्कृति के प्राचीन खेलों को कितना बढ़ावा दिया और अगर नहीं तो क्यों? मल्लयुद्ध, कबड्डी, कुश्ती, तीरंदाजी, घुड़सवारी, नौकादौड़, मल्लखंब जैसे खेलों की लागत न के बराबर होती है और इनसे युवाओं में शक्ति और बुद्धि का भी संचार होता है।

अहमदाबाद के हेमेंद्रचार्य संस्कृत गुरु कुलम ने यह सिद्ध कर दिया है। उनके विद्यार्थी बाजार की शक्तियों से प्रभावित हुए बिना शुद्ध सनातन संस्कृति पर आधारित शिक्षा और पारंपरिक खेलों का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। इसलिए भारत के किसी भी आधुनिक सुप्रसिद्ध विद्यालय के छात्रों के मुकाबले हर क्षेत्र में कहीं ज्यादा आगे हैं। भारत में क्रिकेट प्रेमियों की तादाद बहुत ज्यादा है। क्रिकेट मैच के दौरान देश की धमनियों में रक्त रु क जाता है। आश्चर्य होता है यह देख कर कि जिन्हें इस खेल का क, ख, ग भी नहीं पता वे भी इस खेल के दीवाने हुए रहते हैं। अपने काम और व्यवसाय से ध्यान हटा कर मैच का स्कोर जानने को उत्सुक रहते हैं।  मेरे ये विचार ऐसे तमाम लोगों के गले नहीं उतरेंगे किंतु वे इन बिंदुओं पर गंभीरता से विचार करें तो पाएंगे कि उनमें इस खेल के प्रति आकषर्ण का कारण उनकी स्वाभाविक उत्सुकता नहीं है, बल्कि वे बाजारीकरण की शक्तियों के शिकार बन चुके हैं।

यह ठीक ऐसे ही है जैसे काले रंग का शीतल पेय, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है, के उत्पादन का फार्मूला गोपनीय रखा गया है, और माना जाता है कि उसमें सैक्रीन, रासायनिक रंग, पेट्रोलियम जेली और कार्बन डाइआक्साइड मिली होती है, जो स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं पर अंतरराष्ट्रीय विज्ञापन के प्रभाव से हम इन शीतल पेयों को गर्व से पीते हैं जबकि जानते हैं कि दूध, छाछ, फलों के रस या नारियल पानी इन काले-पीले शीतल पेयों से कहीं ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक होता है। यही हाल हमारे क्रिकेट प्रेमियों का भी है जिनके दिमाग को बाजार की शक्तियों ने सम्मोहित कर लिया है। इसलिए कोलकाता के युवा राहुल की आत्महत्या ने मुझे यह लेख लिखने पर बाध्य किया। आपका क्या विचार है?

विनीत नारायण


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