मुद्दा : राष्ट्रवाद और समावेशी विकास के परिणाम

Last Updated 06 Dec 2023 01:00:35 PM IST

पांच राज्यों में हुए चुनाव में भाजपा की बड़ी विजय को मोदी का जादू और लाडली बहनों के आशीर्वाद का परिणाम माना जा रहा है।


मुद्दा : राष्ट्रवाद और समावेशी विकास के परिणाम

इसे 2024 में होने वाले लोक सभा चुनाव का सेमिफाइनल भी कहा जा रहा है। जो भी कह लें यह परिणाम प्रखर राष्ट्रवाद और समावेशी विकास के पर्याय हैं। मतदाताओं के बड़े समूह ने साफ जता दिया है कि वे जाति-धर्म की नकारात्मक राजनीति करने वाले दलों के पक्ष में नहीं हैं। अतएव उन्हें पनौती जैसे मुद्दे खड़े करने से बाज आना चाहिए।

मतदाताओं ने राष्ट्रवाद, सनातन, सुशासन राजनीतिक स्थिरता और ढांचागत विकास के साथ समावेशी विकास के पक्ष में मतदान किया है जिससे व्यापक राष्ट्रहित के साथ विकास भी सर्वोपरि रहे। मध्य प्रदेश पिछड़ा वर्ग और जनजाति बहुल राज्य है, लेकिन उसने कांग्रेस और कथित इंडिया अर्थात आईएनडीआई गठबंधन के जातिवार गणना के मुद्दे को सर्वथा नाकार दिया। अब यह मुद्दा लोक सभा चुनाव में इस मुद्दे के जनक रहे नीतीश कुमार के बिहार में भी चलने वाला नहीं है। राहुल गांधी जातीय गणना को लेकर बाग-बाग हो रहे थे। जबकि नरेन्द्र मोदी ने बड़ा दांव चलते हुए कह दिया कि मेरी नजर में केवल चार जातियां हैं, गरीब महिला, युवा और किसान।

उन्हीं के हितों को सर्वोपरि रखते हुए केंद्र और भाजपा शासित राज्यों में लोक-कल्याणकारी योजनाएं बनाई जा रही हैं। ये योजनाएं भले ही राजस्व पर असर डाल रही हों, लेकिन गरीबों के जीवन को आसान बनाने में लाभदायी सिद्ध हो रही हैं। मोदी की गारंटी, डबल इंजन सरकार और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे नारों की गूंज ने मतदाता के भीतर विास पैदा किया और भाजपा को मिले जनादेश ने राजस्थान और छत्तीसगढ़ कांग्रेस से छीन लिए। मध्य प्रदेश को न केवल बचाया बल्कि 163 सीटें जीतकर सत्ता संचालन का मार्ग और प्रशस्त कर दिया। तेलंगाना में 9 सीटें तो जीतीं ही, मतदान का प्रतिशत भी 6 से बढ़कर 14 हो गया। भाजपा की इस चैतरफा बढ़त की प्रमुख वजह यह भी रही कि वह युवा और शिक्षित बेरोजगारों को जहां डिजिटलीकरण, कृत्रिम बुद्धिमता और यहां तक कि एकदम नए तकनीकी हमले से जुड़े विषय डीपफेक जैसे मुद्दों को उछाल रही थी, वहीं विदेशी शिक्षा प्राप्त राहुल गांधी, अंबानी, अडाणी, पनौती और ओबीसी की गिनती जैसे रूढ़ मुद्दों का ही राग अलापते रह गए।

मध्य प्रदेश में लाडली बहनों के मन में जहां शिवराज भैया रहे, वहीं अन्य मतदाताओं के मन में मोदी का जादू रहा जिसने सत्ता की कठिन डगर को सरल कर दिया। लाडली बहनों के वोट 2 प्रतिशत बढ़े वोटों ने भाजपा को फिर से सत्ता की चाबी सौंप दी। इस बार प्रदेश में कुल 77.15 फीसद मतदान में महिलाओं ने 76.3 प्रतिशत मतदान की आहूति दी। शिवराज ने इसी साल फरवरी में लाडली बहना योजना की थी। इसके बाद अत्यंत फुर्ति से इस योजना की कागजी कार्यवाही पूरी करके इसे 10 जून से खाते में डालने का काम भी शुरू कर दिया। पहले माह 1000 रुपये डाले गए। बाद में बढ़ाकर 1250 रुपये कर दिए। प्रदेश के इतिहास में यह सबसे तेजी से प्रचलन में आकर लोकप्रिय होने वाली योजना रही। शिवराज ने इसे बढ़ाकर 3000 कर देने का भरोसा देकर बहनों का समूचा समर्थन पाने का मार्ग खोल दिया  जबकि कांग्रेस अति आत्मविास के भ्रम में डूबी रह गई अन्यथा कमलनाथ को अच्छा अवसर सत्तारूढ़ होने का मिला था, जिसमें वे चुक गए। अपने पक्ष में माहौल देख चुनाव के एन वक्त पर कांग्रेस हाथ पे हाथ धरे बैठी रह गई।

दिग्विजय सिंह ने जरूर चुनिंदा सीटों पर दौरे किए और प्रत्याशियों का मनोबल बढ़ाया लेकिन ज्यादातर प्रत्याशी अपने ही संसाधनों से सोसल मीडिया पर इकलौते लड़ते दिखाई दिए। उन्हें संगठन की कोई ठोस मदद नहीं मिली। नतीजतन, कांग्रेस 66 सीटों पर सिमट गई। 2003 में जब उमा भारती ने मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह को बंटाढार कहते हुए सत्ता से बेदखल किया था, तब भी कांग्रेस की 73 सीटें आई थीं। अलबत्ता, भाजपा ने संघ और संगठन से लेकर अपनी पूरी ताकत झोंक दी। इन चुनाव परिणामों के यूं तो कई संदेश हैं, लेकिन जो सबसे बड़ा संदेश तीनों राज्यों की बड़ी जीत में अंतर्निहित है, उसने साफ कर दिया है कि भाजपा की यह जीत किसी एक जाति, धर्म और धुव्रीकरण की नहीं है, बल्कि सकारात्मकता की है।

चुनावी विश्लेषक खास तौर से मध्य प्रदेश में बढ़े मतदान को सत्ता विरोधी रुझान का पर्याय बता रहे थे, जबकि वह सत्ता की रचनात्मकता का सुखद पर्याय बनकर सामने आया है। यह अनिवार्य मतदान की जरूरत की पूर्ति कर रहा है। हालांकि फिलहाल देश में अनिवार्य मतदान की संवैधानिक बाध्यता नहीं है। मेरी सोच के मुताबिक ज्यादा मतदान की जो बड़ी खूबी है, वह है कि अब अल्पसंख्यक और जातीय समूहों को वोट बैंक की लाचारगी से छुटकारा मिल रहा है। इससे कालांतर में राजनीतिक दलों को भी तुष्टिकरण की मजबूरी से मुक्ति मिलेगी क्योंकि जब मतदान का प्रतिशत 75 से 85 होने लगता है, तो किसी धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र विशेष से जुड़े मतदाताओं की अहमियत नगण्य हो जाती है। नतीजतन, उनका संख्या बल जीत या हार की गारंटी नहीं रह जाता। लिहाजा, सांप्रदायिक और जातीय आधार पर ध्रुवीकरण की राजनीति शून्य हो जाती है।

प्रमोद भार्गव


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