सामयिक : संतों को किससे भय

Last Updated 06 Dec 2023 01:20:21 PM IST

पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) वृंदावन के सुप्रसिद्ध संत हित प्रेमानंद गोविंद शरण महाराज के दर्शन करने गए।


सामयिक : संतों को किससे भय

देश भर के वीआईपी और विराट कोहली जैसी सेलिब्रिटी, जो भी वृंदावन आता है, महाराज के दर्शन करने अवश्य जाता है। इनमें से ज्यादातर लोग इसलिए जाते हैं क्योंकि पिछले दो-तीन वर्षो में महाराजश्री सोशल मीडिया पर पूरी दुनिया में तेजी से वायरल हुए हैं। बाकी लोग उनका आशीर्वाद लेने जाते हैं और थोड़े जिज्ञासु उनसे ज्ञान लेने जाते हैं। माना जा सकता है कि भागवत भी प्रथम श्रेणी के ही दर्शनार्थी थे, जो आशीर्वाद या आध्यात्मिक ज्ञान लेने नहीं, बल्कि महाराज के करोड़ों प्रशंसकों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराने गए थे।

‘संतन के ढिग रहत है सबके हित की बात’ की भावना को चरितार्थ करते हुए महाराज ने भागवत को लंबा प्रवचन दे डाला जिसका मूल आशय था कि संघ और भाजपा सहित देश के सभी राजनैतिक दल रेवड़ियां बांट  कर भारत का ‘विकास’ करने का जो दावा कर रहे हैं उससे भारत कभी सुखी और संपन्न नहीं बन सकता बल्कि मानसिक और नैतिक रूप से दुर्बल और सामाजिक रूप से विभाजित राष्ट्र बन रहा है, जो देश के भविष्य के लिए घातक है। महाराज का जोर इस बात पर था कि धर्माधता, उत्तेजना, आक्रामकता और हिंसा को बढ़ाने वाले दल समाज का भला नहीं कर सकते। यह प्रवचन बड़ी तेजी से दुनिया भर में वायरल हो चुका है। इसे सुन कर भागवत निरुत्तर हो गए। क्या आशा की जा सकती है कि संघ में इस विषय पर आत्मविश्लेषण और चिंतन किया जाएगा? क्योंकि स्वयं महाराज प्राय: कहते हैं कि उनके प्रवचन को सुनने से कोई लाभ नहीं, जब तक उसे आचरण में न लाया जाए।

प्रेमानंद महाराज देश के अति शक्तिशाली राजनेता से इतने कड़े शब्दों में ऐसा इसलिए कह सके क्योंकि उनका हृदय निर्मल है और उन्होंने जीवन में कठोर तप किया है, और उन्हें किसी भी सरकार से किसी लाभ, उपाधि या सहायता की कोई अपेक्षा नहीं है। अब जरा परिदृश्य को बदलिए और देखिए उन तथाकथित संतों की ओर जो अध्यात्म का चोला ओढ़ कर वैभव, सत्ता और ग्लैमर का सुख भोग रहे हैं। किसी एक का नाम लेने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि इनकी फेहरिस्त लंबी है।

पिछले कुछ वर्षो में ऐसे आत्मघोषित सद्गुरुओं, महामंडलेश्वरों, शंकराचार्यों और मठाधीशों की पूछ अचानक बढ़ गई है। धर्म के नाम पर अरबों रुपये की संपत्ति जमा कर लेने वाले ऐसे सभी ‘मीडियाजीवी संत’ भारत सरकार या राज्य सरकार द्वारा दी गई एक्स, वाई या जेड श्रेणी की पुलिस सुरक्षा के घेरे में चलते हैं। इनकी सुरक्षा पर इस देश के मेहनतकश करदाताओं के टैक्स का अरबों रुपया हर साल खर्च हो रहा है जबकि करदाताओं को इसका कोई लाभ नहीं मिलता। हिरण्यकश्यप के वध के बाद उसके खून में सनी आंतड़ियों की माला पहने रौद्र रूप में सामने खड़े नरसिंह भगवान को शांत करने गए सुकुमार बालक प्रह्लाद ने कहा, ‘भगवन मुझे आपके इस भयानक रूप से डर नहीं लगता पर अपनी वासनाओं से डर लगता है जो मेरी आध्यात्मिक राह में बाधक हैं।’

सुरक्षा के घेरे में चलने वाले इन संतों ने अपने प्रवचनों में अनेक बार श्रीमद् भागवत के इस प्रसंग का उल्लेख किया होगा? पर क्या इससे मिले ज्ञान पर कभी मंथन भी किया? हमने तो विरक्त संतों से यही सुना है कि लाभ, पूजा, प्रतिष्ठा के पीछे भागने वाले कभी आध्यात्मिक प्रगति नहीं कर सकते। आप पूछ सकते हैं कि जब दूसरे विशिष्ट व्यक्तियों को सरकार की तरफ से इस तरह की सुरक्षा दी जाती है तो इन मशहूर संतों को सुरक्षा क्यों न दी जाए? दोनों परिस्थितियों में अंतर है।

बाकी लोग अपने सत्कर्मो या कुकर्मो के कारण लगातार मौत के भय में जीते हैं इसलिए वे सरकार से सुरक्षा मांगते हैं जबकि स्वयं को संत मानने वाले उस आध्यात्मिक मार्ग के पथिक हैं जिसमें, ‘चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह। जिनको कछु न चाहिए, वे साहन के साह’ आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले को मौत का क्या भय? गोस्वामी तुलसीदास भी कह गए हैं, ‘हानि लाभ जीवन मरण, या अपयश विधि हाथ।’ फिर मौत से क्या डरना? पाठकों को यह आत्मश्लाघा न लगे तो विनम्रता से उल्लेख करना चाहूंगा कि 1993-98 के बीच मुझ पर कई बार जानलेवा हमले हुए क्योंकि ‘जैन हवाला कांड’ को उजागर करके मैंने देश के ताकतवर लोगों और हिज्बुल मुजाहिद्दीन के आतंकवादियों के विरुद्ध अकेले ही युद्ध छेड़ दिया था। पर प्रभु पा से मैं न तो डरा, न झुका और न बिका।

उस दौर में भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन और मैं देश भर में जनसभाओं को संबोधित करने जाते थे तो अक्सर मुझसे प्रश्न पूछा जाता था, ‘आप इतना खतरनाक युद्ध लड़ रहे हैं, आपको डर नहीं लगता?’ मेरा श्रोताओं को उत्तर होता था, ‘मारे  कृष्ण राखे के, राखे कृष्ण मारे के’, श्री चैतन्य महाप्रभु के इस वचन से मुझे नैतिक बल मिलता था। इसलिए मुझे आश्चर्य होता है कि बड़े-बड़े मंचों से धार्मिंक प्रवचन करने वाले लोग कमांडो और पुलिस के घेरे में रह कर गर्व का अनुभव करते हैं।

माया मोह त्यागने का उपदेश देने वालों की कथनी-करनी में इस भेद के कारण ही देश की आध्यात्मिक चेतना का विकास नहीं हो पा रहा है। कुछ ऐसी ही बात प्रेमानंद महाराज ने मोहन भागवत से कही। पिछले चार दशकों में आम रिवाज हो गया है कि आपराधिक चरित्र के राजनेता, चाहे किसी भी दल के क्यों न हों, सरकार प्रदत्त पुलिस सुरक्षा के घेरे में चलते हैं।

इसका समय-समय पर समाज में विरोध भी हुआ और सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिकाएं भी दायर हुई हैं पर कोई सरकार इस कुरीति को रोकना नहीं चाहती क्योंकि उसे इन आपराधिक छवि के नेताओं का इस्तेमाल अपनी सत्ता बनाने और चलाने में करना होता है। हर दल के बड़े और मशहूर राजनेताओं को सरकार द्वारा सुरक्षा दिए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है क्योंकि उनके जीवन पर हर समय खतरा रहता है पर गुंडे-मवालियों को सुरक्षा मिले या माया-मोह त्यागने का उपदेश देने वाले संतों को यह सुरक्षा मिले तो यह बात गले नहीं उतरती। अलबत्ता, सरकार को जी-हुज़ूरी करने वाले आत्मघोषित संत चाहिए सिद्ध साधक नहीं जो बिना लाग-लपेट के उसे कड़वा सच बताने की सामथ्र्य रखते हों। आपका क्या विचार है?

विनीत नारायण


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