मुद्दा : सिलक्यारा के आगे क्या

Last Updated 07 Dec 2023 01:26:13 PM IST

सिलक्यारा की सुरंग में फंसे 41 श्रमिक तो भारत के पारंपरिक ज्ञान ‘रेट माइनिंग’ की तकनीक और सेना के निर्देशन से बाहर आ गए लेकिन समझना होगा कि यह इंसान द्वारा पैदा की गई एक आपदा का महज निदान था,असलियत तो यह है कि उत्तराखंड के पहाड़ के मिजाज को समझे बगैर वहां खुदाई करना पूरे पहाड़ के अस्तित्व का संकट है।


मुद्दा : सिलक्यारा के आगे क्या

पहाड़ पर चौड़ी  सड़क बनाने का काम शुरू कर दिया गया है, और सलीके से छुपाया जा रहा है कि इतने बड़े प्रोजेक्ट का ‘पर्यावरण प्रभाव आकलन’ हुआ ही नहीं। इस आकलन से बचने के लिए समूची परियोजना को छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ कर दिखा दिया गया।

इससे पहले भी उत्तराखंड में विभिन्न परियोजनाओं में चार बार सुरंगें धंस चुकी हैं। इस बात को क्यों नजरंदाज किया जाता है कि हिमालय जैसे युवा और बढ़ते पहाड़ का भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण किसी सरकारी एजेंसी से ही नहीं करवाया गया। कुछ दशक पहले तक आस्था, विश्वास और संकल्प से बूढ़े भी इस पहाड़ पर कई-कई दिनों का सफर कर पैदल चढ़ कर जाया करते थे और विश्व को भरोसा देते थे कि सनातन का सत्व कायम है। कुछ किलोमीटर मोटर कम चले और और कुछ समय बच जाए, इसके लिए पहाड़ के मूल स्वरूप से गंभीर छेड़छाड़ की परिणति है, इस तरह सुरंग का धंसना।

जान लें कि पहाड़ पर जहां-जहां सर्पीली सड़क पहुंच रही है, पर्यटक का बोझ बढ़ रहा है, पहाड़ों के दरकने-सरकने की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। सरकार के रिकॉर्ड में दर्ज है कि उत्तराखंड जहां अभी कम खुदाई हुई है वहां भूस्खलन बेहद कम हुआ है। उत्तराखंड सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग और  विश्व बैंक ने 2018 में एक अध्ययन करवाया था जिसके अनुसार उत्तराखंड  में 6300 से अधिक स्थान भूस्खलन जोन के रूप में चिन्हित किए गए। रिपोर्ट कहती है कि राज्य में चल रही हजारों करोड़ की विकास परियोजनाएं पहाड़ों को काट कर या जंगल उजाड़ कर ही बन रही हैं, और इसी से भूस्खलन जोन की संख्या में इजाफा हो रहा है।

दुनिया के सबसे युवा और जिंदा पहाड़ कहलाने वाले हिमालय में हरियाली उजाड़ने की कई परियोजनाएं खतरा बनी हुई हैं। नवम्बर, 2019 में राज्य की कैबिनेट से स्वीकृत नियमों के मुताबिक कम से कम दस हेक्टेयर में फैली हरियाली को ही जंगल कहा जाएगा। यही नहीं, वहां न्यूनतम पेड़ों का सघनता घनत्व 60 प्रतिशत से कम न हो और जिसमें 75 प्रतिशत स्थानीय वृक्ष प्रजातियां उगी हों। जाहिर है कि जंगल की परिभाषा  में बदलाव का असल इरादा ऐसे कई इलाकों को जंगल की श्रेणी से हटाना है जो कथित विकास के राह में रोड़े बने हुए हैं।

उत्तराखंड में बन रहीं पक्की सड़कों के लिए 356 किमी. के वन क्षेत्र में कथित रूप से 25 हजार पेड़ काट डाले गए। मामला एनजीटी में भी गया लेकिन तब तक पेड़ काटे जा चुके थे। सड़कों का संजाल पर्यावरणीय लिहाज से संवेदनशील उत्तरकाशी की भागीरथी घाटी से भी गुजर रहा है। उत्तराखंड के चार प्रमुख धामों को जोड़ने वाली सड़क परियोजना में 15 बड़े पुल, 101 छोटे पुल, 3596 पुलिया, 12 बाइपास सड़कें बन रही हैं। ऋषिकेश से कर्णप्रयाग और वहां से जोशीमठ तक रेल मार्ग परियोजना, जो नब्बे फीसद पहाड़ में छेद कर सुरंग से हो कर जाएगी, ने पहाड़ को थर्रा कर रखा दिया है। यहां भी पिछले साल सुरंग धंस चुकी हैं।

जब पहाड़ पर तोड़फोड़ या धमाके होते हैं, जब उसके प्राकृतिक स्वरूप से छेड़छाड़ होती है तो भूकंप के खतरे बढ़ते हैं। पहाड़ उजड़ने के कारणों को बारीकी से देखें तो स्पष्ट हो जाता है कि जलवायु परिवर्तन की मार, अंधाधुंध जल बिजली परियोजनाएं, बेतरतीब सड़क निर्माण के साथ-साथ  इन हालात के लिए स्थानीय लोग भी कम दोषी नहीं हैं। चार धाम के पर्यटन से जीवकोपार्जन करने वालों को जब अधिक पैसा कमाने का चस्का लगा और उन्होंने अपनी जीवन शैली ही बदल डाली तो धीरे-धीरे ये हालात बने।

यहां सड़क का इस्तेमाल सामरिक से अधिक धार्मिंक पर्यटन के लिए है, और इसके पीछे राजनीति भी है। इतने पर्यटक आने से स्थानीय व्यापार बढ़ रहा है, आज कई हजार लोग राज्य की विभिन्न परियोजनाओं में रोजगार पा रहे हैं, सो निश्चित ही स्थानीय लोगों के लिए समृद्धि दिखती है।

इस तरह सुविधापूर्ण सड़कें और चकाचौंध करने वाली जनसुविधाएं संदेश देती हैं कि अमुक सरकार ने हिन्दू तीथरे में काम किया। यह तो कोई जानता नहीं कि इन सुविधाओं को मुहैया कराने  के लिए किस तरह पर्यावरण को नुकसान। जरूरत है कि उत्तराखंड के हर हिस्से के सघन भूगर्भीय आकलन की ताकि जाना जा सके कि खान मजबूत चट्टान हैं और खान चूने के ढहने वाले पहाड़। सिलक्यारा बानगी है कि महज 60 मीटर के दायरे में मिट्टी या पहाड़ का मिजाज क्या है? यह आंकने में देश-विदेश के वैज्ञानिक और इंजीनियर असमर्थ रहे और आज भी अलग-अलग प्रयोग कर मात्र 12 मीटर गहराई का मलवा हटाने की कोशिशों में दो हफ्ते से अधिक का समय लग गया।

पंकज चतुर्वेदी


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