लोक कलाएं : कठिन दौर में रक्षा और प्रोत्साहन

Last Updated 05 Nov 2023 01:44:21 PM IST

लोक कलाओं और कलाकारों की रक्षा का सांस्कृतिक और सामाजिक, दोनों स्तरों पर व्यापक महत्त्व है। गांव-समाज के ताने-बाने के बने रहने में और विभिन्न जातियों तथा समुदायों की आपसी समरसता बने रहने में लोक गीत और नृत्य का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।


लोक कलाएं : कठिन दौर में रक्षा और प्रोत्साहन

उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के लगभग 69000 किमी. क्षेत्र में फैला बुंदेलखंड क्षेत्र लोक गीत, संगीत, नृत्य आदि की दृष्टि से बहुत समृद्ध रहा है पर हाल के समय में लोक कलाकार कई कठिनाइयों से जूझ रहे हैं। बुंदेलखड के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता गोपाल जी बताते हैं कि जब वे अनेक गांवों में लोक कलाकारों को खोजने गए तो प्राय: उन्हें आर्थिक संकट से घिरा हुआ पाया।

रामजीवन भरखरी गांव (जिला हमीरपुर) अपने तंबूरा गायन और नृत्य के लिए विख्यात हैं। उनकी गाई कबीरी को लोग बहुत मग्न होकर सुनते हैं पर आज भी उन्हें दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। उनका जन्म एक बंधक मजदूर परिवार में हुआ और भू-स्वामी ने उनके माता-पिता को मजबूर किया कि बचपन में रामजीवन को स्कूल से हटाकर भू-स्वामी के पशु चराने के काम में लगाएं। इन कठिन परिस्थितियों के बावजूद रामजीवन ने बहुत मेहनत और निष्ठा से लोक गीत-संगीत सीखा और उसमें विशेष कुशलता प्राप्त की। पर इसके बावजूद आज तक निश्चित नहीं हो सका कि इस आधार पर वे अपना संतोषजनक जीवन-निर्वाह कर सकें।

नौरंगी लाल ने इसी जिले के बारबुरखुर्द गांव के एक सफाईकर्मी परिवार में जन्म लिया। तरह-तरह के अपमान के बीच उनका बचपन गुजरा। कुछ तो अपने पिता से सीख कर और कुछ अपनी मेहनत और निष्ठा की मदद से उन्होंने डफला बजाने में विशेष निपुणता प्राप्त कर ली पर इसके बावजूद दैनिक जीवन की आर्थिक कठिनाइयां आज भी उनके सामने मुंह बाएं खड़ी हैं। आनन्द चित्रकूट जिले के एक कुशल लोक-कलाकार हैं जिन्होंने ‘बलमा’ नृत्य में विशेष ख्याति प्राप्त की पर उन पर आर्थिक कठिनाइयां इस हद तक हावी रहीं कि उन्हें न केवल प्रवासी मजदूर के रूप में बाहर जाना पड़ा अपितु कुछ महीने तो बंधुआ मजदूर बनकर भी रहना पड़ा।

इन सभी उदाहरणों में सामान्य बात यह है कि बुंदेलखंड क्षेत्र के निर्धन परिवारों के इन लोक कलाकारों ने विभिन्न बाधाओं के बावजूद कलाकार के रूप में दक्षता तो बहुत प्राप्त कर ली पर वे इससे संतोषजनक आजीविका नहीं प्राप्त कर सके। इस वजह से एक ओर तो उनकी कला का विकास व्यापक संभावनाओं के अनुकूल नहीं हो सका तो दूसरी ओर उन्हें बहुत कष्ट भी सहने पड़े। बुंदेलखंड क्षेत्र के ऐसे अनेक उपेक्षित कलाकारों को उस समय उम्मीद की एक किरण नजर आई जब उन्हें ‘लोक लय’ नाम के लोक कलाओं के बुंदेलखंड स्तर के उत्सवों में आंमत्रित किया गया जहां वे सम्मानजनक परिस्थितियों में अपनी कला का प्रदर्शन कर पाए। अभी तक नौ लोक लय उत्सवों का आयोजन किया जा चुका है। इन लोक कलाओं और कलाकारों की रक्षा के लिए चेतना जागृत करने में लोक लय उत्सवों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

समाज सेवा संस्थान, चित्रकूट द्वारा आयोजित लोक लय उत्सवों के मुख्य प्रेरणा स्रेत बुंदेलखंड के वरिष्ठ समाजसेवी गोपाल जी हैं। सामाजिक न्याय, शिक्षा और जल-संरक्षण जिम्मेदारियों को समर्पित इन समाजसेवी का मन कुछ लोक कलाकारों की करुणाजनक स्थिति से इतना उद्वेलित हुआ कि उन्होंने दूर-दूर के गांवों में घूमकर भूले-बिसरे लोक कलाकारों से संपर्क किया और उन्हें  लोक लय के लिए आमंत्रित किया। इसी तरह अनेक अन्य विद्वानों और कार्यकर्ताओं ने लोक कलाओं और कलाकारों के संबंध में जरूरी जानकारी एकत्र कीं या लोक कलाकारों को उपेक्षा से निकाल कर आगे बढ़ाने की राह दिखाई। उनमें रामचरण हयारण मित्र का उल्लेखनीय योगदान रहा। वर्तमान में डॉ. वीणा श्रीवास्तव, डॉ. अयोध्या प्रसाद कुमुद, डॉ. मधु शुक्ला, लल्लू राम शुक्ला, डॉ. राम भजन, विजय श्रीवास्तव, कृष्ण मोहन सक्सेना और शशि निगम के प्रयास इस संदर्भ में महत्त्वपूर्ण रहे हैं।

लोक लय में अनेक लोक कलाकारों के प्रदर्शन के साथ इन विभिन्न विद्वानों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के इस बारे में मूल्यवान सुझाव मिले कि लोक कलाओं और कलाकारों की स्थिति बेहतर करने के कार्य को कैसे आगे बढ़ाया जाए। यहां एकत्रित विद्वानों ने कहा कि सरकार को एक ओर लोक कलाओं की सहायता के लिए बजट को बढ़ाना चाहिए तो दूसरी ओर यह सुनिश्चित करने का प्रयास भी करना चाहिए कि यह बजट वास्तव में जरूरतमंद वास्तविक लोक कलाकारों तक पंहुच सके जिन्होंने दूर-दूर के गांवों में लोक कलाओं को जीवित रखा हुआ है। लोक कलाओं के नाम पर जो थोड़ा-बहुत सरकार खर्च करती है, उसका लाभ भी गांवों के असली लोक कलाकारों को नहीं मिलता।

लोक कलाकारों से थोड़ा सीख कर उसे शहरी परिवेश में जो चमक-दमक से प्रस्तुत कर देते हैं, वे तव उस सहायता को हड़प लेते हैं जो गांवों के वास्तविक लोक कलाकारों को मिलनी चाहिए। मौजूदा सामाजिक समस्याओं और चुनौतियों के साथ लोक विधाओं को जोड़ना चाहिए और इस संदर्भ में कुछ प्रयासों के अच्छे परिणाम मिल रहे हैं। लल्लूराम शुक्ल बताते हैं कि लोक कलाकारों को हम सभी को विभिन्न उत्सवों में अधिक आंमत्रित करना चाहिए। प्रसिद्ध संगीतकार डॉ. प्रभाकर लक्ष्मण गोहडकरे ने कहा कि लोक संगीत तो शास्त्रीय संगीत की जननी है, और इसकी रक्षा और प्रोत्साहन बहुत जरूरी है। इस तरह लोक विधाओं की रक्षा का बहुत व्यापक महत्त्व है।

राजस्थान में लोक कलाकारों की सहायता और संरक्षण के लिए बेयरफुट कॉलेज के प्रयास जारी हैं। इससे पहले बेयरफुट कॉलेज अनेक लोक कलाकारों को जोड़ने और उन्हें एक मंच पर लाने के लिए अनेक लोक उत्सवों का आयोजन कर चुका है। इन लोक कलाकारों में लंगा कलाकार अपनी सारंगी के लिए विख्यात हैं तो मांगण्या खमायचा बजाने के लिए विख्यात हैं। बेयरफुट कॉलेज का एक प्रयास यह है कि जो साज अब कम उपलब्ध हो रहे हैं, उन्हें बनवा कर लागत कीमत पर लोक कलाकारों को उपलब्ध करवाए। इस तरह लुप्त हो रहे साजों को भी बचाया जा सकेगा और लोक कलाकारों की भी मदद हो सकेगी। कोई संस्थान इस खर्च को स्वयं देने के लिए आगे आ जाए तो जरूरतमंद कलाकार को यह निशुल्क भी मिल सकता है। लंगा और मांगण्या लोक कलाकारों का अन्य महत्त्व यह भी है कि वे विभिन्न धर्मो की साझी संस्कृति के प्रतीक हैं।

इन लोक कलाकारों के अतिरिक्त लोक उत्सवों में परंपरागत कठपुतली कलाकारों, नट कलाकारों, कालबेलिया कलाकारों, हेला गायन कलाकारों आदि को राजस्थान के विभिन्न भागों से आमंत्रित किया गया। लोक कलाकारों संबंधी आवश्यक जानकारियों को एकत्र करने का कार्य भी बेयरफुट कॉलेज कर रहा है, जिसे जोधपुर के मनोहर जी लालस का मूल्यवान सहयोग मिल रहा है। पूर्व में राजस्थान में कलाओं के महान विद्वान स्वर्गीय कोमल कोठारी काका से भी इस कार्य में बहुत मार्ग दर्शन मिलता रहा। लोक कलाकारों की रक्षा के लिए व्यापक खमायती कार्यक्रम भी सक्रिय हैं, जिससे अरुणा राय जैसे वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता भी जुड़े हैं।

भारत डोगरा


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