खेल आयोजन : वैश्विक शांति का बने माध्यम
मैक्सिको ओलंपिक 1968 से करीब छह महीने पहले अमेरिका के राष्ट्रपति मार्टनि लूथर किंग जूनियर की हत्या हुई थी। इस घटना ने पूरे विश्व को हिलाकर रख दिया था। नस्ली हिंसा बढ़ गई थीं।
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ऐसे में दो खिलाड़ियों ने सद्भाव और शांति स्थापना की पहल की और उनका यह कदम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। आज जब एक नहीं बल्कि कई देश हिंसा की आग में झुलस रहे हैं और शांति की हर पहल इकहरी और कमजोर मालूम पड़ रही है तो 70 के दशक का ब्लैक पावर सैल्यूट का संदेश फिर से मौजू होने लगा है।
ऐसे मुश्किल दौर में जब ग्लोब पर यूरोप और अरब का बड़ा भूभाग युद्ध के खतरे झेल रहा है तो खेल और उससे जुड़ी सद्भावना का महत्त्व काफी बढ़ जाता है। शांति की पहल के लिहाज से वैश्विक खेल आयोजकों और सहभागी खिलाड़ियों से आज दुनिया को एक बड़ी उम्मीद है। भूले नहीं हैं लोग कि मैक्सिको ओलंपिक के 200 मीटर की दौड़ में सोना जीतने वाले टॉमी स्मिथ और कांस्य पदक विजेता जॉन कार्लोस अपने पदक लेने पोडियम पर पहुंचे तो उनके पांव में जूते नहीं थे। स्मिथ ने गले में काला दुपट्टा लपेट रखा था। जैसे ही अमेरिकी राष्ट्रगान बजा तो दोनों ने अपने सिर झुका लिए और दस्ताने वाली मुट्ठियां हवा में भींच ली।
उनका जूता नहीं पहनना और पैरों के काले मोजे जहां उनकी मुफिलसी दिखा रहे थे वहीं उनकी मुट्ठियां अफ्रीकी-अमेरिकी एकता का संदेश दे रही थीं। स्मिथ और कार्लोस की ब्लैक पावर सैल्यूट ने नागरिक अधिकार आंदोलन में एक नई ऊर्जा भर दी। दरअसल, अपने लंबे इतिहास में खेल ने कई बार बताया है कि यह सिर्फ शारीरिक और मानसिक ताकत दिखाने का अवसर भर नहीं, बल्कि यह विश्व को एक सूत्र में बांधने का अचूक मंत्र भी है। एशियाई खेलों में इस बार भारत ने इतिहास का श्रेष्ठ प्रदशर्न किया। उसने पहली बार 107 पदक जीते और अपनी पदकों की संख्या को तिहरे अंक तक पहुंचाया। कई ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले खिलाड़ियों ने उम्मीद से बेहतर खेल दिखाए, तो कई गुमनाम एथलीटों को पहचान मिल गई। सवाल है कि क्या वो समय फिर से आ चला है जब खेलों को व्यक्तित्व निखारने, बेहतर रणनीतिकार बनाने और तंदरूस्त रखने की परिधि से बाहर करें।
इसके व्यावसायिक क्षमता को समझते के साथ इसमें सामाजिक बदलाव लाने की ताकत को भी पहचाने। हम सभी इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि सामाजिक बदलाव के आंदोलन की सफलता जनता की भावनाओं के चरम पर पहुंचने पर निर्भर है। और, खेल तो पूरी तरह भावनाओं के ज्वार पर ही चलता है। भारत हो या दुनिया का कोई और देश, क्लब स्तर के मैचों तक में दोनों पक्षों की भावनाएं जीत का आधार बनाती हैं। ऐसे में खेलों को छोटे से वैश्विक स्तर तक सामाजिक बदलाव का वाहक बनाया जा सकता है। एशियाई खेलों में भारत की सफलता की बात करें तो इस बार कई ऐसे राज्यों के खिलाड़ियों ने पदक जीते हैं, जहां खेलों की स्थिति बहुत बेहतर नहीं रही है। जहां लड़कियों को खेलों में हिस्सेदारी से रोका जाता था। जिन प्रदेशों को कुछ वर्ष पहले तक अपराध और गरीबी के लिए जाना जाता था; मसलन, उत्तर प्रदेश, झारखंड और पश्चिम बंगाल। एशियाई खेलों में इस बार उत्तर प्रदेश ने ओवरऑल 21 पदक जीते और राज्यों की रैंकिंग में चौथे स्थान पर रहा। वहीं, व्यक्तिगत पदक के मामले में सात मेडल के साथ दूसरे स्थान पर पहुंचा। झारखंड, उत्तराखंड, पश्चिम बंगाल और राजस्थान जैसे राज्यों ने भी प्रगति की है। यह खेलों के माध्यम से समाज में हो रहे बदलाव का ही सुफल है।
पारूल चौधरी का पांच हजार मीटर का दौड़ याद कीजिए। उन्होंने महज 30 सेकेंड में बाजी पलटी और सोने का तमगा हासिल किया। जब उनसे पूछा गया कि अंतिम क्षणों में जीत के लिए आपकी प्रेरणा क्या थी, तो उन्होंने जो जवाब दिया वह सामाजिक उत्थान में खेलों की भूमिका को दर्शाता है। पारूल ने कहा कि मुझे लगा कि अगर मैं दूसरे नंबर पर रहती हूं तो सब इंस्पेक्टर ही बन पाऊंगी, पर अगर पहले स्थान पर आ जाती हूं तो सीधे डीएसपी बनने का ख्वाब पूरा होगा। इस खिलाड़ी ने उन अंतिम क्षणों में अपना सबकुछ झोंक दिया और मंजिल पा ली। यह कहानी किसी एक पारूल की नहीं है। कई खिलाड़ियों ने अपने सशक्तिकरण के लिए खेल को माध्यम बनाया। कई खिलाड़ियों ने समाज को बदलने के लिए खेल को माध्यम बनाया। आज रूस और यूक्रेन, इस्रइल और हमास युद्ध की आग में जल रहे हैं, ओलंपिक के साथ खेल की अन्य वैश्विक खेल आयोजनों को वैश्विक शांति का माध्यम बनाने की जरूरत है। स्मिथ और कार्लोस की तरह ही किसी यूक्रेनी और रूसी खिलाड़ी को शांति की पहल करने की आवश्यकता है। वैश्विक खेलों का आयोजन करने वाली संस्थाओं को भी व्यावसायिक महत्त्वकांक्षा से आगे बढ़कर अपने मूल लक्ष्य की ओर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है।
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