विमर्श : चूंकि मामला राजद्रोह का है

Last Updated 17 Sep 2023 01:41:44 PM IST

राजद्रोह (प्रस्तावित देशद्रोह) कानून सर्वोच्च न्यायालय के एक ठोस कदम से एक बार फिर विचार का मुद्दा बन गया है। इसलिए कि इस मामले को संविधान पीठ को सौंपने का निर्णय किया गया है।


विमर्श : चूंकि मामला राजद्रोह का है

12 सितम्बर को न्यायालय ने ऐसा करने से पहले नए विधेयक, जो लोक सभा में पेश होकर संसदीय समिति के समक्ष विचाराधीन है, के कानून बनने तक प्रतीक्षा की केंद्र की सलाह यह कहते हुए ठुकरा दी कि अगर कानून बन भी गया तो इसके आधार पर राजद्रोह के पुराने मामले की समीक्षा नहीं की जा सकती। केदारनाथ सिंह बनाम बिहार सरकार (1962) मामले में पांच सदस्यीय संविधान पीठ का फैसला केवल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले अनुच्छेद 19(1)(ए) के नजरिए से दिया गया था, उसमें अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) का ध्यान नहीं रखा था जबकि यह जरूरी था। केदारनाथ सिंह वाले फैसले में तब संविधान पीठ ने कहा था कि हर नागरिक को सरकार की नीतियों या कामकाज पर टिप्पणी या आलोचना करने का हक है, लेकिन इसका एक दायरा है और इसमें उसकी आलोचना या टिप्पणी राजद्रोह नहीं है। अगर कोई व्यक्ति ऐसा वक्तव्य देता है या लिखता है, जिससे हिंसा भड़क उठने और विधि व्यवस्था बिगाड़ने का खतरा हो, तो फिर उसका यह काम राजद्रोह के दायरे में आएगा। तब से राजद्रोह के मामले पर विचार का यह निर्णायक बिंदु बना हुआ है।

अगर राजद्रोह के अभियोग में निरुद्ध किए गए कुछ मामलों को देखें तो सर्वोच्च न्यायालय की चिंता जायज लगती है। हाल के वर्षो में, जिस तरह से पत्रकारों, कार्यकर्ताओं, छात्रों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, प्रमुख बुद्धिजीवियों और यहां तक कि एक लोक संगीतकार के खिलाफ 124 ए के तहत प्राथमिकी दर्ज की गई, उससे राजद्रोह कानून सार्वजनिक विमर्श के केंद्र में आ गया है। जैसा कि अम्बेडकर युनिर्वसटिी की प्रो.अनुष्का सिंह लिखती हैं-‘2011 और 2016 के बीच तमिलनाडु के कुडनकुलम में परमाणु विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ राजद्रोह के बड़े पैमाने पर मामले, 2015 और 2016 में हरियाणा में जाटों, गुजरात में पाटीदारों जैसे आरक्षण समर्थक आंदोलनकारियों के खिलाफ, 2019 में खूंटी (झारखंड) में पत्थलगड़ी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ, 2020 और 2021 में दिल्ली, असम और भारत के अन्य हिस्सों में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम विरोधी प्रदर्शनकारियों के खिलाफ मामले ऐसे उदाहरण हैं, जो कानून के उपयोग के जरिए पुलिस द्वारा किए गए सियासी काम को दर्शाते हैं।’ राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी इसमें तेजी से वृद्धि को रेखांकित करते हैं। इसके मुताबिक राजद्रोह कानून के तहत 2021 में 86 लोगों की गिरफ्तारी हुई थी। वहीं, 2019 में 93 मामले दर्ज किए गए थे, यह 2016 में दर्ज 33 मामलों से 165 फीसद अधिक है। इसके अलावा, इस अभियोग में सजा की दर 2016 में जहां 33.3 फीसद थी, जो 2019 में घटकर 3.3 फीसद रह गई थी।

ऊपर जो मैंने मामले गिनाए हैं, उनके कालखंड समवेत रूप से कांग्रेस या उसकी अगुवाई में बनी सरकार और भारतीय जनता पार्टी या उसके नेतृत्व का है। मतलब यह कि सरकार किसी की भी रही हो पर राजद्रोह के बहुधा मामलों में उसका रवैया सत्तावादी ही रहा है-‘को बड़ छोट कहत अपराधू’। इसलिए वे दोनों ही इस मामले में एक दूसरे को उपदेश नहीं दे सकती हैं। बाकी अवसर के हिसाब से एक दूसरे पर लानत-मलामत भले कर लें। सर्वोच्च न्यायालय में 2021 में दायर 10 याचिकाओं में राजद्रोह के अभियोगों को विभिन्न धाराओं के तहत कड़ी चुनौती देने के साथ लोकतांत्रिक देश भारत में इसके क्रियान्वयन और प्रासंगिकता को लेकर सवाल उठाए गए हैं। इन्हीं याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने मई, 2022 में सरकार से पूछा था कि राजद्रोह कानून को अभी तक खत्म क्यों नहीं किया गया? क्या देश की आजादी के 75 साल बाद भी इसे बनाए रखना जरूरी है? अदालत ने 11 मई, 2022 को अपने अंतरिम आदेश में केंद्र और राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि इस पर अंतिम रूप से विचार होने तक 124ए के तहत कोई नया मामला दर्ज न किया जाए और न इसमें कोई आगे किसी भी तरह की कार्रवाई हो।

1837 में मैकाले के बनाए गए इंडियन पीनल कोड के 126ए को महात्मा गांधी ने ‘नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए राजनीति प्रयोजन साधने के निमित्त बनाई गई धाराओं का राजकुमार’ कहा था, के शिकार होने वाले नेताओं में बाल गंगाधर तिलक के बाद गांधी दूसरे नेता थे। इन दोनों पर ही क्रमश: ‘केसरी’ और ‘यंग इंडिया’ में लिखे लेखों के चलते ब्रिटिश सत्ता से द्रोह का अभियोग लगा था। पहला मामला ‘बंगोबासी’ के मालिक, संपादक, प्रबंधक और प्रिंटर के खिलाफ 1891 में ब्रिटिश सरकार के एज ऑफ कंसेंट एक्ट की आलोचना करने वाले लेख को प्रकाशित करने पर लगाया गया था। आजाद भारत में राजद्रोह कानून जारी रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि जवाहरलाल नेहरू, जो गुलाम भारत में इस मुकदमे से प्रताड़ित होने वाले तीसरे नेता थे, के समय में मार्क्‍सवादी रमेश थापर (बनाम मद्रास स्टेट) के विरुद्ध मामला चला। उन्होंने प्रधानमंत्री की विदेश नीति की आलोचना कर दी थी।

इसी अवधि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आधिकारिक प्रकाशन, ऑर्गनाइजर के मुद्रक और प्रकाशक बृजभूषण और संपादक के.आर. मलकानी से प्रकाशन के पूर्व सारी सामग्री दिल्ली के कमिश्नर को दिखाने का आदेश दिया गया था। इन दोनों मामलों को निरस्त करते हुए अदालत ने कहा कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी है और प्रेस उसका आधार है।  मौजूदा विधि आयोग के अध्यक्ष अवकाशप्राप्त न्यायमूर्ति  रितु राज अवस्थी ने सरकार को सौंपी अपनी रिपोर्ट में कहा, ‘राजद्रोह कानून की औपनिवेशिक विरासत इसे निरस्त करने का वैध आधार नहीं है और अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी सहित कई देशों के पास अपने स्वयं के ऐसे कानून हैं। कश्मीर से केरल और पंजाब से लेकर उत्तर-पूर्व तक की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि जिसमें भारत की एकता और अखंडता की रक्षा के लिए राजद्रोह पर कानून आवश्यक है’। अलबत्ता, उन्होंने सजाओं के प्रावधान के अंतराल को कम करने की बात की। हालांकि आयोग ने भी सरकार से असहमति या असंतोष को राजद्रोह का मसला नहीं माना है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि राजद्रोह कानून ब्रिटिश राजशाही के तहत राजनीतिक मकसद साधने के लिए लाया एक क्रूर विधि-उत्पाद है। यह अपनी स्थापना के समय से ही, असहमति को दबाने वाला राजनीतिक प्रकृति का कानून रहा है। मुझे उम्मीद है कि राजद्रोह कानून, जिसका प्रारूप संसदीय समिति के समक्ष विचाराधीन है, उस पर सर्वसहमति से ऐसी राय कोई निकलेगी, जो स्वतंत्र भारत को परिभाषित करने वाला सर्वोच्च न्यायालय की भावना और सरोकार से जुड़ी होगी। वह न्याय की इस बुनियादी अवधारणा के साथ लागू होगी, जिसमें दोषी छूट न पाए और कोई निर्दोष सजा न पाए। मेरा कहना है कि बिल्कुल ठोस सबूत के आग्रह पर अलगाववादियों, उग्रवादियों एवं आतंकवादियों के लिए इसे सुरक्षित रखा जाए ताकि दोष सिद्धि की कम दर पर किसी प्रतिष्ठान को मुंह छिपाने की नौबत न आए। पर केवल किसी भी पार्टी की सरकार को बदलने की लामबंदी या उसके विरु द्ध शांतिपूर्ण प्रदर्शनों को राज्य का तख्ता पलट का द्रोह कतई न माना जाए।

डॉ. विजय राय


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