विश्वकर्मा योजना : हाशिये के लोगों की सुध

Last Updated 16 Sep 2023 01:08:34 PM IST

कभी यह भी सोचा जाना चाहिए कि देश के आजाद होने के इतने दशक गुजरने के बाद भी हमने मोची, धोबी, बढ़ई, लोहार, कुम्हार जैसे निचले स्तर पर काम करने वालें कुशल कामगारों के हितों को लेकर कोई व्यापक नीति क्यों नहीं बनाई?




विश्वकर्मा योजना : हाशिये के लोगों की सुध

अगर इनके बारे में पहले सोचा जाता तो ये भी देश के विकास का लाभ ले रहे होते। इनकी अनदेखी तो हुई। हां, इतना सुकून किया जा सकता है कि अब इनके बारे में सोचा जा रहा है। अब सरकार इनकी जिंदगी में खुशियां लाने के लिए ‘विश्वकर्मा योजना’ (Vishvakarma Scheme) लेकर आ रही है। इस योजना के ऊपर अगले पांच साल में 13 हजार करोड़ रुपए खर्च होंगे।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) के आगामी 17 सितम्बर को जन्म दिन पर शुरू होने वाली इस योजना के तहत मोची, धोबी, बढ़ई, लोहार कुम्हार आदि को पांच प्रतिशत की दर से एक लाख रु पए और दूसरे चरण में दो लाख रुपए का कर्ज मिल सकेगा। शिल्पकारों और कामगारों को तकनीकी प्रशिक्षण भी दिया जाएगा। ट्रेनिंग लेने वालों को हर दिन 500 रुपए का मानदेय देने की व्यवस्था हो रही है। सच में अफसोस होता है कि हमारे नीति निर्धारक इतने संवेदनशील भी नहीं रहे जिससे कि समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों के लिए कल्याणकरी योजनाएं  बन पातीं। क्या ये हमारे देश-समाज में शामिल नहीं हैं? हमने इनकी इतनी बेकर्दी क्यों की? क्या ये वोट बैंक का हिस्सा नहीं थे?

राजकपूर (Rajkapoor) की 1954 में रिलीज हुई  फिल्म ‘बूट पालिश’ के पात्र भोला जैसे बच्चे देश के तमाम शहरों के बाजारों में आराम से देखने को मिलते हैं। ‘बूट पालिश’ फिल्म के विपरीत असली जिंदगी में भोला जैसे किसी बच्चे के साथ उसकी बहन बेलू या कोई और लड़की नहीं होती। ये जगह-जगह अपने एक लकड़ी के बने डिब्बे के साथ बैठे होते हैं। उसमें अलग-अलग रंगों की पालिश, ब्रश और कपड़े होते हैं। कुछेक के पास मोची का सामान भी होता है। ये इन्हीं से अपने ग्राहकों के जूते-सैंडिल वगैरह चमकाते और बनाते हैं। ये 15 साल से 55 साल तक मिलेंगे। कई-कई तो बूट पालिश का काम करते हुए ही अधेड़ हो गए हैं। ये जब काम करने लगते हैं तो ये बच्चे होते हैं। घर की कमजोर माली हालत के चलते पढ़ नहीं पाते और फिर करने लगते हैं ‘बूट पालिश’ और मोची का काम। इनकी कभी कोई मदद नहीं करता। कुछ दिन पहले राजधानी में संपन्न हुए जी-20 शिखर सम्मेलन में भाग लेने के लिए ब्राजील के राष्ट्रपति लूला भी पधारे थे। वे भी एक मोची परिवार से हैं। उन्होंने भी बचपन में बूट पालिश की। आज वे विश्व के असरदार नेता के रूप में पहचाने जाते हैं। कहने का मतलब ये है कि अगर हमने अपने समाज के हाशिये पर धकेले गए लोगों को पर्याप्त अवसर दिए होते तो वे भी देश की मुख्यधारा का हिस्सा होते। खैर, अब उन्हें अवसर मिलेंगे तो वे आगे बढ़ेंगे। ‘विकर्मा योजना’ के बहाने कुतुब मीनार की चर्चा करना समीचिन होगा। कुतुब मीनार के निर्माण में विकर्मा जी का भी आशीर्वाद रहा है। यह तथ्य इतिहास के पन्नों में दर्ज है। हुआ यह कि सन 1369 में बिजली गिरने के कारण कुतुब मीनार की ऊपरी मंजिल के कुछ हिस्से भी क्षतिग्रस्त हो गए थे।

तब दिल्ली की गद्दी पर फिरोजशाह तुगलक का राज था। उन्होंने कुतुब मीनार के क्षतिग्रस्त भागों की मरम्मत के आदेश दिए। उनके आदेश के बाद कुतुब मीनार की पांचवीं मंजिल नए सिरे से बनाई गई। उसमें संगमरमर का भी भरपूर इस्तेमाल भी किया गया। इतिहासकार डॉ. स्वपना लिड्डल कहती हैं कि ‘कुतुब मीनार के मरम्मत के काम को अंजाम देने वाले आर्किटेक्ट, ठेकेदारों और मजदूरों ने निर्माण स्थल पर अपने नाम जैसे नाना, साल्हा, लोला लक्षमना भी लिख दिए।’ उन्होंने यह भी लिख दिया कि ‘ उनका सारा काम विकर्मा के आशीर्वाद से संपन्न हुआ।’ यह सब अब भी लिखा हुआ है। एएसआई की एक रिपोर्ट में संस्कृत में उत्कीर्ण ठेकेदारों तथा मजदूरों के उदगार लिखे मिलते हैं। बेशक, विकर्मा योजना उन लाखों-करोड़ों लोगों की जिंदगी में ना केवल सकारात्मक बदलावों का वाहक बनेगी बल्कि विकसित भारत का मार्ग भी प्रशस्त करेगी। भारत की जीडीपी में असंगठित क्षेत्र का योगदान लगभग 50 फीसद है। देश के श्रमबल का 90 फीसद असंगठित क्षेत्र में काम करता है। पारंपरिक पेशे से जुड़े कारीगरों का हमारे समाज में खासा महत्त्व है। हमारे यहां ऐसे कारीगर बहुतायत हैं, जो अपने हाथ के कौशल से देशी औजारों का उपयोग करते हुए जीवन बसर करते हैं।

हमने कोरोना काल में इन्हें भी धक्के खाते देखा था। तब ये सैकड़ों-हजारों किलोमीटर का सड़क मार्ग से पैदल चलकर अपने गांव पहुंचे थे। उस कठिन यात्रा में कई मजदूरों की मौत भी हो गई थी। इन्हें सरकार से हर तरह की मदद की जरूरत है। अगर इन्हें कुछ लोन मिलने लगे तो ये अपने काम को चमका सकेंगे। आजादी के बाद देश के पारंपरिक पेशे से जुड़े कारीगरों को सरकार से जिस मदद की आवश्यकता थी, वो उन्हें नहीं मिल पाई। यही वजह रही कि कइयों को अपना पुश्तैनी और पारंपरिक व्यवसाय छोड़ने को मजबूर होना पड़ा। पर इस योजना को पूरी ईमानदारी से लागू करना होगा, ताकि इसका लाभ उन्हें मिले जो सच में पात्र हैं। याद नहीं आता कि पहले कभी कौशल जीवियों के हित में इतनी वृहद योजना शुरू की गई हो। हमने कोरोना काल में देखा था जब लकड़ी का काम करने वाले कारपेंटर, प्लंबर, नाई आदि भी दाने-दाने को मोहताज हो गए थे। इनका लगभग दसेक महीने तक कामकाज बिल्कुल बंद रहा।

देश में प्लंबिंग के काम पर ओडिशा के प्लंबरों का लगभग एकछत्र राज है। इनकी वही स्थिति है जो अस्पतालों में केरल की नसरे की होती है। ये सुबह ही अपने औजारों का बैग लेकर खास चौराहों या हार्ड वेयर की दुकानों पर मिल जाते हैं। वहां से ही इन्हें लोग अपने घरों-दफ्तरों में ले जाते हैं या फिर इन्हें बुला लेते हैं। अपने काम में उस्ताद ये ओड़िया प्लंबर एक बार जो अपने काम का जो दाम मांग लेते हैं, फिर उससे पीछे नहीं हटते। ये रोज का कम-से-कम करीब एक-दो हजार रु पए तक पैदा कर ही लेते हैं। इन सब पेशों से जुड़े लोगों के लिए ‘विकर्मा योजना’ वरदान साबित हो सकती है। इन्हें आसान शतरे पर लोन भी मिल सकेगा। कौशलजीवियों का सम्मान व उनकी कार्य कुशलता को बढ़ाना ही जहां उनका सम्मान है वहीं यह भगवान विकर्मा की भी वास्तविक पूजा है।

डॉ. आर.के. सिन्हा


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment