अपराध-कानून : जरूरी हैं ऐसे बदलाव

Last Updated 24 Aug 2023 01:38:14 PM IST

भारतीय दंड विधान (IPC), दंड प्रक्रिया संहिता (CRPC) एवं साक्ष्य अधिनियम में परिवर्तन का प्रस्ताव स्वागतयोग्य कदम है। अंग्रेजों ने 1861 में जो आईपीसी लागू किया था, 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को दबाने और कुचलने के लिए बनाया गया था।


अपराध-कानून : जरूरी हैं ऐसे बदलाव

इसी तरह ब्रिटिश सरकार की मनमानी चलाने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम में मनमाने नियम रखे गए थे। आजाद देश की लोकतांत्रिक जरूरतों के लिए इनमें परिवर्तन जरूरी है। भारतीय दंड विधान में अपराधी के सुधार और पीड़ित की समस्या पर कोई ध्यान नहीं दिया गया था। अगर किसी कमाने वाले व्यक्ति की हत्या हो जाए तो उसका पूरा परिवार सड़क पर आ जाता है पर उसकी क्षतिपूर्ति का कोई प्रावधान नहीं था। जो गलती से भी हत्या कर दे वह जेल जाता था और परिवार बर्बाद हो जाता था, परंतु कानून में उसके मानसिक इलाज की कोई व्यवस्था नहीं है।

नये प्रकार के आर्थिक अपराधों पर व्यवस्था बहुत खराब थी। लेन-देन के मामलों में करोड़ों रु पये का गबन करने वालों को पुलिस दीवानी मामला बताकर टाल देती है। इसी  र्दुव्‍यवस्था के कारण तमाम लोगों का उद्योग व्यापार चौपट हो गया। ठगी, चोरी और लूट के माल से अगर कोई जमीन खरीद ले तो उसकी जब्ती या बरामदगी का कोई नियम दंड प्रक्रिया संहिता में नहीं था। नगद रु पयों की चोरी हो जाए या गहने लूट लिए जाएं, अगर गहनों को गला दिया जाए तो उस माल की शिनाख्त कैसे होगी, इसका कोई नियम ही सीआरपीसी या साक्ष्य अधिनियम में नहीं था। दूसरों के मकान किराए पर लेकर कब्जा करने की तमाम घटनाएं हुई लेकिन स्पष्ट कानून न होने के कारण लोग दीवानी मुकदमा सालों तक लड़ते रहे और मर गए उनको न्याय नहीं मिल पाया। जब ये कानून बने तो साइबर क्राइम शून्य थे। कंप्यूटर था ही नहीं। ऐसे में नई समस्याओं को मुख्य कानून में शामिल करना जरूरी है।

दूसरों का पैसा हड़प कर अपराधी जेल भले गए लेकिन धन की वापसी का कोई स्पष्ट प्रावधान ही नहीं था। सीआरपीसी में दरोगा को पूरी छूट दी गई थी कि गवाह के जो मनचाहे बयान लिख दे। हस्ताक्षर करने का नियम ही नहीं था। तमाम बेगुनाहों को जेल जाना पड़ा जो अदालत से ही बरी हो सके। उनके 10-20 साल जेल में ही बीत गए, उनकी क्षतिपूर्ति की कोई व्यवस्था ही नहीं रखी गई। इसी तरह झूठे मुकदमों में दो फर्जी गवाह खड़े कर तमाम लोगों को जेल में भेज दिया गया। जेल भेजने के पहले केस डायरी की बात सही है, या नहीं, इसका कोई नियम ही नहीं बनाया गया। मुकदमों की विवेचना में पुलिस के दरोगा को ही सारी शक्ति दे दी गई। चाहे जितना बड़ा मुकदमा हो जिसके कारण अधिकारों का दुरु पयोग और भयादोहन की तमाम घटनाएं घटीं। मौके पर जांच करने का कोई नियम ही नहीं बनाया गया। अगर गवाह झूठी गवाही दे दे तो भी सजा पक्की हो जाती है। सालों साल लोगों के कोर्ट में जाते जूते घिस जाते हैं पर कितने दिन में फैसला करना जरूरी है, इसका कानून नहीं बना। साक्ष्य अधिनियम में सबूतों को रखने की अदालत में कोई व्यवस्था नहीं रखी गई। सालों तक मुकदमे चलते रहे और उनके सबूत पुलिस के मालखानों खानों में रखे-रखे सड़ गए।

10-10 लोगों की हत्या करने वालों को अंतत: सजा मिली ही नहीं और इसका कोई नियम ही नहीं बना था कि अगर 10 लोगों की हत्या हुई है तो किसी को तो सजा मिले। तमाम मामलों में मुलजिम बाइज्जत बरी हो गए लेकिन गलत चार्जशीट लगाने वालों की जिम्मेदारी निर्धारित हुई ही नहीं। तमाम मुकदमों में अंतर्विरोध देखने को मिला कि एक ही सबूत पर जिला अदालत ने सजा दी, हाई कोर्ट ने रिहा कर दिया और सुप्रीम कोर्ट ने फिर सजा दे दी। ऐसी स्थितियों में आम जनता का न्याय से भरोसा कम हुआ। वास्तविक घटना पर सजा देने की बजाय गवाहों के बयान पर सजा देने पर जोर बढ़ता गया। देश में करोड़ों रु पये के गबन और  धोखाधड़ी की घटनाएं होने लगीं परंतु कानून का जोर शारीरिक दंड यानी जेल पर ही बना रहा। तमाम आर्थिक अपराधियों के लिए जेल सबसे सुरक्षित पनाहगाह बन गई। अपराधियों ने बदलते परिवेश के साथ बैंक फ्रॉड, तस्करी, आयात-निर्यात घोटाले जैसे नये-नये अपराध करना शुरू किया परंतु कानून इन नये अपराधों की सजा के लिए अपटूडेट ही नहीं था। इसी कारण तरह-तरह के नये माफिया पैदा हो गए।  

सरकार ने समस्या का हल करने के लिए कई माइनर एक्ट बनाए परंतु आईपीसी और साक्ष्य अधिनियम आउटडेटिड होने का पूरा फायदा अपराधियों को मिला। इसी कारण कई शहरों में किराए के मकान खाली कराने वाले पैदा हो गए, उधार का बकाया दिलाने वाले का प्रभावी कानून न होने के कारण पैसा वसूल करवाने वाले दबंग निकल आए जो कमीशन पर यह काम करने लगे। जब ये कानून लगभग 175 वर्ष पूर्व बनाए गए थे तब आवागमन के साधन बहुत कम थे। गांव में ही हिस्ट्रीशीट खोलकर निगरानी की जाती थी। अब जुर्म करके 3 घंटे में शातिर अपराधी रेल, कार, जहाज द्वारा सैकड़ों किलोमीटर दूर भाग जाते हैं परंतु कानून के पास इतनी दूर से मुलजिम को पकड़ने और लाने की कोई व्यवस्था ही सीआरपीसी में नहीं है। कोर्ट के सम्मन, वारंट तामील करने या मुलजिमों को लाने के लिए उनकी कोई व्यवस्था ही नहीं रखी गई। पुलिस अगर टालमटोल कर जाए या मिली-भगत कर ले तो क्या होगा, इस बात का कोई समाधान कानून में नहीं था। अपराधी कानून ऐसे होने चाहिए कि समाज में अपराध रुकें, अपराधियों का सुधार भी हो और इलाज भी हो और पीड़ितों की रक्षा और सहायता भी हो। विश्व के तमाम देश हैं, जहां कठोर दंड दिया जाता है। वहां जुर्म कम होते हैं।  

आज तक रेप रोकने का कोई प्रभावी कानून नहीं बन पाया जबकि कई देश ऐसे हैं,  जहां रेप बहुत कम होते हैं। ऐसे यौन अपराधियों को चिह्नित कर उनकी यौन इच्छा कम करने की दवाई देकर इलाज करने का कोई नियम ही नहीं बन पाया। इन सब समस्याओं को नये कानून ठीक से समाधान कर पाए तो यही उनकी सफलता होगी। विवाह का वादा करके यौन शोषण करने की समस्या का कोई कानून नहीं था। भारत की प्राचीन प्रथम पंचायत पण्राली जो पीड़ित और अपराधी तथा उनके परिवारों, सबको देकर सजा सुनाती थी, उससे अंग्रेजी कानून ने कोई सीख नहीं ली थी।
(लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं)

सूर्य कुमार शुक्ल


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