मातृ-शिशु मृत्यु दर का आंकड़ा चिंतनीय
भारत आर्थिक प्रगति की राह पर भले तेजी से कदम बढ़ा रहा हो, विकास के नित नये कीर्तिमान बना रहा हो, लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं के रास्ते पर भटकता हुआ ही नजर आ रहा है।
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भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र की जर्जर हालत अरसे से जर्जर बनी हुई है, और तमाम प्रयासों के बावजूद स्थिति में कोई ज्यादा सुधार नहीं हो सका है। हाल में आई एक अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती है कि भारत उन दस देशों में शामिल है, जहां प्रसव या उसके कुछ दिनों के भीतर 60 फीसद माताओं और शिशु की मौत हो जाती है। इस आंकड़े पर गौर करें तो यह किसी अल्पविकसित देश का आंकड़ा प्रतीत होता है। भारत का आंकड़ा कम से कम इतना निराशाजनक तो नहीं होना चाहिए।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या निधि की हालिया संयुक्त रिपोर्ट में यह जानकारी सामने आई है कि यहां 2020 में सात लाख अट्ठासी हजार महिलाओं और शिशुओं की मौत हुई, जबकि पूरे विश्व में यह संख्या पैंतालीस हजार थी। विश्व में कम उम्र में मरने वाले बच्चों में से 17% सिर्फ भारत में हैं। इस सूची में नाइजीरिया, पाकिस्तान या बांग्लादेश और चीन भी हैं। रिपोर्ट के अनुसार प्रसव के दौरान काल का ग्रास बने 45 लाख लोगों में 23 लाख नवजात शिशु हैं। केवल 19 लाख मौतें प्रसव के दौरान उत्पन्न होने वाली स्थितियों से हुई हैं। प्रसव के दौरान मरने वाली महिलाओं की संख्या तीन लाख है। ये आंकड़े 2020-2021 के हैं।
इनमें से ज्यादातर मौतें अफ्रीकी, एशियाई और दक्षिण एशियाई देशों में होती हैं। भारत दक्षिण एशियाई देश है। रिपोर्ट में यह भी बात सामने आई है कि भारत दुनिया के उन पांच देशों में शामिल है, जहां सबसे बड़ी संख्या में समय पूर्व बच्चे पैदा होते हैं। शारीरिक रूप से कमजोर होने के चलते उनकी मौत का ज्यादा खतरा होता है। वर्ष 2020 में ऐसे एक करोड़ तीस लाख बच्चों ने विश्व के विभिन्न देशों में जन्म लिया। इनमें से 45% बच्चों ने भारत-चीन में जन्म लिया। वैसे तो मनुष्य में भ्रूण के पूर्ण विकसित होने की अवधि 9 माह मानी जाती है, लेकिन समय पूर्व इनका पैदा होना और काल के गाल में समाना निश्चित ही चिंतनीय है। विश्व की 60% मौतें भारत सहित 10 देशों में होती हैं।
वैश्विक संस्थाओं सहित भारत के लिए भी यह भारी चिंता का विषय है। भारत जैसे देश में जहां कुपोषण दूर करने के लिए गर्भवती माताओं और बहनों के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, वहां कुपोषण और देख-रेख के अभाव में महिलाओं का दम तोड़ना हृदय विदारक है। देश भर में राष्ट्रीय स्तर की योजना के तहत आशा वर्करों के जरिए महिलाओं को प्रसव- पूर्व या प्रसव के दौरान सुविधा पहुंचाने का जो दावा किया जा रहा है, उसकी तह में जाने की जरूरत है। क्या इन बहुआयामी योजनाओं का लाभ वास्तविक हकदारों तक पहुंच रहा है या नहीं, इसकी सिरे से पड़ताल किया जाना जरूरी है। भारत विकास के पैमाने पर कई सौ कदम आगे निकल चुका है, लेकिन ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाओं में ऐसी भयावह रिपोर्ट उसकी बेदाग छवि पर पैबंद लगाती है। राज्यस्तरीय योजना और निगरानी के साथ पोषण कार्यक्रम के जरिए विभिन्न स्वयंसेवी और स्वास्थ्य संस्थानों को इस अभियान में शामिल कर इसे जन आंदोलन बनाया जाना चाहिए। माताओं में भावनात्मक और शारीरिक विकास के लिए मजबूत आधार तैयार करना होगा तभी देश वास्तव में प्रगति की रहा पर आगे बढ़ेगा।
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