विज्ञापनों में स्वर्ग बेचतीं सरकारें
इन दिनों खबर चैनलों में तरह-तरह के विज्ञापन आते हैं, जिनको दो तीन हिस्सों में बांटा जा सकता है।
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एक है, ‘कंज्यूमर गुड्स’ के विज्ञापन जो शेंपू, जूते, चप्पल, कपड़े, बने घर, घरों के पेंट, ऑनलाइन ‘पे’ करने वाले ‘ऐप’, ‘गेमिंग ऐप’, ओटीटी ‘ऐप’, एसी, कूलर्स, कार, स्मार्टफोन, टीवी सेट, कोल्ड ड्रिंक्स, सरदर्द मिटाने वाले तेल, दूध, दही, मक्खन, पनीर, बिस्कुट, नूडल्स, गेहूं का आटा, दाल, फ्रोजन मीट, मच्छी, पान मसाला, सीमेंट, बिजली के तार, ट्रैक्टर, सोने के जेवर, गोल्ड के बदले कैश देने वाली कंपनियां, एअरलाइंस, डॉक्टर, दवाइयां, प्राइवेट यूनिवर्सिटियां, मीडिया इंस्टीटयूट, फिल्मों के ट्रेलर आदि बेचते रहते हैं। दूसरी तरह के विज्ञापन वे हैं जो ‘जनहित’ के ‘संदेश देते हैं जैसे ‘स्मोकिंग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’, ‘जल ही जीवन है’ आदि।
इसीलिए मानकर चला जाता है कि टीवी मूलत: विज्ञापन का माध्यम है। विज्ञापन ही उसकी इकॉनमी चलाते हैं। कई बार फिल्मों, मनोरंजन के कार्यक्रमों और विज्ञापनों के बीच कोई फर्क नहीं नजर आता। फिल्म कब खत्म हुई, कब विज्ञापन आया, पता ही नहीं चलता। बहुत से लोगों की नजर में खबरें भी एक तरह का विज्ञापन ही होती हैं। अगर हम टीवी की भाषा को ‘डकिंस्ट्रक्ट’ करें तो पाएंगे कि खबरों की भाषा भी विज्ञापन की भाषा जैसी ही होती है। उसकी खबरें व चरचाएं भी किसी न किसी राजनीतिक विचार या राजनीति को बेचती हैं। फर्क इतना है कि ऐसा करते वक्त वे यह कहकर नहीं चलतीं कि यह ‘विज्ञापन’ है। टीवी कितना भी कमर्शियल क्यों न हो गया हो, वह अब भी खबर का और चरचा का संपादन करके उनको ‘शुद्ध विज्ञापन’ नहीं बनने देता। उसका संपादक किसी एक पक्ष की बात नहीं कर सकता। उसे पक्ष-विपक्ष के बीच संतुलन करना ही पड़ता है। इसलिए खबरें या चरचाएं उस तरह का विज्ञापन नहीं हो पातीं जिस तरह के विज्ञापनों की हम बात कर रहे हैं।
बहरहाल, तीसरी तरह के विज्ञापन वे हैं, जिनके जरिए बहुत सी सरकारें अपने बनाए कथित स्वगरे को दुनियाभर में बेचना चाहती हैं, और चैनलों में उनकी भरमार करती रहती हैं। यह अपनी राजनीति का नया चलन है, जो विचारणीय है। उदाहरण के लिए, किसी राज्य में चुनाव के बाद कोई सरकार बनी। फिर उसने कुछ काम किए। इसके बाद वह तुरंत अपने राज्य को ‘स्वर्ग’ की तरह दिखाने को उतावली होने लगती है। इसके लिए वे अपने कामों के विज्ञापन देकर दुनिया को दिखाने लगते हैं। सरकारें पहले भी होती थीं लेकिन वे काम करने में यकीन करती थीं, ‘दिखाने’ में नहीं। अब ‘करने’ से अधिक उसे ‘दिखाना’ जरूरी है। इसीलिए हर सरकार विज्ञापनों में अपना बनाया स्वर्ग दिखाती है।
क्यों?
इसका कारण मीडिया का हमारे सामाजिक जीवन में ‘निर्णायक’ हो उठना है। चाहे ‘इलेक्ट्रॉनिक मीडिया’ हो या ‘सोशल मीडिया’, बिना इनके किसी का काम नहीं चलता। मीडिया का कहना है कि जो ‘दिखता है वो बिकता है’। इसका मतलब हुआ कि ‘जो जितना दिखेगा उतना बिकेगा’ यानी ‘अगर नहीं दिखेगा तो नहीं बिकेगा’। शायद इसीलिए आजकल हर राज्य सरकार मीडिया में अधिक से अधिक ‘दिखना’ चाहती है, और इसी तरह अपनी राजनीति को मीडिया में ‘अधिकाधिक दिखाना’ चाहती है, और इसके लिए अपनी राजनीति को एक ‘ब्रांड’ में बदलने के चक्कर रहती है। अव्वल तो राजनीति खुद ही स्पर्धात्मक क्रिया है, तिस पर मीडिया उसे और स्पर्धात्मक बना देता है। इसी वजह से हर राजनीतिक दल अपनी ‘मारकेटिंग’ करके उसे अधिकाधिक बेचना चाहता है, उसका बड़ा बाजार बनाना चाहता है और दुनिया को ‘खरीदार’ बनाना चाहता है। इस समूची प्रक्रिया में ऐसी ‘राजनीति’ भी एक ‘पण्य’ (चीज) बन जाती है, जिसे खरीदा-बेचा जाना है, जिसका उपभोक्ता बनाना है और जिसका उपभोग कराना है। अगर आप जो काम करते हैं, वह आपकी जनता को ‘तोष’ देता है, तो ‘तोष’ ही विज्ञापन हुआ। तब विज्ञापन की क्या जरूरत? फिर भी विज्ञापन की जरूरत पड़ रही है, और वहां पड़ रही है, जहां आपके ‘वोटर’ नहीं हैं, तब यही कहा जा सकता है कि ऐसे विज्ञापनों से अपनी राजनीति को राज्य से बाहर फैलाना चाहते हैं। ऐसे विज्ञापन बताते हैं कि राज्यस्तरीय पार्टियां भी राष्ट्रीय होने की कामनाएं रखती हैं, और इसीलिए अपनी सीमा के बाहर जाकर अपनी उपलब्धियां गिनाती हैं। इसे राजनीति का ‘उपभोक्तावाद’ भी कहा जा सकता है। इन दिनों हम इसी तरह की ‘उपभोक्तावादी राजनीति’ में रहते हैं।
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