पर्यावरणीय अपराध : देरी से बिगड़ रही बात
हाल ही में गैर-लाभकारी अनुसंधान संगठन ‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट’ ने एक रिपोर्ट में बताया है कि देश में पर्यावरण से जुड़े अपराध चार फीसद की दर से बढ़ रहे हैं।
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हालांकि इन मामलों का निस्तारण बहुत धीमी गति से हो रहा है। अगर यही हाल रहा तो इन मामलों के निपटारे में कई दशक लग जाएंगे।
देश की विभिन्न अदालतों में पर्यावरण से संबंधित अपराधों के 1.36 लाख मामले सुनवाई के लिए लंबित हैं। अदालतों द्वारा रोज 130 मामलों का निपटारा किया जा रहा है, लेकिन बैकलॉग खत्म करने के लिए प्रतिदिन 245 मामलों का निपटारा होना जरूरी है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि इस दौर में जिस गति से पर्यावरणीय अपराध बढ़ रहे हैं, उस गति से इनका निपटारा नहीं हो पा रहा है। आज पर्यावरण का क्षेत्र एक बड़ा आपराधिक क्षेत्र बनता जा रहा है, लेकिन इसे दूसरे अपराधों की तुलना में उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता है। यही कारण है कि पर्यावरणीय अपराधों के निपटारे में लापरवाही बरती जाती है।
‘सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट’ द्वारा जारी यह रिपोर्ट पर्यावरण के क्षेत्र में पनप रहे खोखले आदर्शवाद की तरफ भी इशारा करती है। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारतीय वन अधिनियम, 1927 और वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत दर्ज लगभग 19,000 मामले लंबित हैं और मौजूदा दर से इन मामलों का निपटारा करने में अदालतों को 14 साल 11 महीने लगेंगे। इसी तरह पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत लगभग 2000 मामले लंबित हैं और मौजूदा दर से उनके निपटारे में करीब 38 साल और 9 महीने लगेंगे।
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत लगभग 3,750 मामले लंबित हैं और अगर यही हाल रहा तो उन्हें निपटाने में 12 वर्ष लगेंगे। क्या कारण है कि भाषणों में पर्यावरण पर बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से पर्यावरणीय अपराधों में लिप्त लोग खुले आम घूमते रहते हैं? दरअसल, विश्व स्तर पर कुछ प्रचलित पर्यावरणीय अपराध माने जाते हैं। वन्यजीव अपराध अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में लगातार बढ़ता जा रहा है। अवैध रूप से वृक्षों की कटाई ने दुनिया ने सभी महाद्वीपों को प्रभावित किया है और यह चीन, भारत और वितयनाम जैसे सभी उष्णकटिबंधीय वन क्षेत्रों में व्यापक रूप से हो रही है।
विश्व के कई भागों में अवैध रूप से मछली पकड़ना इसी अपराध की श्रेणी में आता है। पर्यावरणीय अपराधों में प्रदूषण संबंधी अपराधों का भी बड़ा दायरा है। अवैध कचरे की तस्करी तथा क्लोरोफ्लोरोकार्बन, हाइड्रोक्लोरोफ्लोरोकार्बन और अन्य ओजोन-क्षयकारी पदाथरे का अवैध उत्पादन और उपभोग भी इसी श्रेणी में आता है। दरअसल, पर्यावरण के मुद्दों को निपटाने के लिए बहुत से कानून अस्तित्व में हैं, मगर उनका ठीक ढंग से क्रियान्वयन नहीं हो पाता है। अनेक पर्यावरणीय अपराधों को नियंत्रित करने के उद्देश्य से वर्ष 2010 में राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एनजीटी) की स्थापना की गई थी। हालांकि एनजीटी एक अर्ध-न्यायिक निकाय है और इसके पास सीमित शक्तियां हैं। सामान्य अदालतों पर बोझ कम करने के लिए एनजीटी बनाया गया था। इसके पास कानून-प्रवर्तन एजेंसियों के समान अधिकार हैं, लेकिन यह एक सामान्य अदालत की तरह नहीं है।
आज एनजीटी को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए एनजीटी अधिनियम के प्रावधानों की समीक्षा की जरूरत है। आमतौर पर उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायिक सदस्यों के रूप में नियुक्त किए जाते हैं। इसके साथ ही 15 साल के अनुभव वाले भौतिक विज्ञान या जीव विज्ञान में डॉक्टरेट तथा इंजीनियरिंग स्नातकोत्तर व्यक्तियों को भी विशेषज्ञ के रूप में नियुक्त किया जाता है। सवाल यह है विशेषज्ञों को किताबी ज्ञान के अलावा कितना व्यावहारिक ज्ञान होता है ? समस्या यह है कि इस दौर में किताबी ज्ञान वाले पर्यावरण विशेषज्ञों की भीड़ पैदा हो गई है।
इन विशेषज्ञों को पर्यावरण का व्यावहारिक ज्ञान नहीं होता है। आज जरूरत इस बात की है कि प्राधिकरण और अदालतों में व्यावहारिक ज्ञान वाले पर्यावरण विशेषज्ञों और जजों की नियुक्ति भी की जाए। पर्यावरण के संदर्भ में जजों की समझ विकसित करने के लिए निश्चित अंतराल पर कार्यशालाएं भी आयोजित की जा सकती हैं। कमरों से बाहर निकलकर विभिन्न पर्यावरणीय क्षेत्रों में जाकर भी जजों को व्यावहारिक ज्ञान प्रदान किया जा सकता है।
इस प्रक्रिया के माध्यम से जजों में एक नई पर्यावरणीय चेतना पैदा होगी। अभी तक पर्यावरण से जुड़े अपराधों को उतनी गंभीरता से नहीं देखा जाता है, जितनी गंभीरता से अन्य अपराधों को देखा जाता है। पर्यावरण से जुड़े अपराध मुख्यत: प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और प्रदूषण को लेकर ही होते हैं। पर्यावरणीय अपराधों के शीघ्र निस्तारण के लिए सरकार को भी पर्यावरणीय न्यायालयों में और ज्यादा संसाधन बढ़ाने की कोशिश करनी चाहिए।
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