सीबीआई : और ज्यादा मिलें अधिकार
केंद्रीय जांच ब्यूरो (सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टिगेशन-सीबीआई) इस वर्ष एक अप्रैल को अपनी स्थापना के साठ वर्ष पूरे होने पर हीरक जयंती मना रहा है।
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सीबीआई की स्थापना एक अप्रैल, 1963 को भारत सरकार के प्रस्ताव संख्या 3/31/61-टी/एमएचए के जरिए की गई थी और दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट, 1963 से इसे वैधानिक शक्तियां मिली थीं। अपनी स्थापना के बाद से ही सीबीआई चर्चा में रही है। इसने अपने कामकाज से आमजन का विश्वास अर्जित किया है, और अब तक अपने अस्तित्वकाल में इस संगठन को अच्छे-खराब दौर से भी गुजरना पड़ा है।
सीबीआई का केंद्रीय पुलिस एजेंसी के रूप में गठन किया गया था, जिसे सार्वजनिक सेवकों के भ्रष्टाचार, केंद्रीय वित्तीय कानूनों की उल्लंघना, आर्थिक धोखेबाजी और आतंकवादी अपराध समेत गंभीर किस्म के खास तरह के अपराधों की जांच का जिम्मा सौंपा गया था। राज्य सरकारों की सहमति के उपरांत केंद्रीय मंत्रिमंडल में पारित एक प्रस्ताव के जरिए सीबीआई का न्यायाधिकार क्षेत्र विभिन्न राज्यों तक विस्तारित किया गया। लेकिन आज तक सीबीआई को अपनी वैधानिक स्थिति की मजबूती के लिए किसी अखिल भारतीय विधान का संबल नहीं मिल सका है। स्थिति यह है कि यह संस्था भ्रष्टाचार और केंद्र सरकार के कर्मचारियों के खिलाफ कदाचार के अन्य मामलों की जांच के लिए जरूरी वैधानिक प्राधिकार देने वाले वैधानिक संबल से वंचित है।
यही कारण है कि भ्रष्टाचार निरोधक कानून, भारतीय अपराध संहिता और अन्य कानूनों के तहत जांच के लिए आज भी इसे राज्य सरकारों से अनुमति मिलने या न मिलने की स्थिति का सामना करना पड़ता है। कई राज्यों ने तो किसी जांच के अधबीच में ही सीबीआई को दी गई जांच की अपनी सहमति को रोक कर सीबीआई की जांच में अवरोध खड़े कर दिए। आज की तारीख में आठ राज्यों-छत्तीसगढ़, केरल, पश्चिम बंगाल, झारखंड, मेघालय, मिजोरम, पंजाब, राजस्थान और तेलंगाना-अपने यहां सीबीआई को कार्य करने से रोका। इनमें से अधिकांश राज्य विपक्ष शासित हैं। अनेक बार संसद में बिल लाकर चर्चा की जा चुकी हैं ताकि सीबीआई को अखिल भारतीय स्तर पर कामकाज करने में किसी की अनुमति लेने की दरकार न रहे लेकिन ऐसा न हो सका। तमाम कारणों में एक बड़ा कारण यह रहा कि अनेक राज्यों ने इस प्रयास का यह कह कर विरोध किया कि इस प्रकार की कवायद भारत के संघीय ढांचे के विरुद्ध होगी क्योंकि कानून व्यवस्था, जिसमें मामलों की जांच भी शामिल है, राज्यों का विषय है। अभी केंद्र में राजग सरकार शासन में है, और अनेक राज्यों में भी उसकी सरकारें हैं, इसलिए अच्छा समय है कि सीबीआई को अखिल भारतीय स्तर पर अधिकारों से प्राधिकृत किया जाए। यह तथ्य बहुतों को पता नहीं होगा कि 2013 में सीबीआई को गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने अपने एक आदेश में ऐसा संगठन घोषित कर दिया था जिसके पास कोई वैधानिक अनुमोदन नहीं है। बाद में सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश पर स्थगनादेश पारित करके स्थिति को संभाला था। बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट के स्थगनादेश के तहत सीबीआई कामकाज कर रहा है।
अपनी स्थापना के बाद से ही सीबीआई का राजनेताओं के साथ खट्टा-मीठा संबंध रहा है। हमेशा मांग की जाती है कि किसी मामले की सीबीआई जांच कराई जाए लेकिन वही राजनेता जब स्वयं सीबीआई जांच के घेरे में आ जाता है, तो जांच की आलोचना करते हुए अन्य मामलों में सीबीआई जांच की मांग करने लग पड़ता है। बहरहाल, सीबीआई ने अपने पेशेवर कामकाज से लोगों का दिल जीता है। अपनी सक्षमता का अहसास कराया है, और निष्पक्ष जांच के लिए आज देश के नागरिक इस एजेंसी पर विश्वास करते हैं। न केवल नागरिकों, बल्कि सरकार, न्यायपालिका, विधायिका, मीडिया का भी इस एजेंसी में पूरा विश्वास जब-तब झलक पड़ता है। लेकिन राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में इसे निशाने पर लिए जाने की प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है। हमेशा से इसे सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी के टूल के रूप में आलोचना का शिकार बनाया जाता है। आरोप लगाए जाते हैं कि सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी अपने विरोधियों का इस एजेंसी के जरिए उत्पीड़न कर रही है।
ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि सीबीआई सत्ताधारियों या उनके करीबियों के साथ अलग तरह से व्यवहार करती है, और राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में इसका व्यवहार निष्पक्ष नहीं होता। सीबीआई में प्रतिष्ठित पुलिस अधिकारी शामिल होते हैं, और ऐसे कामकाजी मुद्दे हैं, जो इसके स्वतंत्र कामकाज को अवरोधित किए रहते हैं और इस संगठन को इसके लिए पूरी तरह केंद्र सरकार और राज्य सरकारों पर निर्भर रहना पड़ता है। सीबीआई भारत सरकार के कार्मिक एवं प्रशासनिक सुधार मंत्रालय से जुड़ा कार्यालय भर है। इस कारण प्रशासनिक और वित्तीय मामलों में इसे केंद्र सरकार की स्वीकृति की दरकार रहती है। हालांकि यह विशुद्ध जांच एजेंसी है, और अपराध संहिता के प्रावधानों के तहत कार्य करती है, और अदालतों के प्रति जवाबदेह होती है, लेकिन इसके बावजूद मामलों की जांच के समय और जांच की गति को लेकर जब-तब सवालों से घिर जाती है। जांच के समय को लेकर बेशक, इसे घेरा जाता हो लेकिन वैधानिकता या कानूनी प्रक्रिया के तहत इसकी जांच पर उंगली नहीं उठाई जा सकती। लोग कहने लगे हैं कि सीबीआई जांच को तेज या मद्धिम करके राजनीतिक गठजोड़ किए जाते हैं।
सार्वजनिक हित में जरूरी है कि सीबीआई को अखिल भारतीय न्यायाधिकार प्रदान किया जाए। अपने परिचालन में इसे राज्य सरकारों की मंजूरी की दरकार नहीं रहने दी जाए। नेशनल इंवेस्टिगेशन एंड एन्फोर्समेंट डायरेक्टर तक को ऑल इंडिया ज्यूरिडिक्शन प्रदान कर दिया गया है, और उसे राज्य सरकारों की मंजूरी की जरूरत नहीं होती। मामलों की निष्पक्ष जांच के मद्देनजर निष्पक्ष जांच एजेंसी के रूप में सीबीआई की क्षमता का लाभ उठाया जाना चाहिए। केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ लोगों का दायित्व है कि सीबीआई को पेशेवर तरीके से दायित्व निवर्हन में कारगर बनाएं क्योंकि यह सार्वजिनक हित में है कि किसी मामले को निष्पक्ष जांच के बाद उसके तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचाया जाए।
(लेखक सीबीआई के प्रवक्ता (1989-2002) रहे हैं)
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