पूर्वोत्तर चुनाव : लगभग अपेक्षित परिणाम

Last Updated 07 Mar 2023 01:42:33 PM IST

राष्ट्रीय स्तर पर पूर्वोत्तर की घटनाओं या राजनीतिक गतिविधियों की उस रूप में चर्चा नहीं होती जैसी होनी चाहिए। वहां 3 राज्यों के चुनाव परिणाम आए और उनके राजनीतिक महत्त्व भी हैं।


पूर्वोत्तर चुनाव : लगभग अपेक्षित परिणाम

 बावजूद उन पर उस तरह चर्चा नहीं हो रही जैसे दूसरे क्षेत्र के राज्यों के चुनाव परिणामों पर होती है। यह बात सही है कि चुनाव परिणाम में चौंकाने वाला कोई तत्व नहीं था। परिणाम आम अपेक्षाओं के अनुरूप ही था। बावजूद इसका महत्त्व किसी मायने में कम नहीं हो जाता।

तीनों राज्यों त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय के चुनाव परिणामों को एक साथ देखें तो इसके कुछ निहितार्थ बिल्कुल स्पष्ट हैं। एक, भाजपा की सीटें किसी राज्य में थोड़े कम या ज्यादा हो, मत प्रतिशत में थोड़े बहुत अंतर आ जाएं लेकिन अब वह पूर्वोत्तर की प्रमुख स्थापित पार्टी हो गई है। दूसरे, एक समय पूर्वोत्तर पर एकछत्र राज करने वाली कांग्रेस पार्टी की क्षरण प्रक्रिया जारी है। तीसरे, पूर्वोत्तर में तृणमूल के एक प्रमुख पार्टी के रूप में उभरने की उम्मीद भी धराशायी हुई है। चौथे, माकपा के नेतृत्व वाले वाम दलों की पुनर्वापसी की संभावना पहले से ज्यादा कमजोर हुई है। जरा सोचिए, अगर त्रिपुरा में वामदल और कांग्रेस मिलकर भी भाजपा को सत्ता से बाहर करने में सफल नहीं हुए तो इसके मायने क्या हैं? पिछले चुनाव में यद्यपि माकपा नेतृत्व वाला वाममोर्चा सत्ता से बाहर हुआ था लेकिन भाजपा और वाम मोर्चे के मतों में ज्यादा अंतर नहीं था।

इस कारण भाजपा विरोधी और वाममोर्चा के समर्थक यह मान रहे थे कि भले जनता ने सत्ता विरोधी रु झान में माकपा को बाहर कर दिया लेकिन अगले चुनाव में इसकी वापसी हो सकती है। चुनाव परिणामों ने बता दिया कि वाम मोर्चे का उदय अब दूर की कौड़ी है। निश्चित रूप से इस परिणाम के क्षेत्र के साथ-साथ राष्ट्रीय राजनीति के संदर्भ में भी विश्लेषण होगा। आखिर 2024 लोक सभा चुनाव की दृष्टि से भाजपा विरोधी पार्टयिां कई प्रकार के समीकरण बनाने की कवायदें कर रही है तो इस चुनाव का असर उस पर न पड़े ऐसा संभव नहीं। तो कैसे देखा जाए इन चुनाव परिणामों को? यद्यपि तीनों राज्यों के चुनाव महत्त्वपूर्ण थे, देश का सबसे ज्यादा ध्यान त्रिपुरा की ओर था। यह पहला राज्य था जहां भाजपा ने अपने विपरीत विचारधारा वाले वाममोर्चा को पहली बार पराजित किया था।

भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री बिप्लव देव के शासनकाल में स्वयं पार्टी के अंदर असंतोष के स्वर तथा सरकार की कुछ नीतियों के विरुद्ध जनता में भी विरोध देखा गया। भाजपा ने मई 2022 में उनकी जगह माणिक साहा को मुख्यमंत्री बनाया। कहा जा सकता है कि चेहरा बदलने से दोनों स्तरों का असंतोष थोड़ा कम हुआ। भाजपा की सीटें और मत दोनों पिछले चुनाव से घटे हैं लेकिन वह अपनी बदौलत 60 सदस्य विधानसभा में बहुमत पा चुकी है। इंडीजीनस पीपल्स फ्रंट यानी आईपीएस के साथ गठजोड़ कर भाजपा ने चुनाव जीता था। इस बार भी दोनों के बीच गठबंधन था लेकिन आईपीएफ को केवल 5 सीटें भाजपा ने दी थी। इस कारण कुछ स्थानों पर आईपीएफ भाजपा के विरुद्ध भी चुनाव लड़ रहा था। कांग्रेस और वाममोर्चा का गठबंधन नेताओं के स्तर पर हुआ लेकिन जमीन पर दोनों के कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच तालमेल न हो सका।

भाजपा के उभार के पहले राज्य में कांग्रेस और वाममोर्चा के बीच संघर्ष की स्थिति थी। इसमें बची-खुची कांग्रेस के लोगों के लिए स्वीकार करना कठिन था कि वह उसी वाम मोर्चे के उम्मीदवार का साथ दे जिनसे उसकी लंबी लड़ाई रही है। यह इस बात को साबित करता है कि भाजपा विरोध के नाम पर भले पार्टियों का गठबंधन हो जाए, जनता ही नहीं स्वयं उन पार्टियों के कार्यकर्ता और समर्थकों के बीच सहयोग होना आसान नहीं। इसका असर आगामी विधानसभा चुनावों से लेकर 2024 के लोक सभा चुनाव के समीकरणों पर भी पड़ेगा। चुनाव के कुछ समय पूर्व बनी टिपरा मोथा पार्टी ने एक दर्जन सीटें जीतकर भी कुछ संकेत दिया है। शाही परिवार से प्रद्योत विक्रम माणिक्य देबबर्मन ने पार्टी को अलग आदिवासियों के लिए ग्रेटर त्रिपुरालैंड की मांग के साथ सामने लाया था। हालांकि मतदान के पहले कुछ नेताओं के साथ छोड़कर जाने से दुखी होकर उन्होंने घोषणा किया था कि वे अब आगे बढ़ा नीति में नहीं रहेंगे। बावजूद जनता का उन्हें इतना समर्थन मिला। भाजपा ने भी अपने घोषणापत्र में आदिवासियों के लिए ज्यादा स्वायत्तता का वायदा किया था।

 नागालैंड की ओर देखें तो वहां भी भाजपा का प्रदर्शन संतोषजनक रहा। नेशनिलस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी के साथ गठबंधन में वह छोटा साझेदार थी। उसे 20 सीटें ही लड़ने के लिए मिली किंतु केंद्रीय नेतृत्व ने इसके कारण पार्टी की स्थानीय इकाई में विरोध और असंतोष उभरने नहीं दिया। छोटा साझेदार होकर भी उसने एनडीपीएस के साथ मिलकर उसी तन्मयता से चुनाव लड़ा जैसे वह अन्य राज्यों में लड़ रही थी।। नरेन्द्र मोदी, अमित शाह, जेपी नड्डा जैसे सभी नेता वहां चुनाव प्रचार करने गए और पूरा जोर लगाया।

इस तरह नागालैंड में एक मजबूत सरकार की संभावना है जो वहां जारी शांति प्रक्रिया को और सुदृढ़ करेगी। निस्संदेह,  मेघालय का चुनाव परिणाम भाजपा के उम्मीदों के अनुरूप नहीं है। उसे स्वयं बेहतर प्रदर्शन करने की उम्मीद थी। चुनाव के बाद असम के मुख्यमंत्री और पूर्वोत्तर जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक हिमंता  विस्व सरमा का कोनराड संगमा से मुलाकात बताता है कि साथ मिलकर काम करने की बातचीत परिणाम के पहले ही शुरू हो गई थी। तृणमूल कांग्रेस भी यहां अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकी और कांग्रेस को लेकर तो बहुत उम्मीद ही नहीं थी। तृणमूल कांग्रेस ने मुकुल संगमा सहित कांग्रेस के प्रमुख नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर मेघालय की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बनने की उम्मीद की थी।

लगता है मेघालय के मतदाताओं को यह रास नहीं आया। मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने पूर्वोत्तर पर विशेष फोकस किया है। वहां अपनी नीतियों, कार्यक्रमों और संवाद से अलगाववाद, क्षेत्रीय-जातीय विशेषता के भाव को भारतीय राष्ट्र भाव के साथ जोड़ने की लगातार कोशिश की। यातायात और संचार के क्षेत्र में पूर्वोत्तर में सच कहा जाए तो क्रांति हुई है। इन सबका व्यापक असर हुआ है और आज पूर्वोत्तर सोच और व्यवहार की दृष्टि से समग्र रूप से भारत का बदला हुआ क्षेत्र है। इन सबकी प्रतिध्वनि चुनावों में दिखाई पड़ रही है। हालांकि अभी इन सारी दिशाओं में काफी कुछ किया जाना शेष है।

अवधेश कुमार


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