मनरेगा : हंगामा यूं ही नहीं
मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना की बकाया राशि का भुगतान अभी तक न किए जाने के लेकर केंद्र और राज्य सरकारों के बीच एक बार फिर से राजनीति गरमाने लगी है।
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केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति ने राज्य सभा में एक प्रश्न के उत्तर में बताया कि मनरेगा के अंतर्गत 14 राज्यों के लिए 6,157 करोड़ रुपये का भुगतान किया जाना बाकी है। इनमें से 6 राज्य ऐसे हैं, जिनमें भाजपा की सरकार है। सर्वाधिक बकाया (2,700 करोड़ रुपये) पश्चिम बंगाल का है। आंध्र प्रदेश का 836 करोड़ रुपये, कर्नाटक का 638 करोड़, मध्य प्रदेश का 362 करोड़, महाराष्ट्र का 200 करोड़, ओडिशा का 187 करोड़, केरल का 137 करोड़, असम का 112 करोड़ और मेघालय का 102 करोड़ रुपये के बकाया सहित मनरेगा में प्रयुक्त निर्माण सामग्री घटकों की देनदारियों को भी जोड़ दिया जाए तो यह धनराशि 6175 करोड़ रुपये हो जाती है।
राज्य सरकारों का कहना है कि मनरेगा के अंतर्गत राशि न मिलने से ग्रामीणों के लिए आजीविका का प्रश्न बड़ी चुनौती बन गया है। नियमानुसार मजदूर को 15 दिन के भीतर भुगतान होना चाहिए जिसके बाद प्रत्येक दिन की देरी के लिए श्रमिक मुआवजे का हकदार हो जाता है। केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों के आपसी समंजस्य के अभाव के कारण यह कार्यक्रम आर्थिक से ज्यादा राजनीतिक महत्त्व का हो गया है। अपर्याप्त धन, अपर्याप्त वेतन और असामयिक भुगतान आदि को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच होने राजीनीतक विवाद का खमियाजा ग्रामीण मजदूरों को भुगतना पड़ रहा है। मजदूरी भुगतान में देरी से श्रम अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा जिसके चक्रीय दुष्प्रभाव अर्थव्यवस्था पर दिखाई देने लगेंगे।
मजदूरी नहीं मिलने की स्थिति में खाद्य सुरक्षा का संकट गहराने लगेगा तो ग्रामीण क्षेत्र में विशेष रूप से महिलाओं की बेरोजगारी भी बढ़ेगी। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनमी (सीएमआईई) के आंकड़ों के अनुसार, जनवरी, 2022 में ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी दर 5.84 प्रतिशत थी। पीपुल्स रिसर्च ऑन इंडिया’ज कंज्यूमर इकोनमी के नवीनतम सव्रेक्षण के अनुसार गरीब और अमीर परिवारों के बीच आय में असमानता बढ़ रही है। सबसे गरीब 20 प्रतिशत की हिस्सेदारी, जो 1995 में कुल घरेलू आय का 5.9 प्रतिशत थी, 2021 में कम होकर 3.3 प्रतिशत रह गई है। दूसरी ओर इसी अवधि में सबसे अमीर 20 प्रतिशत की हिस्सेदारी 50.2 प्रतिशत से बढ़कर 56.3 प्रतिशत हो गई है। इस संदर्भ में उल्लेखित करना आवश्यक हैं कि मनरेगा कार्यक्रम भारत का ही नहीं, बल्कि विश्व का सबसे बड़ा रोजगार गारंटी कार्यक्रम है। मांग आधारित इस कार्यक्रम का उद्देश्य 100 दिन का रोजगार उपलब्ध करवा कर ग्रामीणों के जीवन की गुणवत्ता को सुधारना है। गरीबी उन्मूलन का पर्याय बन चुका यह कार्यक्रम वित्तीय रूप से कमजोर लोगों को सामाजिक सुरक्षा भी प्रदान करता है।
इस कार्यक्रम से देश के लगभग 15.51 करोड़ लोग जुड़े हुए हैं। मनरेगा ग्रामीण श्रमिकों के लिए एकमात्र ऐसी जीवन रेखा है जो जरूरत और संकट के समय काम और नकदी प्रदान करता है। कोरोना काल जैसी आपातकालीन स्थिति में भी इस कार्यक्रम की उपादेयता साबित हो चुकी है। अनेक रिपोर्ट्स बताती हैं कि कोविड के समय शहरों से गांव की तरफ विपरीत पलायन के समय लगभग 11 करोड़ लोगों को रोजगार दिया गया था। कोरोना से आय में नुकसान की भरपाई में इस कार्यक्रम ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। वर्तमान में सामाजिक संगठनों की आलोचनाओं के कारण भी मनरेगा चर्चा में है। विरोध का प्रमुख कारण यह है कि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले वर्ष की तुलना में 2023-24 के बजट में 21.66 प्रतिशत की कमी करते हुए मनरेगा के लिए 60,000 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं। संशोधित अनुमान से तुलना करने पर यह बढ़कर 30 प्रतिशत हो जाता है। पिछले वर्ष सरकार ने ग्रामीण भारत में काम की बढ़ती आवयश्कता को देखते हुए 25,000 करोड़ रुपये का पूरक बजट जोड़ा था, परंतु इस वर्ष के बजट में सरकार ने कम आवंटन का तर्क देते हुए कहा कि कृषि क्षेत्र में सुधार से मजबूत होती ग्रामीण अर्थव्यवस्था एवं कोरोना खत्म होने से शहरों की तरफ पुन: पलायन होने के कारण पिछले कुछ महीनों में मनरेगा की मांग में आई है। 2022-23 के आर्थिक सव्रेक्षण के अनुसार 24 जनवरी, 2023 तक इस कार्यक्रम के अंतर्गत काम मांगने वालों की संख्या 6.49 करोड़ थी, जिसमें से 6.48 करोड़ लोगों को काम का आफॅर दिया गया। इनमें से 5.7 करोड़ परिवारों ने काम किया।
इसके विपरीत पिछले तीन वर्षो के बजट का विश्लेषण किया जाए तो मनरेगा के बजट में लगातार कमी दिखाई देती है। मनरेगा में वित्त की कमी का प्रभाव श्रम दिवस रोजगार में भी कमी के रूप में देखाई देता है। 100 दिन की गारंटी देने वाले रोजगार की तुलना में 2020-21 में मात्र 52 दिन, 2021-22 में 42 दिन और 2022-23 में 42 दिन का रोजगार ही मिल सका है। श्रम संगठनों का मानना है कि जब देश में बेरोजगारी बढ़ रही है तो मनरेगा में 150 दिन श्रम दिवस रोजगार करने की बजाय सरकार इसे लगातार कम करती जा रही है। देश हित में मनरेगा से संबंधित विवाद के पहलुओं पर केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर कार्य करना चाहिए। इसके कार्यान्वयन की प्रशासनिक और निष्पादन संबंधी तकनीकी गड़बड़ियों पर कार्य करना चाहिए जिससे न सिर्फ भ्रष्टाचार कम होगा, बल्कि कार्यक्रम में पारदर्शिता भी बढ़ेगी।
मनरेगा से भ्रष्टाचार समाप्त करने के लिए सभी राज्यों में स्वतंत्र एवं मजबूत सोशल ऑडिट को नियमित किया जाए। अनियमितता के खिलाफ समय पर सख्त कार्रवाई की जाए। विश्व में आने वाली मंदी का भारत की अर्थव्यवस्था पर अधिक फर्क न पड़े, इसके लिए भी मनरेगा में कार्य कर रहे श्रमिकों की रुकी हुई मजदूरी अविलंब मिलनी चाहिए ताकि मांग कम न होने पाए। ग्रामीण मांग को बढ़ाने के लिए मनरेगा में दी जाने वाली मजदूरी में वृद्धि पर भी विचार किया जाना चाहिए। ग्रामीण नागरिकों को वास्तव में सशक्त बनाने के लिए मनरेगा के साथ न्याय करते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर प्रयास करना होगा। कार्यक्रम की कमियां दूर की जाने पर ही यह कार्यक्रम देश को आत्मनिर्भर और सशक्त बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा।
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