रविदास जयंती पर विशेष : संत परंपरा के सूर्य

Last Updated 06 Feb 2023 01:42:26 PM IST

भारतीय संत परंपरा में अनेक बहूमूल्य संत हुए लेकिन भारतीय क्षितिज पर जिस तरह से संत रविदास चमकते हैं, उस तरह की चमक किसी और में खोजना मुश्किल है। उनके बारे में कई अनूठी बाते हैं।


रविदास जयंती पर विशेष : संत परंपरा के सूर्य

उनके समय की जाति प्रथा की कुरीति को समझने की कोशिश करिए। संत रविदास के समक्ष स्वयं को ब्रह्मज्ञानी कहने वाले झुकते हैं, उस समय का ब्राह्मण समाज उनकी तारीफ करता है, वह भी काशी का ब्राह्मण समाज, तो स्वभाविक रूप से आप मान सकते हैं कि संत रविदास में भक्ति की कितनी धमक और चमक रही होगी। तत्कालीन समाज ने संत रविदास को सहज ही स्वीकार नहीं किया होगा। रैदास जी की भक्ति की पवित्रता, शुद्धता, प्रेम की रसधारा ने सबको बाध्य कर दिया होगा कि उनके समक्ष नतमस्तक हो जाएं।

संत रविदास अपने जमाने में कई महत्त्वपूर्ण बदलाव की बात करते हैं। हम जानते हैं कि भगवान तक पहुंचने के अनेक रास्ते हैं। आप ध्यान से पहुंचिए, भक्ति से पहुंचिए। मीरा नृत्य करते-करते पहुंच जाती हैं, तो शंकर ज्ञान का रास्ता चुनते हैं। संत रविदास की भक्ति का रास्ता कुछ इस तरह से समझ में आता है कि लगता है जैसे यह रास्ता हमारा है। सरल, सुगम और आसानी से चलने वाला रास्ता। उनकी भक्ति सहज और सरल रास्ते से होकर गुजरती है। सोचिए, कोई भक्त रोजमर्रा की जिंदगी के काम करता हुआ दिखाई दे रहा है और ठीक उसी समय प्रभु को पाने के रास्ते पर भी चल पड़ा है। रैदास ऐसा नहीं कहते हैं कि कोई व्यक्ति अपना काम-धाम छोड़कर और भक्ति में लीन हो जाए।

वे अपना काम करते रहते हैं। जूता सिलने का अपना काम करते रहते हैं और भक्ति भी करते रहते हैं। वैसे ही जैसे उनके गुरुभाई कबीर जुलाहे का अपना काम करते हुए अपनी भक्ति जारी रखते हैं। संत रैदास जी का जूता बनाना और भक्ति करते रहना अनेक प्रतीक स्थापित करता है। उनकी इस तस्वीर से साफ जाहिर होता है कि भगवान के लिए किसी भी तरह के आडंबर की जरूरत नहीं है। उसे साधारण ढंग से सहज तरीके से भी पा सकते हैं। उनकी साधना के उदाहरण से यह भी जाहिर है कि हमें साधना के लिए भगवान के लिए अलग से समय की जरूरत नहीं है। तुम जो कर रहे हो, उसी समय तुम पात्र हो ईश्वर को पाने के लिए। उनकी साधना से रास्ता दिखता है कि जो व्यक्ति जूता बनाते समय ईश्वर में लीन है, वह इस कार्य को भी भगवान को समर्पित कर रहा है। जो व्यक्ति कपड़ा बुनता हुआ भी ईश्वर को याद करता है, वह अपना कार्य उत्कृष्ट तो करेगा ही और साथ ही दुनिया की तमाम मोह-माया से भी खुद ही अलग हो जाएगा।

संत रविदास की परपंरा देखें तो उसमें आप को अलग तरह का वैभव दिखाई पड़ता है। वे संत रामानंद जी के शिष्य थे। कबीर और रैदास, दोनों गुरु भाई थे। दोनों संत रामानंद जी के शिष्य थे। संत रैदास और कबीर, दोनों ही कर्मकांड में किसी भी तरह के दिखावे के विरोधी थे। जिस तरह कबीर अपने कर्म में भक्ति को शामिल करते हैं, उसी तरह से रैदास जी भी अपना काम करते हुए प्रभु को याद करते हैं। रामानंद जी ने जिस व्यक्ति को अपना शिष्य स्वीकार किया होगा वह व्यक्ति साधारण नहीं हो सकता। साथ ही, जिस व्यक्ति को ईश्वर प्राप्त हुआ हो, वह कहे कि मेरे गुरु तो संत रैदास हैं, इससे बड़ी परंपरा और क्या हो सकती है। मीरा कहती हैं-गुरु मिलया रैदास जी। संत रैदास मीरा के लिए गुरु काफी महत्त्वपूर्ण इसलिए भी हो जाते हैं कि जिस व्यक्ति को ईश्वर खुद ही उपलब्ध हो, वह किसी को अपना गुरु कहे और यह भी सोचिए कि मीरा कहां राजरानी और गुरु रैदास जी सड़क पर बैठकर जूता सिलने वाले। फिर भी मीरा रैदास को अपना गुरु कहती हैं।

हमारे बुंदेलखंड में कहावत है कि फल से वृक्ष को पहचाना जाता है, पुत्र से पिता को और शिष्य से गुरु को। जिसकी शिष्य मीरा हो सिर्फ इतना वक्तव्य ही संत रविदास जी को अति महत्त्वपूर्ण बना देता है। संत रैदास की भाषा प्रेम की भाषा है, भक्ति की भाषा है। जिस भी पेड़ को प्रेम से सींचा गया हो, जिस पेड़ की जड़ों में भक्ति का रस हो, ऐसे पेड़ में प्रेम की सुगंध आनी ही है। ऐसे वृक्ष की छांव में बैठकर ही कोई समाज हो या देश तरक्की करता है। संत रैदास जी की एक घटना आप सब को पता होगी। लेकिन जिन लोगों को इसकी जानकारी न हो मैं उन्हें बताना चाहता हूं कि इस घटना से जाहिर है कि हम शुद्ध होकर प्रभु में लीन होते हैं, तो हमें कहीं नहीं जाना है। जहां हम हैं, वहीं ईश्वर है।

एक दिन संत रैदास (रविदास) अपनी झोपड़ी में बैठे प्रभु का स्मरण कर रहे थे। तभी एक राहगीर ब्राह्मण उनके पास जूता ठीक कराने आया। रैदास ने पूछा कहां जा रहे हैं, ब्राह्मण बोला, गंगा स्नान करने जा रहा हूं। जूता ठीक करने के बाद ब्राह्मण द्वारा दी गई मुद्रा को रैदास जी ने कहा कि ब्राह्मण को ही लौटाते हुए कहा कि यह मुद्रा मेरी तरफ से मां गंगा को चढ़ा देना। ब्राह्मण गंगा पहुंचा और गंगा स्नान के बाद जैसे ही ब्राह्मण ने कहा-हे गंगे रैदास की मुद्रा स्वीकार करो। तभी गंगा नदी में से हाथ उठा और उस मुद्रा को लेकर बदले में ब्राह्मण को सोने का एक कंगन दे दिया। ब्राह्मण जब गंगा का दिया कंगन लेकर लौट रहा था, तब उसके मन में विचार आया कि रैदास को कैसे पता चलेगा कि गंगा ने बदले में कंगन दिया है, मैं इस कंगन को राजा को दे देता हूं, जिसके बदले मुझे उपहार मिलेंगे। उसने राजा को कंगन दिया, बदले में उपहार लेकर घर चला गया। जब राजा ने वो कंगन रानी को दिया तो रानी प्रसन्न हो गई और बोली मुझे ऐसा ही एक और कंगन दूसरे हाथ के लिए चाहिए। राजा ने ब्राह्मण को बुलाकर कहा कि वैसा ही एक और कंगन चाहिए अन्यथा राज दंड का पात्र बनना पड़ेगा।

ब्राह्मण परेशान हो गया कि दूसरा कंगन कहां से लाए? डरा हुआ ब्राह्मण संत रविदास के पास पहुंचा और सारी बात बताई। रैदास जी बोले कि तुमने मुझे बिना बताए राजा को कंगन भेंट कर दिया। इससे परेशान न हो। तुम्हारे प्राण बचाने के लिए मैं गंगा से दूसरे कंगन के लिए प्रार्थना करता हूं। ऐसा कहते ही रैदास जी ने अपनी कठौती उठाई जिसमें वो चमड़ा गलाते थे, उसमें पानी भरा था। रैदास जी ने मां गंगा का आह्वान कर अपनी कठौती से जल छिड़का। जल छिड़कते ही कठौती में वैसा ही एक और कंगन प्रकट हो गया। रैदास जी ने वो कंगन ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण खुश होकर राजा को वह कंगन भेंट करने चला गया। तभी से कहावत प्रचलित हुई-‘मन चंगा, तो कठौती में गंगा’।
(लेखक केंद्र में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग राज्य मंत्री हैं)

प्रह्लाद सिंह पटेल


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