समान नागरिक संहिता : भारतीय परिवेश में है जरूरी

Last Updated 07 Feb 2023 01:25:25 PM IST

भारत में हिंदू स्त्रियों की स्थिति 200 वर्ष पहले दयनीय थी। पंडिता रमाबाई ने कहा था भारत तब तक तरक्की नहीं कर सकता और संसार के देशों में कोई स्थान नहीं बना सकता जब तक कि हिंदू घरों में हिंदू स्त्रियां जो मां भी है, की स्थितियां नहीं सुधरती।


समान नागरिक संहिता : भारतीय परिवेश में है जरूरी

बच्चियों को बालपन में शादी कर उपेक्षा के अंधकार में ढकेल दिया जाता है।

इसके साथ ही अपने मातृ कर्तव्यों के बारे में अनजान, खासकर सामान्य पोषण संबंधी नियमों से अनजान और ज्यादा निम्नस्तर को प्राप्त होती हैं। यह याद रखना होगा कि वह भी एक लड़की है तथा बच्चे को जन्म देकर मां बनती है। 14-15 की उम्र में उससे यह आशा नहीं की जा सकती कि वह अपने बच्चों का सही ढंग से पालन कर सकेगी। हम देख रहे हैं कि हिंदू रीति-रिवाजों एवं कानून में निरंतर सुधार हुआ है। सती प्रथा, बाल विवाह का विरोध हुआ है। कानून में भी आवश्यक बदलाव कर लड़कियों को जकड़नों, बंधनों से मुक्त किया गया है। आज उनके विवाह की उम्र क्रमश: बढ़ाकर 18-21 वर्ष की गई है, मुफ्त शिक्षा का उपहार दिया गया है।

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में  बदलाव लाया गया और लड़कियों की उम्र बढ़ाकर 18 वर्ष लड़कों के विवाह उम्र 21 वर्ष की गई और भी बहुत से बदलाव विवाह एवं तलाक के कानूनों में किए गए। इस कारण, आज उनकी स्थिति, शक्ति, आत्मसम्मान में काफी परिवर्तन हुआ है। ठीक इसी तरह मुस्लिम कानून में, स्त्रियों के लिहाज से परिवर्तन आज की मांग है। 1990 के दशक में भी इसकी जरूरत समझी जा रही थी। मैंने खुद ‘एप्वा’ सीपीएमएल की महिला विंग की कार्यकर्ताओं के साथ एक प्रश्नावली, बनाकर पटना का भ्रमण किया था। मैंने बल्ब बनाने वाली महिला से लेकर डॉक्टर तक का इंटरव्यू लिया।

सवाल थे- क्या उन्हें पढ़ना, बाहर काम करना पसंद है, क्या वे पति की अकेली पत्नी बनकर रहना चाहती हैं, क्या उन्हें तीन तलाक की प्रक्रिया पसंद है, क्या उन्हें संपत्ति में अधिकार पसंद है, क्या तलाक के बाद मुआवजा या भरण-पोषण का अधिकार चाहिए आदि। करीब-करीब सभी ने यही कहा- हां पसंद है पर मजहब की पाबंदियों के कारण कुछ कह नहीं सकती। आज इन बहनों को भी इन जकड़नों से निकलते की जरूरत है। शादी की उम्र अभी महज 15 वर्ष है। इतनी सी उम्र में शिक्षा मुश्किल से 10 क्लास हो सकती है और नौकरी कर अपने पांवों पर खड़े होने का सवाल ही नहीं उठता। यहां विवाह एक कांट्रेक्ट की तरह है जिसे कभी भी तोड़ा जा सकता है। पर यहां भी पुरुष को अधिक अधिकार दिए गए हैं।

मुहम्डन कानून की धारा 251 (2) के अनुसार पागलों और नाबालिगों (लड़का-लड़की) का विवाह उनके अभिभावक द्वारा 15 वर्ष से कम में भी हो सकता है। इसी कानून के अनुसार एक मुस्लिम लड़के का विवाह तोड़ा जा सकता है यदि उसकी सहमति विवाह पर नहीं है। इसके अलावा तलाक के नियम भी पुरुषों के अलग और स्त्रियों के अलग हैं। उन्हें तलाक के बाद मासिक भत्ता देने का रिवाज नहीं है। यह सिर्फ इद्दत भर है यानी तलाक देने से तीन महीनों तक। इसके अलावा स्त्री एक शादी कर सकती है जो कि ठीक है। पर पुरुष एक ही समय में 4 विवाह कर सकता है, और एक ही घर में रख सकता है और यदि वह पांचवां विवाह भी कर लेता है तो यह गैर कानूनी या गैर धार्मिक नहीं है, बस अनियमित है। ऐसी व्यवस्था में हर एक स्त्री को पति पर एकाधिकार नहीं होता जो उसे खुशी प्रदान कर सके। इसके अलावा शिया कानून में दो तरह के विवाह होते हैं- परमानेंट और मुता विवाह यानि अस्थाई।

एक शिया मुस्लिम, किसी भी धर्म की स्त्री यथा मुस्लिम, ईसाई, यहूदी या पारसी के साथ अस्थाई विवाह कर सकता है, पर किसी और धर्म वाली के साथ नहीं। पर एक शिया स्त्री किसी गैर मुस्लिम के साथ मुता निकाह नहीं कर सकती। इसमें शारीरिक संबंध एक तय अवधि के लिए बनाया जा सकता है। यह अवधि एक दिन, एक महीना, एक वर्ष या डावर यानी मुआवजा देना जरूरी है। इसमें यौन संबंध की अवधि तथा ‘डावर’ दोनों ही तय होने चाहिए। स्त्री पुरुष में यह भेदभाव स्त्रियों की खुशी उन्नति, शारीरिक सुरक्षा, समाज, देश में उसकी भागीदारी को आहत करती है। इसी प्रकार भारत में हर धर्म, संप्रदाय में यथा ईसाई, पारसी, हिंदू, आदिवासी सभी में स्त्रियों के अधिकार की दृष्टि से एक ही नागरिक संहिता होनी चाहिए। देश की आधी जनसंख्या यदि संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों से वंचित रहे तो उसकी शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक संपदा, लाभ से राष्ट्र वंचित रहता है। ऐसा देश दुनिया के प्रगतिशील देशों की दौड़-विकास की तुलना में पीछे हो जाता है।

इसका असर राजनीतिक तो है ही सामाजिक भी है। जिस दिन महिलाएं अपनी सशक्त उपस्थिति देश की संसद, विधानसभा, पंचायत, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, व्यापार में बराबरी से दर्ज कराएंगी तो देश अत्यंत ही सशक्त संतुलित और अहिंसक होगा। सामाजिक तौर पर शिक्षित, बालिग स्त्रियां आर्थिक रूप से मजबूत, बच्चों के पालन में संतुलित, जागृत होगी। कहा भी जाता है एक शिक्षित मां कई बच्चों की एक मजबूत आधारशिला होती है जिसके बच्चे परिपक्व और समझदार होते हैं। देश राजनैतिक परिवेश और घर समाज की समुचित उन्नति के लिए समान नागरिक संहिता अत्यंत ही आवश्यक है।

कमलेश जैन


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