प्रदूषण : समग्रता में देखनी होगी समस्या
अभी मौसम की रंगत थोड़ी ही बदली थी कि दिल्ली में हवा मौत बांटने लगी। गत पांच सालों के दौरान दिल्ली के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स में सांस के रोगियों की संख्या 300 गुणा बढ़ गई है।
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दीपावली के बाद गाजियाबाद के सरकारी अस्पताल में दो हजार से ज्यादा लेग सांस की दिक्कत के साथ आ चुके हैं और वहां सभी बिस्तर भरे हुए हैं। फरीदाबाद में पांच बजे तक घुप्प अंधेरा छा जाता हैं।
एक अंतरराट्रीय शोध रिपोर्ट में बताया गया है कि अगर प्रदूषण स्तर को काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 तक दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में जाएंगे। भले ही पराली ना जले या कोई आतिशबाजी न चलाए, तपती गर्मी के भी दिन हों फिर भी राजधानी की आबोहवा का विा दिन-दुगना, रात चौगुना बढ़ता ही है। यह कड़वा सच है कि दिल्ली एनसीआर की कोई तीन करोड़ आबादी में जिसके घर में कोई बीमार होता है वह तो संजीदा हो जाता है, लेकिन बाकी आबादी बेखबर रहती है। असल में हम दिल्ली एनसीआर को समग्रता में लेते ही नहीं है। बानगी है कि दिल्ली की चर्चा तो पहले पन्ने पर है, लेकिन दिल्ली से चिपके गाजियाबाद के बीते दो सालों से लगातार देश में सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में पहले या दूसरे नंबर पर बने रहने की चर्चा होती नहीं।
हकीकत तो यह है कि दिल्ली व उससे सटे इलाकों के प्रषासन वायु प्रदूषण के असली कारण पर बात ही नहीं करना चाहते। कभी पराली तो कभी आतिशबाजी की बात करते हैं। अब तो दिल्ली के भीतर ट्रक आने रोकने के लिए ईस्टर्न पेरिफेरल रोड भी चालू हो गया, इसके बावजूद एमसीडी के टोल बूथ गवाही देते हैं कि दिल्ली में घुसने वाले ट्रकों की संख्या कम नहीं हुई है। ट्रकों को क्या दोष दें, दिल्ली-एनसीआर के बाशिंदों का वाहनों के प्रति मोह हर दिन बढ़ रही है और जीडीपी और विकास के आंकड़ों में उलझी सरकार यह भी नहीं देख रही कि क्या सड़कें या फिर गाड़ी खरीदने वाले के घर में उसे रखने की जगह भी है कि नहीं?
बस कर्ज दे कर बैंक समृद्ध हैं और वाहन बेच कर कंपनियां, उसमें फुंक रहे ईधन के चलते देश के विदेशी मुद्रा के भंडार व लोगों की जिंदगी में घुल रही कालीख की परवाह किसी को नहीं। यह स्पष्ट हो चुका है कि दिल्ली में वायु प्रदूाण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्राफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है। हर दिन बाहर से आने वाले कोई अस्सी हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि समस्या बेहद गंभीर है। सीआरआरआई की एक रपट के मुताबिक कनाट प्लेस के कस्तूरबागांधी मार्ग पर प्रत्येक दिन 81042 मोटर वाहन गुजरते हैं व रेंगते हुए चलने के कारण 2226 किग्राइंधन जाया करते हैं।। इससे निकला 6442 किग्राकार्बन वातावरण को काला करता है। और यह हाल दिल्ली के चप्पे-चप्पे का है। यानी यहां सडकों पर हर रोज कई चालीस हजार लीटर ईधन महज जाम में फंस कर बर्बाद होता है। कहने को तो पार्टिकुलेट मैटर या पीएम के मानक तय हैं कि पीएम 2.5 की मात्रा हवा में 50पीपीएम और पीएम-10 की मात्रा 100 पीपीएम से ज्यादा नहीं होना चाहिए, लेकिन दिल्ली का कोई भी इलाका ऐसा नहीं है जहां यह मानक से कम से कम चार गुणा ज्यादा ना हो। राजधानी की विडंबना है कि तपती धूप हो तो भी प्रदूषण बढ़ता है, बरसात हो तो जाम होता है व उससे भी हवा जहरीली होती है। ठंड हो तो भी धुंध के साथ धुंआ के साथ मिल कर हवा जहरीली। याद रहे कि वाहन जब 40 किलोमीटर से कम की गति पर रेंगता है तो उससे उगलने वाला प्रदूषण कई गुना ज्यादा होता है।
जाहिर है कि यदि दिल्ली की सांस थमने से बचाना है तो यहां ना केवल सड़कों पर वाहन कम करने होंगे, इसे आसपास के कम से कम सौ किलोमीटर के सभी शहर कस्बों में भी वही मानक लागू करने होंने जो दिल्ली शहर के लिए हों। यदि दिल्ली को एक अरबन स्लम बनने से बचाना है तो इसमें कथित लोकप्रिय फैसलों से बचना होगा, जिसमें सबसे महत्त्वपूर्ण है यहां बढ़ रही आबादी को कम करना। इसे अलावा दिल्ली में कई स्थानों पर सरेराह कूड़ा जलाया जा रहा है, जिसमें घरेलू ही नहीं मेडिकल व कारखानों का भयानक रासायनिक कूड़ा भी है। ना तो इस महानगर व उसके विस्तारित शहरों के पास कूड़ा-प्रबंधन की कोई व्यवस्था है और ना ही उसके निस्तारण्ण का। सो सबसे सरल तरीको उसे जलाना ही माना जाता है। इससे उपजा धुओं पराली से कई गुना ज्यादा है। दिल्लीवासी इतना प्रदूषण खुाद फैला रहे हैं और उसका दोष किसानों पर मढ़ कर महज खुद को ही धोखा दे रहे हैं। बेहतर कूड़ा प्रबंधन, सार्वजनिक वाहनों को एनसीआर के दूरस्थ अंचल तक पहुंचाने, राजधानी से भीड़ को कम करने के लिए यहां की गैरजरूरी गतिविधियों व प्रतिष्ठानों को कम से कम दो सौ किलोमीटर दूर शिफ्ट करने, कार्यालयों व स्कूलों के समय और उनके बंदी के दिनों में बदलाव जैसे दूरगामी कदम ही दिल्ली को मरता शहर बनाने से बचा सकते हैं।
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