प्रगति : ऐसे मिलेगी खुशहाली की राह

Last Updated 09 Jun 2022 03:11:19 AM IST

जिस तरह विश्व के सबसे विकसित और धनी देशों में भी पर्यावरण, स्वास्थ्य और सामाजिक बिखराव की समस्याएं तेजी से बढ़ी हैं, उसने इस बहस को तेज कर दिया है कि आखिर, प्रगति और खुशहाली की सही राह क्या है।


प्रगति : ऐसे मिलेगी खुशहाली की राह

कम से कम इतना तो स्पष्ट है कि प्रगति के मुख्य संकेतक हैं-समता व न्याय, सभी की बुनियादी जरूरतों को पूरा करना, अमन-शांति, सामाजिक समरसता और भाईचारा, लोकतंत्र, पर्यावरण की रक्षा और सभी जीव-जंतुओं के प्रति करुणा। इन प्रमुख संकेतकों के आधार पर ही तय हो सकता है कि किसी समाज ने कितनी प्रगति की है, और इतिहास के किसी दौर में कितनी प्रगति हुई है।
केवल राष्ट्रीय आय और जीएनपी की वृद्धि पर फोकस करना उचित नहीं रहा क्योंकि प्राय: जीएनपी की तेज वृद्धि के दौर में ही पर्यावरण का विनाश असहनीय हद तक बढ़ गया है। यदि कोई समुदाय एक वर्ष में अपने वन काट के बेच देता है, तो उसकी आय में अधिक वृद्धि दर्ज होती है जबकि कोई समुदाय वनों को बचा कर रखता है, तो उसकी आय में वृद्धि दर्ज नहीं होती। किसी बस्ती में शराब और जुए का धंधा दूर-दूर तक फैलता है, तो उसकी आय में तेज वृद्धि दर्ज हो जाती है, जबकि इससे किसी की भी भलाई नहीं हो रही। विषमता और शोषण बढ़ने के दौर में भी राष्ट्रीय आय में वृद्धि दर्ज हो सकती है। इसलिए राष्ट्रीय आय में वृद्धि के मानदंड को छोड़कर हमें पूछना चाहिए कि दुनिया बेहतर बन रही है कि नहीं। यह सवाल जरूरी हो जाता है कि क्या सब लोगों की बुनियादी जरूरतें बेहतर ढंग से पूरी हो रही हैं या नहीं। बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के प्रयास अल्पकालीन ही नहीं होने चाहिए अपितु टिकाऊ  भी होने चाहिए। यह तभी हो सकता है जब प्राकृतिक संसाधनों के आधार को, पर्यावरण की रक्षा को साथ-साथ उच्च महत्त्व मिले। भोजन और आश्रय से बड़ी जरूरत साफ हवा और पानी की है, यह जरूरत भी पर्यावरण की रक्षा से जुड़ी है। पर्यावरण रक्षा का महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि जलवायु बदलाव के संकट को नियंत्रित करने के जो भी प्रयास अभी संभव हैं, वे किए जाएं तथा साथ ही बचाव की तैयारी की जाए। बढ़ती आपदाओं से बचाव की बेहतर तैयारी को विभिन्न स्तरों पर समुचित महत्त्व देना जरूरी है। पर यह तभी संभव हो सकेगा तब विश्व और राष्ट्रीय स्तर पर संपत्ति और आय की अत्यधिक विषमताओं को कम किया जा सके और इस तरह उच्चतम प्राथमिकता वाले कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए आर्थिक संसाधन प्राप्त किए जा सकें। इसलिए विश्व स्तर पर और देश के स्तर पर आर्थिक विषमता को कम करना बहुत जरूरी है।

जब सभी लोगों विशेषकर निर्धन लोगों की जरूरतों पर विशेष ध्यान की बात कही जाती है तो उसके साथ एक सवाल यह भी जुड़ जाता है कि क्या अन्याय केवल आर्थिक स्तर पर होता है, या इसके विभिन्न सामाजिक आयाम भी हैं। स्पष्ट है कि सामाजिक संदर्भ में भी जाति, धर्म, रंग, नस्ल, लिंग आदि के आधार पर कई तरह के गंभीर भेदभाव मौजूद हैं, और इस तरह के अन्याय को दूर करने को भी ऊंची प्राथमिकता मिलनी चाहिए। मूल उद्देश्य तो यह है कि न्याय और समता पर आधारित सामाजिक सद्भावना और भाईचारा भी ऐसी व्यवस्था में ही सबसे अच्छी तरह पनप सकता है।
ब्रिटिश सोशल साइंस रिसर्च काउंसिल ने एक सव्रेक्षण किया। सव्रेक्षण में पांच वर्षो के दौरान तीन बार 1500 सामान्य नागरिकों के सैम्पल से पूछा गया कि जीवन को बेहतर बनाने के लिए वे किन बातों को महत्त्व देते हैं और क्या उन्हें लगता है कि जीवन पहले से बेहतर हो रहा है या नहीं। ब्रिटेन के समाज को (अन्य पश्चिमी विकसित देशों की तरह) काफी भौतिकवादी माना जाता है पर 71 प्रतिशत लोगों ने जीवन की गुणवत्ता बढ़ने या जीवन बेहतर होने में जिन बातों को महत्त्व दिया उनका आय या दौलत के बढ़ने से कोई संबंध नहीं था। उपभोक्ता वस्तुओं से अधिक महत्त्व ‘अच्छे पारिवारिक जीवन’ और ‘संतोष की स्थिति’ को देने वाले लोगों की संख्या अधिक थी। सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो इस सव्रेक्षण में सामने आई वह यह थी कि लगभग सभी नागरिकों के मत में पिछले पांच वर्षो में उन्हें  उपलब्ध उपभोक्ता वस्तुओं की मात्रा बढ़ गई थी पर साथ ही जीवन की गुणवत्ता कम हो गई थी। लगभग सभी लोगों ने यह विचार भी व्यक्त किया कि अगले पांच वर्षो में यही स्थिति और आगे बढ़ने की संभावना है-उपभोक्ता वस्तुओं की मात्रा और बढ़ जाएगी पर साथ ही जीवन की गुणवत्ता और घट जाएगी।
खुशहाली की स्थिति बनाए रखने में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य की समग्र सोच को महत्त्व दिया गया है। खुशहाली का बहुत महत्त्वपूर्ण संबंध हमारे पारिवारिक और अन्य नजदीकी सामाजिक संबंधों से है। यदि इस पर समुचित ध्यान न दिया गया तो बढ़ती आय के दौर में भी खुशहाली कम हो सकती है। खुशहाली का अर्थ यह नहीं है कि खूब उत्सव मनाओ, जश्न मनाओ या नाचते-गाते रहो अपितु खुशहाली का नजदीकी जुड़ाव जीवन की सार्थकता, गहरे संबंधों और संतोष से है। वही समाज सही अथरे में खुशहाल हो सकता है, जहां दुख-दर्द और उसके कारणों को न्यूनतम करने के प्रयासों को समुचित महत्त्व दिया जाए, उच्च प्राथमिकता दी जाए। दुख-दर्द को दूर करने का अर्थ केवल परोपकारी कार्य नहीं है अपितु जो अन्याय और विषमता व्यापक स्तर पर दुख-दर्द का कारण बनते हैं उन्हें दूर करना सबसे जरूरी है। गरीब और कमजोर वर्ग के दुख-दर्द अधिक हैं, इसलिए उन पर ध्यान देना चाहिए। मनुष्यों के ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों, जीव-जंतुओं के दुख-दर्द कम करने को महत्त्व मिलना चाहिए।
व्यक्तिगत जीवन में सर्वाधिक महत्त्व इसे मिलना चाहिए कि किसी को दुख-दर्द न पहुंचाने के प्रति सभी नागरिक दैनिकज्ीवन में सचेत रहें। इस तरह के संस्कार बनाने के लिए परिवार, शिक्षा-संस्थान, सभी स्तरों पर महत्त्व दिया जाए। इस तरह भेदभाव, नफरत, हिंसा आदि नकारात्मक भावनाओं को समाज से दूर करने की मजबूत बुनियाद तैयार हो सकती है।
राष्ट्रीय आय की संकीर्ण सोच से आगे बढ़कर हम खुशहाली बढ़ाने को इस व्यापक सोच की ओर जाएं तो प्रगति के बेहतर लक्ष्य तय करने में बहुत सहायता मिलेगी।

भारत डोगरा


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