मुद्दा : न्याय की कीमत

Last Updated 09 Jun 2022 03:08:02 AM IST

भारतीय संविधान विश्व के सबसे महान कहे जाने वाले संविधानों में से एक है, लेकिन इसी भारतीय संविधान के तहत न्यायपालिका के कुछ फैसले आमजन को न्यायपालिका जाने से रोकते हुए दिखते हैं।


मुद्दा : न्याय की कीमत

एक वाकया बिहार में तीन एकड़ जमीन के मुकदमे का है, जिसका फैसला 108 साल बाद आया। न्याय की आस लगाए बैठे वादी की अब चौथी पीढ़ी है जबकि उनके वकील की तीसरी पीढ़ी। यह तो संयोग अच्छा रहा कि इनकी चार पीढ़ियों ने मुकदमे की पैरवी जारी रखी अन्यथा न्याय मिल पाता यह कहना थोड़ा अजीबोगरीब सा लगता है। इस मामले की कानूनी लड़ाई 108 साल पहले यानी 1914 में शुरू हुई थी। इस प्रकरण को मैं भी तब जान पाया जब इसे कहीं लिखा हुआ पाया और गांठ बांध लीजिए कि इतिहास लेखन भी सदा जीतने वालों के साथ न्याय करता है, हारने वालों के साथ नहीं। हारने वाला योद्धा चाहे जितना भी प्रतापी रहा हो कसीदे तो हमेशा जीतने वालों के ही पक्ष में ही गढ़े जाते रहे हैं। चाहे वो जीत जैसे भी हासिल हुई हो इतिहास ने गुणगान तो उसी का किया है। बस, यही वास्तविकता है जिसे कहा तो नहीं जाता लेकिन व्यवहारिक रूप से स्वीकार जरूर किया जाता है।
बात 2020 के आसपास की है, पूर्वाचल के गाजीपुर का रहने वाला एक युवा, जो गाजियाबाद में रहकर नौकरी कर रहा होता है, एक दिन रात को लौटकर घर नहीं आया। काफी खोजबीन हुई लेकिन अंत में वह हुआ जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी। उस युवा का शव पाया गया। वह लड़का अपने मां-बाप के बुढ़ापे का इकलौता सहारा था, उसकी मौत ने सबको झकझोर कर रख दिया।

बच्चे को जन्म देने वाली जननी का संघर्ष कितना बड़ा होता है, उसे वह मां ही जानती है, जिसने बच्चे को जन्म देने के बाद उसको पालने एवं उसे बेहतर भविष्य देने के लिए खुद को खपा दिया होता है। खुद के दु:ख-सुख भूल मां अपने बच्चे के सुख के लिए लाखों दु:खों को अंगीकार करती नजर आती है। गाजीपुर के जिस लड़के की अप्राकृतिक मृत्यु हो गई थी उसकी मां का अपने बच्चे को न्याय दिलाने के लिए जो संघर्ष चल रहा है, वह मिशाल है। सालों से गाजीपुर से नोएडा, गाजियाबाद एवं लखनऊ सैकड़ों बार जाकर हजारों लोगों से मिलकर अपने बच्चे के लिए न्याय की गुहार लगाना आसान नहीं। कुछ महीनों पहले वह मां लखनऊ में एक जगह कुछ लोगों के कहने पर न्याय के लिए फरियाद लेकर पहुंची। मैंन नहीं जानता था उस मां को लेकिन जब उसकी व्यथा सुनी तो आंखें भर आई और उस मां की आंखें भी अपना दर्द बताते हुए डबडबा गई थीं। वहां मौजूद कुछ लोगों की पत्थरदिली का आलम यह था कि वे सब कुछ सुनने के बाद भी उस मां की मदद करने की बात तो छोड़िए, सही व्यक्ति से 10 कदम आगे जाकर मिलवाने की जहमत तक नहीं उठा सके।

बहरहाल, मैंने उस मां को एक नेता से मिलवाया और उस नेता ने अपने स्तर पर उस मां की मदद की लेकिन भारतीय कानून व्यवस्था की पेचीदगियों ने मामले को यूं ही उलझाए  रखा। लेकिन उस मां ने हार नहीं मानी और वह अपने बच्चे को इंसाफ दिलाने के लिए लड़ती रही, इस दरम्यान उस मां से मेरी कई बार मुलाकात हुई। लेकिन पिछली बार जो हुआ उसने मुझे झकझोर कर रख दिया। पिछली बार जब वह मां मिली तो उन्होंने बताया कि केस में जांच तो हो रही लेकिन स्थानीय अधिकारी रिपोर्ट सबमिट नहीं कर रहा, तथा कई बार जाकर निवेदन करने पर भी मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया है, और अपने लड़के की फोटो दिखाकर रोने सी लगीं। उनके कहने पर मैंने अपने एक परिचित अधिकारी से बात की एवं उक्त प्रकरण में नियम संगत मदद करने की गुहार लगाई, इस पर उन्होंने स्थानीय स्तर पर बात करके केस का अपडेट भी बताया।
मैंने पूरी बात उस मां को बताई एवं उनको घर जाने का निवेदन करके उठकर कहीं जाने लगा तो वह मां मेरे साथ-साथ चलने लगीं और सकुचाते हुए अपने हाथों में कुछ नोटों को मोड़े हुए मुझे देने की कोशिश करने लगीं। मैंने कहा ‘अरे! चाची यह क्या?’ इस पर उन्होंने भोजपुरी में कहा, ‘अरे तू लईका के उम्र क हवा, ल इ चाय पानी क लिहा।’ इस पर मैंने उनसे कहा, ‘आप लोग बस आपन आशीर्वाद दिहल जाएं, बाकी केहू क कुछऊ ना चाही।’ यह घटनाक्रम मेरे लिए कोई नया नहीं था, लगभग एक दशक से भी ज्यादा समय से सामाजिक जीवन में हूं, जहां अनेकों बार मदद मांगने वाले लोगों ने कुछ देने का प्रयास किया। लेकिन जब -जब मेरे साथ ऐसा वाकया घटित होता है, मैं पूरी रात सो नहीं पाता, बल्कि सोचते रह जाता हूं कि आखिर, ऐसा क्यों हुआ। उस दिन भी कुछ ऐसे ही हुआ, उस मां के दु:ख तकलीफ को सोचते ही आंखें भर आई कि उस मां को कितनी दु:ख और तकलीफे उठानी पड़ रही होंगी क्योंकि उन्होंने एक दिन बताया था कि सुहेलदेव एक्सप्रेस से गाजीपुर से लखनऊ आई हैं, और फिर डायरेक्ट वहीं आ गई थीं जहां मेरी उनसे मुलाकात हुई थी। मैं देर शाम अकेले बैठकर सोचता रहा कि ऐसा तो किसी के साथ भी हो सकता है न, तो सबकी मां को यूं ही न्याय पाने के लिए दर-दर भटकना पड़ेगा न। भारतीय न्याय प्रणाली में न जाने कब उस मां को न्याय मिलेगा लेकिन मां के  संघर्ष के आगे अब सबका संघर्ष बौना नजर आता है।

दिव्येन्दु राय


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