स्वतंत्र भारत में मीडिया : दिशा एवं दशा

Last Updated 30 May 2022 12:56:39 AM IST

आज दुनिया के तमाम देश प्रगति और विकास की ओर तेजी से बढ़ते भारत को नई उम्मीद से देख रहे हैं।


स्वतंत्र भारत में मीडिया : दिशा एवं दशा

आज भारत की पहचान बदल रही है, और वह एक समर्थ परंपरा का सांस्कृतिक उत्तराधिकारी ही नहीं है, बल्कि तेजी से विकास करता हुआ राष्ट्र है। इसलिए वह उम्मीदें भी जगा रहा है। अनादि काल से भारत में समाज की सामूहिक शक्ति पर भरोसा किया गया है। यह अरसे तक हमारी सामाजिक परंपरा का हिस्सा रहा है।

हम सबने देखा है, कि बीते कुछ वर्षो में जन-भागीदारी भारत का नेशनल कैरेक्टर बनता जा रहा है। ऐसे समय में भारतीय मीडिया का आकार, प्रकार और शक्ति भी बढ़ी है। भारत में मीडिया का इस्तेमाल करने वाले लोग भी बढ़े हैं। संचार माध्यमों से विविध प्रकार की सूचनाएं समाज के सामने उपस्थित हो रही हैं। इसमें सूचनाओं की विविधता भी है और विकृति भी। मीडिया देश की विविधता और बहुलता को व्यक्त करते हुए इसमें एकत्व के सूत्र निकाल सकता है।

हमारी की ताकत है कि हम संकट के समय में एकजुट हो जाते हैं, लेकिन संकट टलते ही वह भाव नहीं रहता। हमें इस बात को लोगों के मन में स्थापित करना है कि वे हर स्थिति में साथ मिलकर चल सकते हैं। यही एकात्म भाव है। यही भारतबोध भी है। बौद्धिकता बुद्धिजीवियों तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, उसे आम-आदमी के विचार का हिस्सा बनना चाहिए। मीडिया अपने लोगों का प्रबोधन करने में यह भूमिका निभा सकता है। मीडिया का काम सूचनाएं देना नहीं है, लोगों को बौद्धिक रूप से उन्नत करना भी है। कोई भी लोकतंत्र ऐसे ही सहभाग से साकार होता है, सार्थक होता है। भारत में मीडिया का प्रभाव पिछले दो दशकों में बहुत बढ़ा है। आज यह बड़े उद्योग में बदल गया है। लेकिन इसके बावजूद हमें मानना पड़ेगा कि मीडिया का व्यवसाय, अन्य व्यवसायों या उद्योगों सरीखा नहीं है। इसके साथ सामाजिक दायित्वबोध गुंथे हुए हैं।

मीडिया के नये बदलावों पर आज सवाल उठने लगे हैं। बाजार के दबावों ने मीडिया प्रबंधकों की रणनीति बदल दी है और बाजार के मूल्यों पर आधारित मीडिया का विकास भी तेजी से हो रहा है। जहां खबरों को बेचने पर जोर है।   समझौते और समर्पण के आधार पर बनने वाला मीडिया किसी भी तरह राष्ट्रीय और सामाजिक संकल्पों का वाहक नहीं बन सकता। मीडिया का एक और स्थायी मूल्यबोध है मानवीय संवेदना को कायम रखना। महिलाओं का सम्मान, प्रतिभाओं और समाज के कमजोर वगरे के साथ न्याय, राजनीति अगर पथ भ्रष्ट हो तो उसके कान उमेठने का साहस और मीडिया की भीतरी बुराइयों को बेहिचक स्वीकार के साथ उनमें सुधार की आंतरिक कोशिश भी मीडिया के मूल्यबोध का अहम हिस्सा होनी चाहिए।  

दो दशक पहले तक मुख्य धारा का मीडिया प्रिंट मीडिया ही था। प्रेस कौंसिल जैसी संवैधानिक संस्थाओं का उस पर अंकुश था। प्रिंट मीडिया के अलावा टीवी और रेडियो के रूप में सरकारी उपक्रम थे, जो अधिकृत सूचनाएं ही देते थे। लेकिन आज मीडिया के बहुआयामी होने से यहां कभी-कभी अराजकता की स्थिति भी बन रही है। मीडियाकर्मी और मीडिया शिक्षक होने के नाते मेरा मानना है कि एक पत्रकार कोई बिजनेस मैनेजर, प्रकाशक या संस्थान का मालिक नहीं है। पत्रकार राज्यरूपी जहाज पर खड़ा एक पहरेदार है, जो समुद्र में दूर-दूर तक हर संभावित छोटे-बड़े खतरे पर नजर रखता है। वह लहरों में बह रहे उन डूबतों पर भी नजर रखता है, जिन्हें बचाया जा सकता है। धुंध और तूफान के परे छिपे खतरों के बारे में भी आगाह करता है। उस समय वह अपनी पगार या अपने मालिकों के मुनाफे के बारे में नहीं सोच रहा होता।  

भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी ‘लोक’ का हिस्सा हैं। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह ‘लोक’ को नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है, क्योंकि ‘लोक’ की उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदशर्न कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है। संस्कृति अलग से कोई चीज नहीं होती, वह हमारे समाज के सालों से अर्जित पुण्य का फल है। इसे बचाने के लिए, संरक्षित करने के लिए और इसके विकास के लिए समाज और मीडिया दोनों को साथ आना होगा। तभी हमारे गांव बचेंगे, लोक बचेगा और लोक बच गया तो संस्कृति बचेगी। इसी से नवभारत का निर्माण होगा।

प्रो. संजय द्विवेदी


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment