मुद्दा : स्वार्थ की खातिर दल-बदल

Last Updated 18 May 2022 12:24:45 AM IST

राजनीति में कोई व्यक्ति किसी विचारधारा से प्रभावित होकर उस दल का कार्यकर्ता बनता है, और राजनीति में सक्रिय होता है।


मुद्दा : स्वार्थ की खातिर दल-बदल

लेकिन आज के परिवेश में भारतीय राजनीति में कम समय में बहुत कुछ हासिल करने की चेष्टा रखने वाले नेताओं की तादाद काफी बढ़ गई है। ऐसे में बिना परिश्रम एवं संघर्ष किए पद हासिल करने की इच्छा में नेताओं द्वारा कई शॉर्टकट हथकंडे अपनाए जाते रहे हैं। इनमें से सबसे सस्ता और आसान तरीका दल-बदलने का रहा है। अब दल-बदल कर अपने आप को बड़े नेता कहलाने की मानो नई परंपरा की शुरुआत हो गई है।
भारत में जब भी दल-बदलने की चर्चा होती है, तो उसमें पहला नाम हरियाणा का आता है। 1980 में रातों-रात तत्कालीन मुख्यमंत्री भजन लाल ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए समर्थक विधायकों का दल-बदल कांग्रेस में करा दिया था। स्वतंत्र भारत में पहली बार देश ने देखा कि कैसे एक सरकार का दल-बदल हो गया। दल-बदल की राजनीति में आयाराम-गयाराम शब्द का इस्तेमाल काफी होता है। यह मात्र कहावत नहीं वास्तविक घटना है, जिसका संबंध भी हरियाणा से है। बात 1967 की है, जब गया लाल हरियाणा के पलवल जिले अंतर्गत हसनपुर से विधायक चुने गए थे। उन्होंने एक दिन में 3 बार दल बदले थे। इस घटनाक्रम के बाद चंडीगढ़ में हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक नेता ने कहा था कि ‘गया राम अब आया राम है।’ तब से ही राजनीति में पाला बदलने वाले के लिए यह किस्सा प्रसिद्ध हो गया। स्वतंत्र भारत की राजनीति में वैचारिक मतभेद के कारण अलग दल या पार्टी बनाने के कई दृष्टांत हमारे समक्ष हैं, जिनने लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूती प्रदान की है। भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी एवं चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, जो शीर्ष राजनेताओं में गिने जाते थे और दोनों कांग्रेस से जुड़े थे, वैचारिक मतभेद होने के कारण कांग्रेस छोड़ अलग हुए तथा अलग दल का गठन किया जो आज भी जीवंत है। आचार्य नरेंद्र देव, डॉ. राम मनोहर लोहिया, आचार्य जेबी कृपलानी जैसे राजनेताओं ने भी अलग पार्टी का गठन किया था।

यह सत्य है कि अपने-अपने राजनैतिक फायदा-नुकसान के अनुसार नेताओं का दल-बदलना आम बात है। बेशक, ऐसा करने से कोई नेता अपराधी नहीं कहलाएगा, लेकिन नैतिकता की कसौटी पर जनमानस की नजर में इसे अपराध के श्रेणी में माना जाता है। स्पष्ट है कि ऐसे नेता अपने सिद्धांतों की बजाए अपने राजनैतिक स्वार्थ को ही प्राथमिकता देते हैं। चुनाव आते ही दलबदलू नेता मौसमी मेंढक की तरह दल बदलने की कतार में दिखाई देने लगते हैं। इस प्रकरण में केवल उन नेताओं को दोषी मानना न्यायोचित नहीं होगा, बल्कि वे राजनीतिक पार्टयिां भी बराबर की दोषी हैं, जो सत्ता की लोलुपता में बाहरी एवं अन्य दलों के नेताओं को ‘बड़ा नेता’ का दर्जा देकर अपने पार्टी में जोश-खरोश के साथ स्वागत करती हैं।
भारत में दल-बदलने के इतिहास को देखेंगे तो पाएंगे की 1957 से 1967 के बीच कुल 542 सांसद/विधायकों ने दल-बदल किया था। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक  रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार 2016 से 2020 के बीच हुए चुनाव में विभिन्न दलों के नेताओं ने दल-बदल किए। आंकड़ों के अनुसार कांग्रेस के 42 फीसद विधायक अन्य दलों में शामिल हुए।  दल-बदल का दंश जो गोवा ने झेला है, उसके समक्ष अन्य राज्य काफी पीछे है। 1990 से 2002 बीच मात्र 12 वर्षो के दौरान गोवा में 13 मुख्यमंत्री बने। कितना हास्यास्पद है कि जो राजनीतिक दल अपने आप को विचारधारा से बंधे हुए बताते हैं, लेकिन चुनाव के समय ऐसे विपक्षी नेताओं को शामिल कराते हैं, जिनका विचारधारा के नाम पर ही 5 साल तक विरोध करते रहे। कई बार तो ऐसा भी देखने को मिलता है कि चुनाव से पूर्व एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी के रूप में लड़ते हैं,  लेकिन चुनाव के बाद अपनी विरोधी विचारधारा वाली पार्टी से गठबंधन करके सत्ता प्राप्त करते हैं। ऐसे व्यवहार से जनता ठगा हुआ महसूस करती है। 2019 में महाराष्ट्र में जनता ने एनडीए को स्पष्ट बहुमत से चुना था, लेकिन शिवसेना ने मात्र 56 सीट जीत कर जनादेश का अपमान एवं जनता के साथ विश्वासघात कर कांग्रेस एवं एनसीपी से मिल कर सरकार बनाई, जो चुनाव में उसके धुर-विरोधी थे।
दल-बदल के दलदल से निजात पाने हेतु पहली बार 1985 में दल-बदल विरोधी कानून बनाया गया था, इसे और प्रभावी बनाने एवं मंत्रिपरिषद की संख्या सीमित रखने हेतु तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी के नेतृत्व में 2003 में हुए संशोधन को ऐतिहासिक माना जाता है। दुर्भाग्य है कि कानून बनने के बाद भी दल-बदल की राजनीति समाप्त नहीं हो पाई। उल्टे दल-बदलू नेताओं को राजनीतिक पार्टयिां विशेषकर क्षेत्रीय दल अपनी पार्टी में विशेष स्थान देते हैं, और इससे उन्हें दोगुनी ताकत तब मिल जाती है, जब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया भी अपने समाचार पत्रों, आलेख एवं टीवी शो में इन्हें बड़े नेता की तरह ही रेखांकित करता हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत तथा जनतांत्रिक व्यवस्था को सुदृढ़ करने के लिए अति आवश्यक है कि व्यक्तिगत स्वार्थ एवं धन-बल के दम पर दल-बदल की राजनीति करने वालों पर सभी राजनीतिक पार्टयिां  ध्यान दें। और इसके साथ ही दल-बदलुओं को बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करने से भी परहेज करें।

प्रो. (डॉ.) राजेंद्र प्र. गुप्ता


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