अंबेडकर जयंती पर विशेष : सशक्त लोकतंत्र के पैरोकार

Last Updated 14 Apr 2022 12:23:20 AM IST

भारतीय संविधान संघात्मक होने के साथ एकात्मक भी है। यह हमारे संविधान की बड़ी विशेषता ही है कि इसमें प्रस्तावना में ही इसके उद्देश्य, लक्ष्य और सार को संक्षेप में जैसे समेट दिया गया है।


अंबेडकर जयंती पर विशेष : सशक्त लोकतंत्र के पैरोकार

संविधान की प्रस्तावना ‘हम भारत के लोग’ में लोकतांत्रिक शासन पद्धति की गरिमा ही निहित नहीं है, बल्कि इस बात की घोषणा भी है कि संविधान अपनी शक्ति सीधे जनता से प्राप्त करता है। समानता, संप्रभुता, बंधुत्व के भावों से सजे इस संविधान के प्रमुख वास्तुकार एवं निर्माता थे डॉ. भीमराव अंबेडकर। स्ांविधान मसौदा समिति के सभापति के रूप में उन्होंने भारतीय परिप्रेक्ष्य में संविधान में महत्त्वपूर्ण विषयों का समावेश ही नहीं किया, बल्कि लोकतंत्र के सशक्तिकरण से जुड़े वे सभी प्रावधान भी सुनिश्चित किए जिनसे देश का राजनीतिक ढांचा मजबूत होता है।
देश आजाद होने के बाद हमारे यहां संसदीय लोकतंत्र प्रणाली को अपनाते हुए संविधान में आम नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान किए गए तो उनके मूल कर्त्तव्य भी सुनिश्चित किए गए हैं। डॉ. अंबेडकर को इस दृष्टि से मैं विरल मानता हूं कि उन्होंने समय संदभरे को दृष्टिगत रखते हुए संविधान में सामाजिक और आर्थिक आचार संहिताओं को लागू करने की सशक्त पैरवी की। अंबेडकर का कहना था कि लोकतंत्र को आर्थिक और सामाजिक स्वतंत्रता प्रदान करके ही सुरक्षित रखा जा सकता है। उन्होंने संविधान समिति के मसौदे में इस बात को खास तौर से रखा कि ‘हमें ऐसी सरकार चाहिए जिसमें सत्ता में बैठे व्यक्ति इस बात को समझते हों कि कब सरकार की आज्ञाकारिता समाप्त हो जाती है, और प्रतिरोध प्रारंभ हो जाता है। ‘सरकार जनता की होनी चाहिए, जनता के लिए होनी चाहिए और जनता द्वारा ही चुनी होनी चाहिए।’

डॉ. अंबेडकर ने संविधान में संघीय प्रणाली को मजबूत किए जाने पर सदा ही जोर दिया। इसके पीछे बड़ा कारण यह था कि वह भारत की संघीय व्यवस्था को सर्वाधिक सशक्त करने के पक्षधर थे। संसदीय लोकतंत्र की मजबूती के अंतर्गत उनकी मंशा यह थी कि साधारण परिस्थितियों में तो राज्य केंद्र सरकार के नियंत्रण से मुक्त होता ही है परंतु संविधान के अतंर्गत देश का शक्तिशाली केंद्र बने। तत्कालीन परिस्थितियों में यह जरूरी भी था। इसलिए कि जब संविधान बन रहा था तब देश की स्थिति डांवाडोल थी। स्वाभाविक ही है कि संविधान निर्माण के दौरान इस बात को ध्यान में रखा गया कि अगर केंद्र दुर्बल हुआ तो देश की स्वतंत्रता भी फिर से खतरे में पड़ सकती है।
एक बड़ी बात डॉं. अंबेडकर के संविधान चिंतन की यह भी है कि उन्होंने संविधान निर्माण के दौरान मानवीय अधिकारों के प्राकृतिक सिद्धांतों पर अधिक बल दिया। शायद वह यह जानते थे कि जबरन किसी कानून से कोई अधिकार लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। इसलिए उन्होंने अधिकारों में नैतिक चेतना को प्रमुख रखा। उनका मानना था कि यदि किसी कानून को सामाजिक चेतना के दायरे में लाकर लागू किया जाएगा तो अधिकार दीर्घकाल तक सुरक्षित रहेंगे अन्यथा समुदाय द्वारा कभी भी उनका विरोध हो सकता है। इसीलिए अंबेडकर ने महिलाओं को पुरुष के बराबर अधिकार दिए जाने और उन्हें मुख्यधारा में सम्मिलित किए जाने को भी महत्त्व दिया। संविधान के अनुच्छेद 14 के अंतर्गत इसीलिए यह स्पष्ट किया गया है कि किसी भी नागरिक के साथ लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता।
संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के मुखिया के रूप में अंबेडकर की यह भूमिका भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि उन्होंने संविधान से जुड़े महत्त्वपूर्ण प्रावधानों की भूमिका ही तय नहीं की,  बल्कि भारतीय परिप्रेक्ष्य में गणतंत्र को सशक्त करने वाले महत्त्वपूर्ण विषयों का भी अपनी सूक्ष्म दृष्टि से उसमें समावेश कराया। मैं जब लोक सभा सदस्य था तो संविधान सभा की कार्यवाही का विस्तार से अध्ययन का अवसर मिला था। तभी दस खंडों की ‘भारतीय संविधान सभा के वाद-विवाद की सरकारी रिपोर्ट’ को भी बेहद रुचि से पढ़ा। इसको पढ़ते हुए डॉ. अंबेडकर के उस व्यक्तित्व से भी रू-ब-रू हुआ जिसमें उन्होंने संविधान लिखने का महती कार्य करने के बावजूद इसका श्रेय अपने साथियों को दिया है।
संविधान सभा में 17 नवम्बर से 25 नवम्बर, 1949 तक जो बहस हुई, उसका डॉ. भीमराव अंबेडकर ने ही उत्तर दिया था। इसमें उन्होंने संविधान की आलोचनाओं पर खुलकर अपना मत व्यक्त किया। ऐसा करते हुए उन्होंने यह भी खास तौर से बताया कि संविधान में वर्तमान पीढ़ी के विचार हैं। उन्होंने संविधान की लचीली प्रक्रिया के साथ ही इस बात को भी स्थापित किया कि राजनैतिक लोकतंत्र से ही हमें संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। अपने राजनैतिक लोकतंत्र को हमें सामाजिक लोकतंत्र का रूप भी देना चाहिए। सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ है, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व का सिद्धांत। विशेष बात जो संविधान के संदर्भ में डॉ. अंबेडकर की रही है, वह यह है कि उन्होंने संविधान रक्षण के लिए इस तरह के संकल्प लेने का आह्वान भी किया है, जिनसे बुराइयों को दूर करने का सतत प्रयास हो। बुराइयों को दूर करने के उपक्रम में दुर्बलता कतई न दिखे।
मैं यह मानता हूं कि भारतीय संविधान में डॉ. अंबेडकर का जो विशिष्ट योगदान रहा है, उस पर बहुत अधिक चिंतन नहीं हुआ है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने संविधान की जो उद्देशिका प्रस्तावित की, उसमें ‘बंधुता’ का समावेश डॉ. अंबेडकर की ही देन है। उनकी व्यापक संविधान दृष्टि को संविधान सभा के उनके उस अंतिम भाषण में गहरे से समझा जा सकता है, जिसमें देश की एकता एवं अखंडता के लिए ‘बंधुता’ को उन्होंने जरूरी बताया था। भारतीय संविधान के डॉ. अंबेडकर ऐसे वास्तुकार, निर्माता थे जिन्होंने देश को राष्ट्रीयता के भावों से जोड़ते हुए लोकतंत्र को सशक्त करने की संवैधानिक नींव रखी।
(लेखक राजस्थान के राज्यपाल हैं)

कलराज मिश्र


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