महिलाओं की तरक्की से समाज की प्रगति

Last Updated 14 Apr 2022 12:16:12 AM IST

बाबा साहेब अंबेडकर वो पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को खुली चुनौती दी थी, उन्होंने कहा, ‘मैं किसी समाज की प्रगति इस बात से देखता हूं कि वहां महिलाओं ने कितनी तरक्की की है।’


महिलाओं की तरक्की से समाज की प्रगति

महिलाओं के उत्थान के लिए डॉ. अंबेडकर बेहद गंभीर थे। जब नारीवाद का कोई नाम भी ढंग से नहीं जानता था, उस वक्त डॉ. अंबेडकर ने नारी सशक्तिकरण के ऐसे काम किए जिनसे भारतीय महिलाएं अंतरिक्ष तक पहुंच चुकी हैं। अगर भारतीय संविधान को देखें तो वैधानिक कानून के तहत महिलाओं को पुरु षों के समान अधिकार मिले हैं ताकि वे देश के प्रशासन में प्रभावी ढंग से भाग ले सकें।
कानून के समक्ष समानता में अनुच्छेद 39 में राज्य को पुरु षों और महिलाओं के लिए समान रूप से आजीविका के पर्याप्त साधनों का अधिकार, अनुच्छेद 39 (ए):, और पुरु षों और महिलाओं, दोनों के लिए समान काम के लिए समान वेतन और अनुच्छेद 42 राज्य को न्याय और काम की मानवीय परिस्थितियों को सुनिश्चित करने और मातृत्व राहत के लिए प्रावधान करने का निर्देश देता है। अनुच्छेद 243 डी (3) और अनुच्छेद 243 टी (3) पंचायतों और नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में रोटेशन द्वारा आवंटित की जाने वाली सीटों की कुल संख्या के एक तिहाई से कम आरक्षण का प्रावधान नहीं करता है।

मताधिकार/चुनावी कानून में महिलाओं के लिए एक तिहाई से कम स्थान आरक्षित नहीं होंगे। ऐसी सीटें किसी पंचायत के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में बारी-बारी से आवंटित की जा सकती हैं। ग्राम या किसी अन्य स्तर पर पंचायत में अध्यक्ष का पद अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और महिलाओं के लिए इस तरह से आरक्षित होगा जैसा राज्य की विधायिका, कानून द्वारा प्रदत्त हो। नगर पालिकाओं में महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण प्रदान किया जाता है। वैधानिक जनादेश को बनाए रखने के लिए, राज्य ने समान अधिकार सुनिश्चित करने, सामाजिक भेदभाव और विभिन्न प्रकार की हिंसा और अत्याचारों का मुकाबला करने और विशेष रूप से कामकाजी महिलाओं को सहायता सेवाएं प्रदान करने के उद्देश्य से विभिन्न विधायी उपाय किए हैं। कहने की जरूरत नहीं कि आजादी की करीब तीन चौथाई सदी बीत जाने के बाद अंबेडकर ज्यादा सही प्रतीत होते हैं। राजनीतिक तौर पर आजाद भारत कई तरह की सामाजिक बुराइयों का गुलाम है। पुरानी अस्पृश्यता नफरत की नई शक्लों में विद्यमान है, और हमारा पूरा लोकतंत्र बंटे हुए समाज की कटी-छंटी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने का जरिया रह गया है। एकपक्षीय राजनीतिक फैसलों की तो जैसे बाढ़ आई हुई है, और खुद को प्रगतिशील और लोकतांत्रिक मानने वाली ताकतें एक के एक बाद इनके प्रहारों के आगे बेबस प्रतीत होती हैं। उनकी उपस्थिति का दबाव दूसरी सारी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भी है। उनके फैसलों पर सवाल उठाना अदालतों के लिए मुश्किल होता जा रहा है।
नतीजा यह हुआ है कि कश्मीर से धारा 370 हटाने का सवाल हो, वहां मानवाधिकारों के उल्लंघन का मामला हो, अयोध्या का फैसला हो, तीन तलाक का मसला हो, नागरिकता संशोधन कानून हो, दिल्ली के दंगे हों, विरोधियों को देशद्रोही बताने की बात हो-अदालतें लगभग हर मामले में या तो सरकार को लेकर बहुत नरमी भरा रुख अख्तियार करती नजर आ रही हैं, या फिर सुनवाई आगे बढ़ा रही हैं। इसके अलावा, नागरिकों पर एनआरसी की तलवार लटकी ही हुई है। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ देश का बड़ा हिस्सा आंदोलनरत है। लेकिन सरकार इस पूरे आंदोलन को खारिज करने में लगी हुई है। उसके मुताबिक यह आंदोलन विपक्ष के बहकावे का नतीजा है। वह इससे सख्ती से निबटने की बात कह रही है।
कहने का मतलब यह है कि इसी  मोड़ पर हमें डॉ. अंबेडकर के विचारों को अपनाने की जरूरत है। वो अंबेडकर, जिन्होंने न केवल दुनिया का सबसे लचीला और बढ़िया संविधान बनाया, बल्कि संसद में अपने हिंदू कोड बिल (हिंदू संहिता विधेयक) के मसौदे को रोके जाने के बाद  मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। हिंदू कोड बिल द्वारा भारतीय महिलाओं को कई अधिकारों को प्रदान करने की बात कही गई थी। इस मसौदे में उत्तराधिकार, विवाह और अर्थव्यवस्था के कानूनों में लैंगिक समानता की मांगें थीं।
छह दिसम्बर, 1956 को पूरा देश शोक के सागर में डूब गया। फूलों से लदे ट्रक में पर डॉ. अंबेडकर का शरीर रखा गया। उनके सिरहाने उनके शास्ता बुद्ध की प्रतिमा रखी गई। शवयात्रा में पांच लाख से अधिक लोग अपने हृदय सम्राट को अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए शामिल हुए थे। इनमें से एक लाख महिला और पुरुषों ने अपने महान नेता की इच्छापूर्ति में इसी अवसर पर बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। बौद्ध धर्म के महान भिक्षु आनंद कौसल्यायन ने उन्हें देश का महान सेवक बताया। दाह संस्कार के बाद आधी रात तक भी हजारों लोग अपने घरों को न जाकर वहीं बैठे रहे।

लक्ष्मी भारती


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