मीडिया : चुनाव और सोशल मीडिया
कहते हैं कि विपक्ष के एक बड़े नेता को इस बार कुछ ‘यूट्यूबर्स’ ने ‘मरवा’ दिया। उनके चहेते ‘यूट्यूबर्स’ ने उनको आखिर तक भरमाए रखा कि वे जीत रहे हैं और जब हारे तो हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ने लगे।
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कहते हैं कि उन्होंने सोशल मीडिया खासकर यूट्यूबर्स पर पैसे खर्च किए कि वे उनके पक्ष में माहौल बनाते रहें और उनको जीतता दिखाते रहें। और ऐसा दिखा भी और यहीं गलती हुई। ऐसे कई नेता समझ नहीं पाए कि सोशल मीडिया मुख्य मीडिया से भिन्न मिजाज का है। वह पर्सनल सी दुनिया रचता है। न वहां संपादक है, न कोई छलनी है जो ‘सार’ को गहे और ‘थोथे’ को उड़ा दे। वह मिजाज से ‘सब्जेक्टिव’ है, ‘ऑब्जेक्टिव’ नहीं। इसलिए उसका यथार्थ, ‘यथार्थ’ कम ‘मेनीपुलेटेड’ यानी ‘हेराफेरी से बनाया गया यथार्थ’ अधिक है। मीडिया-मोहित होने के कारण कई नेताओं ने मान लिया कि जब हर वक्त मोदी ‘मीडिया’ में रहते हैं, तो हम भी रहेंगे और इस तरह हम भी जीत जाएंगे। मान लिया कि यूट्यूबर्स का सच ही अंतिम सच है। अगर वो उनको जिता रहे हैं, तो वे निश्चय ही जीत रहे हैं।
शायद इसी वजह से पहली बार हमें कई ऐसे नेता दिखे जो चुनाव से पहले ही अपने को जीता हुआ मानते रहे : वे एक मनमाफिक संसार रचते और कहते रहे कि अब यूपी वाले बाबा जी तो गए। जनता ने मन बना लिया है। इस बार वो इनको उसी आश्रम में पहुंचा देगी जहां से आए हैं। मुख्यधारा का मीडिया भी सोशल मीडिया की छाया में काम करने लगा है, इसलिए मुख्यधारा के मीडिया पर भी सोशल मीडिया का असर पड़ा। विपक्ष की ‘सोशल मीडिया सेना’ चिल्लाती रही कि इतनी महंगाई है, बेरोजगारी है, किसान आंदोलन के शहीदों की आहें हैं, हाथरस व लखीमपुर खीरी की घटनाएं हैं, इसलिए लोग भाजपा की सरकार से नाराज हैं। मुख्यधारा का मीडिया भी उसकी देखा-देखी कहता रहा कि लोग वाकई नाराज हैं। कहने की जरूरत नहीं कि विपक्षी नेताओं ने अपनी निजी ‘नाराजगी’ को ही ‘लोगों की नाराजगी’ की तरह दिखाया और सब उसी पर यकीन करके चलते रहे।
वे नहीं समझ सके कि सोशल मीडिया का मिजाज ‘ऑब्जेक्टिव’ या ‘यथार्थवादी’ नहीं, बल्कि निरा ‘सब्जेक्टिव’ और ‘अतिरेकवादी’ और ‘एकतरफावादी’ है। सोशल मीडिया के इसी विशेष मिजाज ने नेताओं को ‘मारा’। इस मानी में इस बार यूपी में सिर्फ विपक्ष ही नहीं हारा, मीडिया भी हारा है। पंजाब में भी लगभग ऐसा ही हुआ। वहां भी सत्ता पक्ष, जो अपने सोशल मीडिया के ‘बुलबुले’ में बंद था, हारा और ‘लाभार्थीवादी’ विपक्ष जीता।
हमें बहसों को याद करें : मीडिया में बहस करने वाले जातिवादी समीकरण बिठाते रहे, धार्मिक समीकरण बिठाते रहे, बताते रहे कि एक जाति वाले अपनी जाति को ही वोट देते हैं, एक धर्म वाले अपने धर्म को ही वोट देंते हैं लेकिन न ऐसा हुआ, न हो सकता है। चुनाव के आखिरी वक्त तक विपक्ष के न तो किसी कार्यकर्ता ने और न ही बुद्धिजीवी ने माना कि भाजपा पिछले पांच बरसों में भाड़ तो झोंकती नहीं रही होगी। उसने भी अपने फायदे के लिए कुछ किया होगा। और अब सब जानते हैं कि भाजपा की सरकार ने पांच बरसों में नया ‘लाभार्थी वर्ग’ बनाया जिसे लोगों की जाति-धर्म देखकर नहीं बनाया, बल्कि उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति को चिह्नित करके बनाया और उन तक दर्जनों लाभकारी योजनाओं का लाभ सीधे पहुंचाया। न जाति देखी, न धर्म देखा। सब कुछ आर्थिक आधार से तय किया गया। इस तरह सत्ता ने पांच साल में एक नया लाभार्थी वर्ग बनाया। इसी ने भाजपा को फिर से जिताया।
यही बात पंजाब में हुई। ‘आप’ के मॉडल ने दिल्ली में पहले ‘लाभार्थी वर्ग’ बनाया जिसे पंजाब के लोगों ने स्वीकार किया। राजनीति में यह नया ‘प्रस्थापना परिवर्तन’ है। ‘गरीबी हटाओ’ से अलग लाभ पहुंचाने की कुशलता का खेल। इसी ने नया लाभार्थी वर्ग बनाया जिसे सोशल मीडिया के विपक्षी खिलाड़ी न देख सके, न विपक्षी नेता पहचान सके। सोशल मीडिया की अपनी मनमाफिक बनाई दुनिया को सच समझ कर लोग किसी बिगड़ैल बच्चे की तरह मानने लगते हैं कि जो वे चाह रहे हैं, वो उनका हक है, उनको मिलना चाहिए और जब नहीं मिलता तो वे जिद्दी बच्चे की तरह इस-उस पर अपना गुस्सा निकालते हैं। अपने यहां कई ऐसा नेता/नेत्री हैं, जिनका आचरण एकदम जिद्दी बच्चों की तरह का नजर आता है। ये सब ‘सोशल मीडिया’ के जादू के मारे लोग हैं, जहां जरा सी ‘आत्मालोचना’ संभव नहीं।
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