महाशिवरात्रि : उपासना व साधना का श्रेष्ठ पर्व

Last Updated 01 Mar 2022 12:06:56 AM IST

भगवान शिव को किसी सांचे में ढालकर उसकी महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता। सनातन संस्कृति के संदर्भ में सदाशिव की उपासना पौराणिक काल से मानी जाती है।


महाशिवरात्रि : उपासना व साधना का श्रेष्ठ पर्व

महाभारत के द्रोण पर्व से ज्ञात होता है कि योगेर कृष्ण के परामर्श से अर्जुन ने पाशुपत अस्त्र प्राप्त करने के लिए हिमालय पर जाकर शिव की आराधना की थी। महाशिवरात्रि देवों के देव महादेव की उपासना एवं साधना का श्रेष्ठ पर्व है।
असलियत में, वसंत ऋतु में आने वाली महाशिवरात्रि का आध्यात्मिक माहात्म्य इस वजह से भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है कि इस रात उत्तरी गोलार्ध में चंद्रमा सहित तमाम ग्रह इस प्रकार अवस्थित होते हैं कि उनका चुंबकीय आकषर्ण पृथ्वी की उस सतह पर प्रभाव डालता है, जो हिस्सा उनके लंबवत संपर्क में होता है, फलस्वरूप मनुष्य के अस्तित्व की ऊर्जा का मूसलाधार चक्र से मस्तिष्क की ओर उध्र्वगमन प्राकृतिक रूप से होता है, यानी हमारे शरीर के रक्त का प्रवाह नैसर्गिक तरीके से मस्तिष्क की ओर बढ़ जाता है, फलस्वरूप हमारी सुषुम्ना नाड़ी सक्रिय हो जाती है। जब ऊर्जा सुष्मना नाड़ी में प्रवेश करती है, व्यक्तिका जीवन तभी अर्थपूर्ण व संतुलित बनता है।  सदाशिव को इसलिए आदियोगी कहा गया है, क्योंकि उन्होंने प्राणिक ऊर्जा को सुषुम्ना नाड़ी से प्रवाहित करते हुए सहसार चक्र में स्थापित करके अपनी कुंडलिनी को जागृत किया और लोककल्याण के लिए कालकूट पीकर नीलकंठ भगवान आशुतोष कहलाए। भगवान शिव आदिशक्ति मां पार्वती के बिना अर्थहीन हैं। इसलिए उनका एक नाम अर्धनारीर भी है। शिव ने अपने आधे हिस्से का परित्याग कर उसमें मां पार्वती को समाहित और समायोजित कर लिया। दरअसल, यह एक शात प्रतीक का परिचायक है कि मनुष्य के समग्र अस्तित्व में पुरु षत्व और स्त्रीत्व समानुपातिक अंश में मौजूद है। अभिप्राय है कि जब आंतरिक पुरु षत्व और स्त्रैण अस्तित्वगत होकर एक हो जाते हैं तो परमानंद की दिव्य अनुभूति होती है।

शिवरात्रि लिंगभेद से ऊपर उठकर नारी-शक्ति के आदर और संसार में महिला सशक्तिकरण की महत्ता को स्वीकार करने का श्रद्धापर्व है। आमतौर पर मुहावरेदार भाषा में कहा जाता है कि 21वीं सदी के इस दौर में स्त्री-पुरुष कंधे से कंधा मिलाकर कार्य कर रहे हैं, किंतु आज देश, समाज और परिवेश में अबोध बालिकाएं, नव युवतियां व वृद्ध महिलाएं तक पुरु षों की अमर्यादित और अश्लील टिप्पणी व कुदृष्टि का शिकार बनती हैं। महाशिवरात्रि एक ऐसे मर्यादित पौरु ष और परम कल्याणकारक शिवत्व के अनुशीलन का उत्सव है जो लिंगभेद वह पुरुषवादी मानसिकता के वर्चस्व का प्रतिरोध करें, जो तेजी से बदलते परिवेश में नारी शक्ति का सम्मान करें, और शिव के परिवार के सदस्यों की भांति परस्पर विपरीत धाराएं होने के बाद भी अपने समाज में शांति और मर्यादा बनाए रखें। दरअसल, जगत का कल्याण करने वाले भगवान आशुतोष ‘सत्यम, शिव और सुंदरम’ के शात प्रतीक माने जाते हैं। भगवान आशुतोष के कल्याणसुंदरम स्वरूप को ही ‘शिवत्व’ कहा गया है। आदियोगी का यह शिवत्व स्वरूप ही मनुष्य के अस्तित्व की ऊर्जा के सृजनात्मक रूपांतरण का सूचक है। इस कल्याणसुंदरम स्वरूप के आध्यात्मिक रहस्यों  की अनुभूति का श्रेष्ठतम पर्व है-महाशिवरात्रि। वस्तुत: महाशिवरात्रि की महत्ता फलीभूत तब होती है, जब इस पर्व के ‘शिव तत्व’ को हृदय से विस्मृत न किया जाए, ‘शिव’ का अर्थ ही परोपकारी है। दरअसल, शिवरात्रि को एक प्रतिकात्मक वह परंपरागत पर्व की भांति नहीं, बल्कि त्रिगुणात्मक प्रकृति के स्वरूप से अपने अस्तित्व को जोड़ने के सुअवसर की तरह समझना चाहिए। शांत मुद्रा में खड़े भगवान शिव के हाथ में जो त्रिशूल है, वह किसी का संहार करने वाला हथियार नहीं है।
असलियत में, त्रिशूल प्रतीक है आध्यात्मिक जीवन के तीन मूल आयामों-इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाड़ी को साधने का। गौरतलब है कि मानव-शरीर में प्राणिक ऊर्जा के केवल यही तीन मूलस्रोत हैं, जिनसे प्राणवायु का संपूर्ण शरीर में संचार होता है। आमतौर पर साधारण व्यक्ति इड़ा और पिंगला ऊर्जा के स्तर पर ही जीवन-यापन करते हुए अपनी उम्र गुजार देता है। इसी वजह से उसके जीवन में आध्यात्मिक-महात्म्य का प्रकटीकरण नहीं होता। परिणामस्वरूप उसके जीवन में ज्ञान रूपी अध्यात्म से जो आनंद की बरसात होनी थी, वह नहीं हो पाती। इससे उसका व्यक्तित्व भी सदैव असंतुष्ट और असंतुलित दिखाई देता है। दरअसल, इड़ा, पिंगला नाड़ी के साथ-साथ सुषुम्ना नाड़ी का आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में विशेष महत्त्व है। सुषुम्ना यानी सरस्वती नाड़ी मानव शरीर-तंत्र का सबसे खास पहलू है। जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, मनुष्य का जीवन तभी अर्थपूर्ण वह संतुलित बनता है। महाशिवरात्रि इसीलिए एक विशिष्ट रात्रि मानी जाती है, क्योंकि इस रात्रि-विशेष में की गई साधना स्वयं के उत्थान के साथ-साथ लोक-कल्याण के लिए भी फलदायी होती है। महाशिवरात्रि सदाशिव की आराधना का पर्व होने के साथ-साथ एक ऐसा आध्यात्मिक सुअवसर है, जो व्यक्ति को उसकी साधना के शिखर तक जाने में मदद करता है।

डॉ. विनोद यादव


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