सामाजिक न्याय : पुरोधाओं का हाल
बीती पंद्रह फरवरी को चारा घोटाला से संबंधित पांचवे मामले में सीबीआई की विशेष अदालत ने फैसला सुनाया।
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इसकी अपेक्षा पहले से की जा रही थी कि लालू प्रसाद एक बार फिर से दोषी करार दिए जाएंगे। उनके साथ 74 अन्य आरोपियों को अदालत ने दोषी और 25 आरोपियों को निर्दोष माना। मंगलवार को लालू प्रसाद समेत सभी आरोपियों को अदालत में सशरीर उपस्थित होने का आदेश दिया गया था। दोषी करार देने के बाद अदालत ने सजा की घोषणा 21 फरवरी को करने की बात कही। इसके बाद स्वास्थ्य कारणों से जमानत पर चल रहे लालू प्रसाद को पुलिस हिरासत में ले लिया गया और बिरसा मुंडा जेल भेज दिया गया।
साफ हो गया है कि संसद में अब उनकी वापसी नहीं होगी। हालांकि हाल ही में उन्होंने राजद की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान अपने बयान में कहा था कि संसद में लौटेंगे और अभी चुके नहीं हैं। दरअसल, एक ही तरह के मामले में अलग-अलग सजा संबंधी सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद लालू प्रसाद की प्रत्यक्ष संसदीय पारी का अंत हो चुका है। इसके बावजूद कि वे पूर्व के चार मामलों में सीबीआई कोर्ट के फैसलों के खिलाफ रांची हाई कोर्ट में अपील कर चुके हैं, और पांचवें मामले में भी अपील करेंगे। जाहिर तौर पर अदालतों में लालू प्रसाद की लड़ाई जारी रहेगी और एक तरह से राजनीति में भी उनका हस्तक्षेप बना रहेगा। लेकिन संसदीय राजनीतिक पारी के खात्मे का असर अब तक दूरगामी साबित हुआ है। नतीजा यह हुआ है कि सामाजिक न्याय पर हमले बढ़े हैं, और कहना अतिशयोक्ति नहीं कि लालू प्रसाद की मौजूदगी संसद में होती तो फिर वह मामला चाहे सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोर वगरे के लिए दस फीसदी आरक्षण का होता या फिर पदोन्नति में आरक्षण का, लालू प्रसाद महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते। लालू प्रसाद की पकड़ कमजोर होने का एक असर यह भी है कि आज देश में सांप्रदायिक राजनीति उफान मार रही है। यहां तक कि उनके अपने राज्य बिहार में भी सांप्रदायिक ताकतें रह-रहकर सिर उठा रही हैं। हाल में मुजफ्फरपुर में अल्पसंख्यक समाज के एक व्यक्ति को तब तक मारा-पीटा गया जब तक कि वह अचेत नहीं हो गया। इस आरोप में कि अपनी टेम्पो में विशेष मांस की ढुलाई कर रहा था। बिहार पुलिस की आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार एक आंकड़ा यह भी है कि 2015-21 के दौरान सूबे में दंगों के 68 हजार 953 मामले दर्ज किए गए जो राबड़ी देवी हुकूमत के अंतिम कार्यकाल की तुलना में लगभग दोगुने हैं।
कहना अतिश्योक्ति नहीं कि वर्तमान में सामाजिक न्याय के तीन आधार स्तंभ ढह चुके हैं। ये तीन स्तंभ हैं-शरद यादव, लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव। 1990 के दशक में जब मंडल कमीशन की सरकारी नौकरियों में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण संबंधी अनुशंसा लागू की गई तो ये तीन राजनेता ही नायक साबित हुए थे। तीनों की संसद में मौजूदगी का ही परिणाम रहा कि संसद में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण की बात चली तो कोटा के तहत कोटा का मामला सामने आया और तत्कालीन कांग्रेसी हुकूमत द्वारा महिला आरक्षण के बहाने संसद में ऊंची जातियों के वर्चस्व को बनाए रखने का तिकड़म विफल हुआ। गौरतलब है कि शरद अब राजनीतिक रूप से अलग-थलग हो चुके हैं। नीतीश कुमार ने उन्हें लालू प्रसाद की काट के लिए अपनी पार्टी में रखा था लेकिन जैसे ही उन्हें लगा कि शरद को तवज्जो दिए जाने के बाद भी बिहार में यादव जाति के मतदाताओं का समर्थन उन्हें नहीं मिल रहा तो उन्होंने शरद को बाहर का रास्ता दिखा दिया। वहीं मुलायम, जिन्होंने आरंभिक दौर में तो चौधरी देवीलाल के कहने पर मंडल कमीशन लागू करने वाले विनाथ प्रताप सिंह की यह कहकर आलोचना की थी कि यह सब राजनीतिक फायदे के लिए किया गया है, ने सामाजिक न्याय की लड़ाई को मजबूती दी। अब वे अत्यंत वृद्ध हो चुके हैं, और संसद में उनकी प्रत्यक्ष मौजूदगी के बावजूद उनकी आवाज सुनाई नहीं देती। गौरतलब है कि लालू प्रसाद इस त्रयी में सबसे आगे रहने वाले रहे। उनकी बेबाक संवाद शैली और चुटीले प्रहारों से सत्ता पक्ष खुद को कठघरे में पाता था। उनकी गैर-मौजूदगी में उनकी अपनी पार्टी का हाल यह हुआ कि जब संसद में सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से कमजोरों के लिए दस फीसदी आरक्षण का ऐलान किया गया तब उनकी अपनी पार्टी असमंजस का शिकार हो गई। यही हालत मुलायम सिंह यादव की पार्टी की भी रही। शरद यादव तो खैर संसद में मौजूद ही नहीं थे।
दरअसल, सामाजिक न्याय की राजनीति अब दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती बेशक दिख रही है, लेकिन अभी भी अनेक सवाल शेष हैं। मसलन, यदि हम लालू प्रसाद की ही बात करें तो उनके बेटे समाज की अंतिम जमात की राजनीति खुलकर करने की बजाय ‘ए टू जेड’ की राजनीति कर रहे हैं। उनकी राजनीति लालू प्रसाद की बहुसंख्यकों के लिए राजनीति नहीं है। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव भले ही यूपी चुनाव में मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदार हैं, लेकिन बीते चार-पांच वर्षो में जिस तरह के मुखर हस्तक्षेप की अपेक्षा उनसे अंतिम जमात कर रही थी, वे उसे पूरा नहीं कर सके। दरअसल, लोहिया, जगदेव प्रसाद और कर्पूरी ठाकुर की राजनीति का यह मौजूदा स्वरूप है। बिहार में स्वयं को इन तीनों का उत्तराधिकारी बताने वाले नीतीश कुमार देश के पहले मुख्यमंत्री बने जिन्होंने ऊंची जातियों के लिए आयोग का गठन किया। लालू प्रसाद ने भी बदले माहौल में शिवानंद तिवारी जैसे नेताओं, जो चारा घोटाला मामले में शिकायतकर्ताओं में थे, को अपनी पार्टी में न केवल ऊंचा ओहदा दिया, बल्कि उनके बेटे को विधायक बनने के लिए टिकट भी दिया।
बहरहाल, सामाजिक न्याय की राजनीति लालू प्रसाद के बगैर धीरे-धीरे दम तोड़ती नजर आ रही है। इसका स्वरूप अब पहले जैसा नहीं रहा। सत्ता की राजनीति ने इन नेताओं को दरकिनार कर दिया है। लालू प्रसाद के मामले में खास यह है कि उन्हें एक दोषी के रूप में जीवन जीना पड़ रहा है जबकि मुलायम सिंह यादव स्वास्थ्य कारणों से और शरद यादव राजनीतिक रूप से ‘दरकिनार’ किए जाने के कारण निष्प्रभावी साबित हो रहे हैं। अब यह सवाल समय के गर्भ में है कि समाज के वंचित तबके की राजनीति की दिशा-दशा क्या होगी!
(लेखक फॉर्वड प्रेस, नई दिल्ली के हिंदी संपादक हैं)
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