बैंकिंग व्यवस्था : लापरवाही का खेल या मिलीभगत?

Last Updated 16 Feb 2022 01:14:02 AM IST

बैंक किसी भी देश की अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा होता है।


बैंकिंग व्यवस्था : लापरवाही का खेल या मिलीभगत?

बैंक एक ऐसी जगह है जहां आम लोग अपनी छोटी-बड़ी बचत करते हैं और भविष्य के हिसाब से योजनाएं बनाते हैं, लेकिन देश में आए दिन बैंक घोटालों के मामले सामने आते रहते हैं, ऐसे में सोचिए कि आपने अपनी कमाई से पैसा बचा कर बैंक में जमा किया हो और अचानक पता चले की आपका पैसा डूब गया।
खैर, ऐसी स्थिति बैंकिंग व्यवस्था के चरमराने की वजह से होती है। देश में बैंक धोखाधड़ी का एक और सबसे बड़ा मामला सामने आया है। यह घोटाला करीब 23 हजार करोड़ रु पये का है। इस घोटाल के लिए गुजरात के एबीजी शिपयार्ड कंपनी और उसकी सहयोगी कंपनी को जिम्मेदार ठहराया गया है। शिपयार्ड कंपनी ने देश के अलग-अलग 28 बैंकों से कारोबार के नाम पर 2012 से 2017 के बीच कुल 28,842 करोड़ रुपये का ऋण लिया था। जाहिर है, यह सब कोई अचानक या दो-चार दिनों में नहीं हुआ होगा। अहम बात यह है कि 2016 में ही बैंकों का भारी-भरकम ऋण एनपीए भी घोषित हो गया था, लेकिन देश की इस सबसे बड़ी बैंक धोखाधड़ी के खिलाफ पहली शिकायत 2019 में दर्ज कराई गई।

मालूम हो, एबीजी शिपयार्ड कंपनी सूरत में स्थित है। यह पानी के जहाजों के निर्माण समेत उनके मरम्मत का भी काम करती है। कंपनी पर आरोप है उसने व्यापार के लिए बैंकों के समूह से लोन और कई प्रकार की सुविधाएं ली और फिर इन पैसों को अपनी सहयोगी कंपनियों की मदद से दूसरे देशों में भेज दिया। जहां पर शेयर आदि खरीदे गए। इतना ही नहीं बैंकों से जिस काम के लिए लोने ली गई थी,उस पैसे का इस्तेमाल कई प्रॉपर्टीज खरीदने में भी की गई। साथ ही तमाम नियम कानून को ताक पर रखकर पैसा एक कंपनी से दूसरी कंपनी को भेजा गया। बहरहाल, बैंक धोखाधड़ी का यह पहला मामला नहीं है। इसके पहले भी कई बैंकिंग घोटाले सामने आते रहे हैं। इससे पहले नीरव मोदी ने पंजाब नेशनल बैंक को लगभग 13 हज़ार करोड़ रु पये व विजय माल्या ने नौ हजार करोड़ रुपये का चूना लगाया था। तब उसे भारत के बैंकिंग इतिहास की सबसे बड़ी धोखाधड़ी कहा गया था। हालांकि, बड़े लोन एडवांस में धोखाधड़ी करना आसान नहीं होता और फिर भी ये होते हैं क्योंकि बैंक के अधिकारी लेनदारों या कभी-कभी तीसरे पक्ष जैसे कि वकीलों या चार्टर्ड एकाउंटेंट तक के साथ सांठगांठ कर लेते हैं। गौर करने वाली बात यह है कि कुल धोखाधड़ी का 90 फीसद हिस्सा सरकार के स्वामित्व वाले बैंकों में होता है। 2013-14 के बाद से केवल पांच वर्षो में इस तरह के धोखाधड़ी के मामलों में चार से पांच गुना वृद्धि हुई है। सवाल अहम यह है कि आखिर बैंकों में धोखाधड़ी की घटनाएं इतनी क्यों बढ़ रही हैं? शोध से पता चला है कि चाहे छोटी धोखाधड़ी हो या बड़ी, दोनों ही सिस्टम की कमजोरियों का अनुचित लाभ उठाने में सक्षम रही हैं। रिजर्व बैंक के पास इस तरह की धोखाधड़ी से बचने को लेकर प्रारंभिक चेतावनी संकेत (ईडब्ल्यूएस) प्रणाली मौजूद है लेकिन जैसा कि नीरव मोदी के मामले में हुआ, बैंक हमेशा इसका फायदा नहीं उठा पाते। आरबीआईपूर्व गवर्नर उर्जित पटेल ने 2019 में स्टैनफोर्ड यूनिर्वसटिी में एक प्रेजेंटेशन के जरिए यह दिखाया था कि ज्यादातर धोखाधड़ी के मामले सरकार के स्वामित्व वाले बैंकों में जोखिम से निपटने की खराब कार्य प्रणाली प्रबंधन और अप्रभावी इंटरनल ऑडिट की वजह से होते हैं। उन्होंने बताया कि बैंक जोखिमों का बेहद कम विश्लेषण करते हैं या इसे लेकर उचित कदम नहीं उठाते हैं। यह ठीक है कि बैंकों में धोखाधड़ी की बढ़ती घटनाओं को रोकने के लिए सरकार ने व्यापक उपाय किए हैं, फिर भी धोखेबाजों को रोक पाने के लिए अपर्याप्त हैं। आरबीआई के आंकड़ों की मानें तो साल दर साल धोखाधड़ी के मामले तो बढ़ ही रहे हैं, साथ ही इस कारण होने वाला नुकसान भी बढ़ रहा है। इससे देश के बैंकों के सिर पर आर्थिक स्थायित्व कम होने का खतरा भी बढ़ रहा है। वहीं आम लोगों का भरोसाभी सरकारी बैंकों से टूट रहा है। इसके अलावा बैंकों, बैंकों के ऑडिटर्स, क्रेडिट रेटिंग संस्थाएं और बैंकों की नियामक संस्था आरबीआई के ऊपर भी ये एक बड़ा सवाल है। आखिर वे क्या वजहें रहीं कि छोटी-मोटी रकम के ऋण की वसूली में अत्यंत सजग रहने वाले बैंकों को इतनी बड़ी रकम को लेकर समय पर कोई संदेह नहीं हुआ?
किन परिस्थितियों में इतनी बड़ी रकम का घोटाला करने वाले कई सालों तक धोखाधड़ी का खेल करते रहे और समय रहते बचने के लिए विदेश भी भाग गए और संबंधित महकमों और जांच एजंसियों को पता नहीं चला? ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है। साफ है, आम आदमी 3 महीने से ज्यादा यदि लोन का डिफाल्ट करता है तो बैंक उसे कुर्की की धमकी तक दे डालता है और यहां पर कंपनी द्वारा 22,842 करोड़ रु पये का डिफाल्ट किया गया और बैंकों द्वारा न केवल इस खाते को नियमित करने की कोशिश की गई बल्कि कार्रवाई करने में 9 साल देकर कंपनी और निदेशकों की पूरी मदद की गई कि वे पैसे पूरी तरह डुबो सकें। सफेदी की तरह साफ दिखने वाले डिफाल्ट पर इतना समय लगना बैंकों के प्रबंधन की तो अक्षमता दर्शाता है, साथ ही नियामक आरबीआई और वित्त मंत्रालय पर भी शक की सुई उठती है कि आखिर सालों से ये क्यों चुप रहे?

रविशंकर


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment