सरोकार : काश! मुस्कान थोड़ा और मुखर होती

Last Updated 13 Feb 2022 12:15:40 AM IST

कर्नाटक के छोटे से जिले उडुपी की मुस्कान राष्ट्रीय फलक पर विमर्श का मुद्दा बन चुकी हैं।


सरोकार : काश! मुस्कान थोड़ा और मुखर होती

उसने जिस हिजाब मुद्दे को जन्म दिया उसकी जम्मू,अलीगढ़, दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र और हरियाणा तक पहुंच चुकी है। इसी उडुपी में पिछले साल दिसम्बर में भी छात्रों द्वारा हिजाब पहनने के बाद अन्य समूह के छात्रों द्वारा भगवा स्कार्फ  पहनने पर विवाद बढ़ा था।
भारत बहुसांस्कृतिक, बहुधर्मी और बहुभाषी देश है। धर्मनिरपेक्षता की इसकी रगों में है। मजहबी पहचान को इसने कभी अंगीकार नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट ने भी बीते दिनों पुष्टि की कि प्रत्येक नागरिक के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने को लेकर प्रतिबद्ध है। जाहिर है कि मौजूदा मामले में कानूनी दखल बेहतर और सर्वसम्मत निर्णय लेकर आएगा जिसका हर किसी को इंतजार है। लेकिन इसे मजहबी कट्टरता या अनुच्छेद 25 के नागरिक अधिकारों से इतर महिलाओं के परिधानों की व्यवहारपरकता के चश्मे से देखना भी लाजिमी होगा। महिलाओं को बचपन से ही ताकीद की जाती है कि पतली कमर रखना नारी सुलभ कर्त्तव्य है, सहनशीलता स्त्रीत्व का जरूरी गुण है, आकषर्क स्त्रियोचित दिखने के लिए उनका पारंपरिक बने रहना आवश्यक है। इसके लिए शारीरिक कष्ट या यातना भोगना मामूली बात है। जाहिर है कि हिजाब या बुर्के में भी स्त्रियों को कुछ ऐसी ही अनुभूति होती होगी जो कभी सार्वजनिक विमर्श का मुद्दा नहीं बना। अक्सर पहनावे और खूबसूरती की परिभाषा समाज की प्रभावशाली संस्कृति और रवैये से तय होती है। लेकिन समय के साथ इन रवैयों में बदलाव भी आते हैं। परिवर्तन की जरूरत के अहसास ने बोझिल परिधानों को बदला है। पहनावे में बदलाव का इतिहास जहां सांस्कृतिक रुचि और सौंदर्य की परिभाषा में बदलाव से जुड़ा है वहीं आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक-राजनीतिक संघर्ष के मसलों से भी उलझा हुआ है।

खैर, इन सबसे इतर महत्त्वपूर्ण यह है कि शिक्षण संस्थानों में धर्म और मजहब की दीवारें न खड़ी की जाएं। शिक्षालय उनके व्यक्तित्व विकास को पुष्पित-पल्लवित करने के पावन स्थान हैं। इन्हें धर्म की आड़ में बेरंग किया गया तो आने वाली नस्लें हमें माफ नहीं करेंगी। देश में न्यायपालिका अपने कर्त्तव्य का निर्वहन कर रही है। यह दायित्व उसी पर छोड़ा जाए।
कहते हैं कि सादे, सरल और शालीन परिधान व्यक्तित्व को  निखारते और विकसित करते हैं। मुस्कान जैसी लड़कियों को नजीर बनना होगा। कट्टरता और धर्मभिरूता की बजाय वक्त के साथ बदलना होगा। बदलाव की पैरोकारी मुस्कान के व्यक्तित्व को नया आयाम दे सकती थी। मजहबी नारे की बजाय राष्ट्र की आवाज उसके व्यक्तित्व को अनुकरणीय और सराहनीय बना सकती थी। शिक्षा और शिक्षार्थी कौमी और मजहबी भेदभाव से कहीं ऊपर है। इन पर दाग न लगने पाए। इसका ख्याल रखना होगा। परंपराएं और रूढ़ियां असहजता पैदा करती हों तो उनका परिहार कर दिया जाना चाहिए। अब वक्त आ गया है कि बदलते वक्त के साथ बदलते परिधानों को भी जगह दिया जाए। अगर स्कूलों में वर्दी कोड लागू है, तो उनका अनुपालन भी सुनिश्चित किया जाए। परवर्तन प्रकृति का नियम है। इसके विपरीत चलना पतनकारी हो सकता है। इसलिए आस्था, पद्धति, पूजा, इबादत और प्रार्थना को चोट पहुंचाए बिना कुछ बदल रहा है, तो उसे बेधड़क बदलने दें। कुछ अच्छे के लिए बदलना हमेशा अच्छा होता है। उससे गुरेज कैसा!

डॉ. दर्शनी प्रिय


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