सामयिक : बेरोजगार युवा और सरकारी तंत्र
पिछले दिनों बिहार और उत्तर प्रदेश में युवकों द्वारा रेलवे भर्ती बोर्ड की नॉन टेक्निकल पॉपुलर कैटेगरी (आरआरबी-एनटीपीसी) परीक्षा प्रक्रिया में कथित अनियमितताओं को लेकर उग्र प्रदर्शन किए गए।
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सरकार ने रेल रोकने से लेकर रेल में आग लगाने जैसे प्रदर्शन की न सिर्फ ¨नदा की है, बल्कि छात्रों पर बर्बरता से लाठियां भी चलाई। सोशल मीडिया पर इस लाठीचार्ज के वीडियो भी खूब वायरल हुए। इस बवाल के बाद से विपक्ष इस मामले को लेकर एकजुट होता दिखाई दिया और न सिफऱ् छात्रों के समर्थन में उतरा, बल्कि उसनके केंद्र सरकार पर भी जमकर हमला बोला।
इसी दौरान बिहार के एक छात्र ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में कुछ बुनियादी सवाल उठाए हैं। चुनावों के मौसम में इन सवालों से केंद्र सरकार को काफी दिक्कत आ सकती है। आज के दौर में अगर ‘मेनस्ट्रीम मीडिया’ किन्हीं कारणों से ऐसे सवालों को जनता तक नहीं पहुंचाता है, तो इसका मतलब यह नहीं है कि जनता तक वह सवाल पहुंच नहीं पाएंगे। सोशल मीडिया पर यह इंटरव्यू काफी देखा जा रहा है।
इस वीडियो में छात्र रेल मंत्री अिनी वैष्णव के एक बयान का जिक्र करते हुए दिखाई दे रहा है, जिसमें वो कहते हैं कि 1.27 करोड़ छात्रों ने भर्ती के लिए आवेदन दिए हैं, तो परीक्षा कैसे हो सकती है? इंटरव्यू के दौरान छात्र ने एक ऐसी बात कह दी जो सभी युवकों को छू गई। उस छात्र ने कहा, ‘परीक्षा की तैयारी के दिनों में कभी-कभी ऐसा भी हुआ जब घर से पैसा समय पे नहीं आता था तो हम लोग गर्म पानी पी कर सो जाते थे। अगर छात्र इतनी कठिन परिस्थितियों में रह कर नौकरी पाने की उम्मीद में परीक्षा की तैयारी कर रहे थे, और जब परीक्षा में धांधली की खबर मिलती है तो छात्र क्या करें? कैसे अपने ग़ुस्से को रोकें? सरकार को क्यों न कोसें?’ छात्रों के उग्र होने के सवाल पर छात्रों ने बताया कि 14 जनवरी को आए नतीजों का 10 दिनों तक विभिन्न डिजिटल माध्यमों से लगभग एक करोड़ बार विरोध किया गया। जब सरकार के पास कोई जवाब नहीं बचा तो डिजिटल विरोध के ‘हैश-टैग’ को बैन कर दिया गया। इसके बाद छात्र सड़कों पर उतरे और निहत्थे छात्रों पर सरकारी तंत्र ने लाठियां भांजीं। किसान आंदोलन के बाद सरकार को सोचना चाहिए कि छात्रों की मांग को देखते हुए उनके प्रतिनिधि से बात कर कोई हाल जरूर निकाला जा सकता था। अगर युवाओं को सरकारी नौकरी मिलने की भी उम्मीद नहीं होगी तो हार कर उन्हें निजी क्षेत्र में जाना पड़ेगा और निजी क्षेत्र की मनमानी का सामना करना पड़ेगा।
उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया के देशों में अनौपचारिक रोजगार के मामले में भारत सबसे ऊपर है। जिसका मतलब हुआ कि हमारे देश में करोड़ों मजदूर कम मजदूरी पर बेहद मुश्किल हालात में काम करने पर मजबूर हैं, जहां इन्हें अपने बुनियादी हक भी प्राप्त नहीं हैं। इन्हें नौकरी देने वाले जब चाहे रखें, जब चाहें निकाल दें क्योंकि इनका ट्रेड यूनियनों में भी कोई प्रतिनिधित्व नहीं होता। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार भारत में 53.5 करोड़ मजदूरों में से 39.8 करोड़ मजदूर अत्यंत दयनीय अवस्था में काम करते हैं, जिनकी दैनिक आमदनी 200 रुपये से भी कम होती है। इसलिए मोदी सरकार के सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं। पहली, शहरों में रोजगार के अवसर कैसे बढ़ाए जाएं? क्योंकि पिछले सात वर्षो में बेरोजगारी का फीसदी लगातार बढ़ता गया है; और दूसरा, शहरी मजदूरों की आमदनी कैसे बढ़ाएं, जिससे उन्हें अमानवीय स्थिति से बाहर निकाला जा सके।
इसके लिए तीन काम करने होंगे। भारत में शहरीकरण का विस्तार देखते हुए शहरी रोजगार बढ़ाने के लिए स्थानीय सरकारों के साथ समन्वय करके नीतियां बनानी होंगी। इससे यह लाभ भी होगा कि शहरीकरण से जो बेतरतीब विकास और गंदी बस्तियों का सृजन होता है, उसको रोका जा सकेगा। इसके लिए स्थानीय शासन को अधिक संसाधन देने होंगे। दूसरा, स्थानीय स्तर पर रोजगार सृजन करने वाली विकासात्मक नीतियां लागू करनी होंगी। तीसरा, शहरी मूलभूत ढांचे पर ध्यान देना होगा जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था भी सुधरे। चौथा, देखा यह गया है कि विकास के लिए आवंटित धन का लाभ शहरी मजदूरों तक कभी नहीं पहुंच पाता और ऊपर के लोगों में अटक कर रह जाता है। इसलिए नगर पालिकाओं में विकास के नाम पर खरीदी जा रही भारी मशीनों की जगह अगर मानव श्रम आधारित शहरीकरण को प्रोत्साहित किया जाएगा तो शहरों में रोजगार बढ़ेगा। पांचवा, शहरी रोजगार योजनाओं का स्वास्थ्य और सफाई जैसे क्षेत्र में तेजी से विकास करके बढ़ाया जा सकता है क्योंकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आज यह हालत नहीं है कि प्रवासी मजदूरों को रोजगार दे सके। अगर होती तो वे गांव छोड़ कर शहर नहीं गए होते।
मौजूदा हालात में यह सोचना कि पढ़े-लिखे युवाओं के लिए एक ऐसी योजना लानी पड़ेगी जिससे इनको भी रोजगार मिल जाए। पर ऐसा करने से करोड़ों बेरोजगारों का एक छोटा सा अंश ही संभल पाएगा। जबकि बेरोजगारों में ज्यादा तादाद उन नौजवानों की है, जो आज देश में बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर भी बेरोजगार हैं। इससे उनका आक्रोश बढ़ चुका है। कुछ वर्ष पहले सोशल मीडिया पर एक व्यापक अभियान चला कर बेरोजगार नौजवानों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जन्मदिवस को ही ‘बेरोजगारी दिवस’ के रूप में मनाया था। उस समय इसी कॉलम में मैंने कहा था कि यह खतरनाक शुरुआत है, जिसे केवल वायदों से नहीं, बल्कि बड़ी संख्या में शिक्षित रोजगार उपलब्ध कराकर ही रोका जा सकता है। नरेन्द्र मोदी ने 2014 के अपने चुनाव अभियान के दौरान प्रति वर्ष 2 करोड़ नये रोजगार सृजन का अपना वादा निभाया होता तो आज ये हालात पैदा न होते जिसमें देश के रेल मंत्री को ही मानना पड़ा कि पिछली सरकार के मुकाबले इस सरकार में ज्यादा फार्म भरे गए।
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