बजट : सिक केयर नहीं, हेल्थ केयर की दरकार
डब्ल्यूएचओ जैसी संस्थाओं के अनुसार मधुमेह, अस्थमा, कैंसर आदि जैसी हर बीमारी अब लगभग 10-12% लोगों को हो रही है।
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हालांकि जानकार बताते हैं कि जमीनी स्तर पर यह संख्या थोड़ी अधिक ही प्रतीत होती है। इनमें से कोई भी रोग संक्रामक नहीं है, तब भी यदि हर एक बीमारी 10-12% लोगों को हो रही है तो कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि असंक्रामक रोगों की महामारियों का पहाड़ हम सबके सामने है। हम कोरोना महामारी की इतनी अधिक विवेचना तो कर रहे हैं, लेकिन पहले से इतनी महामारियां हैं, जिनके बारे में हम संभवत: उतने सजग नहीं हैं। और ये वही बीमारियां हैं, जिनको कोरोना के संदर्भ में सह-रु ग्णता या को-मॉर्बिडिटी बताया जा रहा है अर्थात यदि ये बीमारियां इतनी बड़ी संख्या में पहले से हमें ग्रसित नहीं किए रहतीं तब कोरोना इतना भयावह रूप नहीं ले पाता।
मधुमेह को ही देखें तो भारत में किए गए अध्ययनों का अनुमान है कि कम आय वाले भारतीय परिवार में एक वयस्क को मधुमेह हो तो परिवार की आय का 20 प्रतिशत तक मधुमेह की केवल बुनियादी देखभाल के लिए समर्पित हो सकता है। वहीं यदि परिवार में कोई शिशु मधुमेह से पीड़ित हो तो परिवार की आय का 35 प्रतिशत तक मधुमेह देखभाल पर व्यय किया जाता है। और यह मात्र बुनियादी देखभाल का व्यय है। डाइबीटीज से जुड़ी अन्य समस्याएं हृदय, नेत्र, तंत्रिका तंत्र आदि संबंधी बीमारियों का आर्थिक भार अलग। डाइबीटीज से पीड़ित होने के कारण जो हमें काम से छुट्टी लेनी होती है, या लोगों के प्राण भी चले जाते हैं, उसका आर्थिक भार भी अलग रहता है।
ध्यान रहे कि यह मात्र एक ही बीमारी का आर्थिक भार है। यदि कैंसर जैसी कोई और जटिल बीमारी हो तो उसका आर्थिक भार कहीं अधिक हो जाता है। इन बीमारियों के उपचार के लिए जितना हम व्यय करते हैं, उससे हमारे आर्थिक मापदंड जीडीपी में बढ़त ही होती है। इसलिए ये बीमारियां होने पर हमारा आर्थिक मापदंड बताता है कि हम आर्थिक रूप से दृढ़ हो रहे हैं, लेकिन वास्तव में ये बीमारियां किसी भी परिवार की आर्थिक स्थिति को बहुत ही अधिक क्षीण कर देती हैं। ये सभी ऐसी बीमारियां हैं, जिनका उपचार जीवन भर ही होता है और समय के साथ दूसरी बीमारियां भी होने लगती हैं। आज औसतन किसी भी परिवार की आय का बड़ा भाग बीमारियों के उपचार में व्यय हो रहा है। मानो एक चक्रव्यूह की तरह हो गया है, जिसमें हम फंसते जा रहे हैं। इस व्यय को हम ‘हेल्थकेयर’ का नाम देते हैं जबकि वास्तव में यह ‘सिककेयर’ है। यह व्यय स्वास्थ्य पर नहीं, बल्कि अस्वास्थ्यता पर है। इस अंतर को समझना होगा। जहां अस्वस्थ होने पर उपचार करवाना आवश्यक है, वहीं यह समझना भी आवश्यक है कि हम अपना स्वास्थ्य खोते जा रहे हैं, और स्वास्थ्य बनाए रखना आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य भी है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। इसलिए हम शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य भी खो रहे हैं। शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के पतन से आध्यात्मिक स्वास्थ्य भी प्रभावित हो रहा है। परिणामस्वरूप में पारिवारिक, सामाजिक और वैश्विक स्वास्थ्य में भी कमी आ रही है। दुर्भाग्यवश कोई भी आधुनिक मापदंड इस पतन को बहुत अच्छी तरह से सामने नहीं रख पाता। यहां तक कि इसके विपरीत जीडीपी आदि की वृद्धि से विकास का ही आभास करवाता है। इसे परिप्रेक्ष्य में रखकर देखें तो यह समझना समय की मांग है कि सिक केयर के साथ हमें हेल्थ केयर पर भी ध्यान देना होगा। हम सभी पंचभूतों से बने हैं। उतने ही स्वस्थ हैं, जितने स्वस्थ हमारे पंचभूत हैं। मिट्टी, जल, वायु के स्वास्थ्य में ही हमारा स्वास्थ्य निहित है। हमारे भोजन का बीज हमारे स्वास्थ्य का आधार है। हम पीढ़ियों से जिस भोजन का सेवन करते आए हैं, जिस जीवनशैली को जीते आए हैं, वह आज विलुप्त प्राय: है। चाहे हमारे पारंपरिक अनाज जैसे कांगनी, हरी कांगनी, सांवा, कोदो, समा, रागी, जोवार, बाजरा आदि हों या हमारे पारंपरिक नमक जैसे सेंधा नमक आदि। या फिर हमारे पारंपरिक तिलहन जैसे तिल, सरसों, नारियल, मूंगफली आदि। तेल निकालने का कोल्हू हो या ताड़, खजूर, नारियल आदि का गुड़। जीवनशैली भी अब प्राय: शारीरिक परिश्रमविहीन है।
प्राकृतिक चीजों से स्वच्छता रखने की जगह अब हम अत्यंत हानिकारक रसायनों से अपने दांत, बाल, शरीर आदि को स्वच्छ रखने में विास रखते हैं। यहां भी देखा जाए तो इन सब तथाकथित आधुनिक भोजन और जीवनशैली में उपयोग में लाई जाने वाली चीजों पर हम जो व्यय करते हैं, उससे आर्थिक मापदंड में वृद्धि होती है, और स्वाभाविक है कि हमें प्रतीत होता है कि हम विकास कर रहे हैं। लेकिन हम अपना स्वास्थ्य खोते जा रहे हैं, यह समझना कठिन हो जाता है। कोरोना के पहले से जो अनेक महामारियां हमें ग्रसित किए हुए थीं, उन्हीं के कारण हमारे अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लग रहा है। ‘सिककेयर’ एक सीमा तक हमारी जान की रक्षा कर पाएगा लेकिन जब तक हम स्वयं स्वस्थ नहीं होंगे, ‘सिककेयर’ हमारे अस्तित्व की रक्षा नहीं कर पाएगा। प्रचार-प्रसार के अधीन होकर जिस भोजन और जीवनशैली को हम अपनाते जा रहे हैं, उसमें आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। यही पविर्तन वास्तविक ‘हेल्थकेयर’ होगा।
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