विस चुनाव : दलितों के हाथ में सत्ता की चाबी
देश के पांच राज्यों में 690 सीटों पर मतदाता 10 फरवरी से 7 मार्च के बीच अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए मतदान करेंगे।
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इन सीटों में 133 सीटें दलित समुदाय से हैं। अगर कहा जाए कि 2022 में पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सरकार किसकी बनेगी-यह दलित तय करने वाले हैं, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हालांकि मणिपुर और गोवा में दलित ऐसी स्थिति में नहीं हैं।
पंजाब में दलित आबादी 34 फीसदी है। दलितों में 57 फीसदी सिख हैं, 32 फीसदी हिंदू। दो फीसदी दलित मुसलमान हैं, और एक फीसदी दलित ईसाई भी। अभी ज्यादातर दलित सीटें कांग्रेस के पास हैं। शिरोमणि अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं, और इसलिए सबकी नजर इस बात पर है कि यह गठबंधन कितना प्रभावशाली होकर उभरेगा। दलित वोटरों के रु ख को समझने के लिए थोड़ा अतीत में जाएं तो दलितों को संगठित करने का काम 80 और 90 के दशक में कांशीराम ने किया था। 1992 में बीएसपी को 9 सीटों पर सफलता मिली थी और पार्टी ने 16.32 प्रतिशत वोट हासिल किए थे।
हालांकि उसके बाद इतनी बड़ी सफलता बीएसपी दोहरा न सकी। 1997 में 7.48 फीसदी वोट बीएसपी को मिले। 2012 में 4.29 फीसदी वोट मिले। 2017 में भी पार्टी को कोई सीट हासिल नहीं हुई। न तो बीएसपी ने दलितों के बीच चुनाव से पहले जनाधार खोजने की कोशिश की और न ही शिरोमणि अकाली दल के लिए दलितों में कोई आकषर्ण पैदा हुआ है। हालांकि आम आदमी पार्टी (आप) की ओर दलितों का आकषर्ण जरूर दिखा है। दलित वोट बैंक का एक हिस्सा आप के साथ होगा।
फिर भी पंजाब में दलित कांग्रेस के साथ अधिक एकजुट हैं। खासकर दलित मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के नेतृत्व में यह एकजुटता और मजबूत होने के आसार हैं। चन्नी मुख्यमंत्री के तौर पर अपनी पारी आगे बढ़ा सकेंगे या नहीं, इसे लेकर दलितों में आशंका बनी हुई है। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया है, और सिद्धू के रु ख से लगता नहीं है कि जीत के बाद वे मुख्यमंत्री की कुर्सी से कम पर मानेंगे। दलितों के लिए खास तौर से कोई ऐलान पंजाब में किसी पार्टी ने नहीं किया है। दलितों को कांग्रेस और आप के बीच अपनी पसंद तय करनी है। दलितों का रु ख ही पंजाब में कांग्रेस या आप में किसी एक को बढ़त दिलाएगा।
उत्तर प्रदेश में दलित मतदाताओं को दो हिस्सों में बांट कर देखा जाता है। एक हिस्सा जाटव है तो दूसरा गैर-जाटव। जाटव दलित बीएसपी के साथ रहे हैं, जिनका नेतृत्व मायावती करती रही हैं। गैर-जाटव दलितों ने जब से मायावती से बेरु खी दिखाई है, तब से बीएसपी के दिन यूपी में अच्छे नहीं रह सके। बीएसपी से दूर होकर दलित वोटरों ने बीजेपी पर भरोसा दिखलाया है। लोक सभा चुनाव हो या विधानसभा चुनाव एससी वोटर बीजेपी के साथ गोलबंद दिखे हैं। बहुत छोटा हिस्सा कांग्रेस के साथ भी रहा है।
ताजा विधानसभा चुनाव में एंटी इनकंबेंसी का असर एससी वोटरों में भी है। मगर वे समाजवादी पार्टी (सपा) पर कितना भरोसा करेंगे या कांग्रेस की ओर रु ख करेंगे-देखने वाली बात होगी। हालांकि एससी वोटों को अपनी ओर करने के लिए किसी राजनीतिक दल ने कोई बड़ी पहल नहीं की है। बीजेपी अपने एससी वोट बैंक को बचाए रखने की जद्दोजहद कर रही है। यूपी में मायावती के नेतृत्व में दलित-ब्राह्मण समीकरण जिस तरह से 2007 में सफल हुआ था उसे दोहराया नहीं जा सका। अन्य प्रयोगों ने यह समीकरण ध्वस्त कर दिया। इस चुनाव में भी यह समीकरण दोबारा खड़ा होता नहीं दिख रहा है। 2007 में बीएसपी को 206 सीटें मिली थीं और 30.43 फीसदी वोट मिले थे।
बीएसपी का यह वोट बैंक घटता हुआ 22 फीसदी के आसपास रह गया है। यह और घटता दिखे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इसकी वजह साफ है कि बीते पांच साल में मायावती दलितों की आवाज लेकर कभी राजनीति करती नजर नहीं आई जबकि यूपी में दलितों पर अत्याचार की घटनाएं कभी रुकी नहीं। उत्तराखंड में दलित वोटर कांग्रेस नेता हरीश रावत के बयान को महत्त्व दे रहे हैं, जिसमें कहा गया था कि उनकी इच्छा है कि उत्तराखंड में दलित सीएम हो। हालांकि खुद रावत सीएम के दावेदार हैं। इसलिए इस बयान पर दलित कितना विश्वास करेंगे, देखने वाली बात होगी। मगर पंजाब में दलित मुख्यमंत्री देने का श्रेय रावत को ही जाता है। इस वजह से दलितों के बीच उम्मीद पैदा करते हैं हरीश रावत। यह उम्मीद वोटों में बदलती है तो बीजेपी दलित सीटों से हाथ धो सकती है। दलितों के लिए सुरक्षित 13 सीटें उत्तराखंड की सरकार तय करने में निर्णायक होंगी। गोवा और मणिपुर में दलित वोटरों की मौजूदगी प्रतीकात्मक है। दोनों स्थानों में एक-एक सीट दलितों के लिए सुरक्षित है। दलित वोटर सरकार बनाने के लिहाज से महत्त्व नहीं रखते। सबसे अधिक दलित वोटर वाले पंजाब या सबसे अधिक दलितों के लिए सुरक्षित 84 सीटों वाले यूपी में दलितों का रु ख बेहद निर्णायक रहने वाला है। उत्तराखंड में भी दलितों के रु ख से सरकार बदल सकती है।
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