विमर्श : संविधान की बहस को नया मोड़

Last Updated 22 Dec 2021 12:41:59 AM IST

राम बहादुर राय की सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘भारतीय संविधान: अनकही कहानी’ संविधान की सम्यक समालोचना है।


विमर्श : संविधान की बहस को नया मोड़

एक धारणा है कि संविधान में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो। दूसरी, संविधान का परिष्कार जरूरी है। तीसरी, संविधान का निरंतर विकास होना चाहिए। चौथी, संविधान पर जो औपनिवेशिक छाया है, उसे दूर किया जाए। और पांचवी धारणा यह कि संविधान के मूल तत्त्व की रक्षा करते हुए उसमें निरंतर सुधार का क्रम जारी रहे।  
संविधान पर एक बार नहीं, अनेक बार प्रश्न उठे हैं, और उसकी समीक्षा की मांग लंबे समय से होती रही है। उस मांग के ठोस कारणों पर इस पुस्तक में प्रकाश डाला गया है। बताया गया है कि संविधान की समीक्षा से राजनीतिक तौर पर जो आशंकाग्रस्त होते हैं, उसकी वजह है कि उन्होंने बिना जाने और पढ़े संविधान के बारे में काल्पनिक समझ बना रखी है। 1959 में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने ‘भारतीय राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना : एक सुझाव’ शीषर्क पुस्तिका लिख कर संविधान समीक्षा का सुझाव दिया था। संविधान के चौथे संशोधन विधेयक पर बोलते हुए जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, आखिरकार संविधान की सार्थकता इसमें ही है कि उससे सरकार, प्रशासन और समाज में लोकोपयोगी कार्य करना सहज ही संभव होता रहे।
1967 से दल-बदल की समस्या पर विचार के लिए वाईबी चव्हाण कमेटी बनी। संविधान की रजत जयंती पर कांग्रेस अधिवेशन में जो प्रस्ताव पारित हुआ, उसमें मांग थी कि संविधान की पूरी समीक्षा हो, जिससे संविधान को जीवंत बनाया जा सके। उस प्रस्ताव के अनुसरण में स्वर्ण सिंह कमेटी बनी। उसकी रिपोर्ट के आधार पर 42वां संविधान संशोधन किया गया। उसके औचित्य पर भी प्रश्न उठे। उद्देशिका में संशोधन करने पर भी सवाल उठे। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 26 अक्तूबर, 1980 को एक बयान दिया, ‘संविधान में हर कुछ आज प्रासंगिक नहीं है। संविधान पर राष्ट्रीय विमर्श की आवश्यकता है। इसलिए कि जिस शासन पद्धति में भारत है, क्या वह हमारे अनुकूल है? संविधान निर्माताओं ने जो शासन प्रणाली दी, उसकी कोई समीक्षा अब तक नहीं हुई है। जहां संविधान की समीक्षा आवश्यक है, वहीं विपक्ष की भूमिका के बारे में भी सोचने की जरूरत है। विपक्ष की आंदोलनकारी राजनीति के ढंग और संदर्भ पर भी विचार होना चाहिए।’ अटल बिहारी वाजपेयी ने संविधान समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एमएन वेंकटचेलैया की अध्यक्षता में दस सदस्यीय आयोग 23 फरवरी, 2000 को बनाया जिसने 31 मार्च, 2002 को अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को सौंप दी। इस रिपोर्ट को सम्मिलित करके डॉ. सुभाष कश्यप ने ‘कांस्टीट्यूशन मेकिंग सिंस 1950’ नाम से एक पुस्तक लिखी जो संविधान का अधिकृत पुनर्पाठ है।  

संविधान को दो पद्धतियों से देखने के प्रयास होते रहे हैं। एक पद्धति नकारने की है, तो दूसरी संविधान को जस का तस स्वीकारने की रही है। तीसरी पद्धति संविधान को स्वाधीनता संग्राम के इतिहास के आईने में देखने-परखने की हो सकती है। इस तीसरी पद्धति को अंगीकार करने का कार्य राम बहादुर राय ने इस पुस्तक में किया है। पुस्तक संविधान के बारे में कई बनी-बनाई धारणाएं तोड़ती है। एक धारणा रही है कि महात्मा गांधी संविधान निर्माण से दूर रहे जबकि पुस्तक बताती है कि संविधान की अवधारणा का जो विकास हुआ, उसके राजनीतिक नायक महात्मा गांधी हैं। गांधी जी ने ही स्वराज्य को पुनर्परिभाषित किया। फिर संविधान की कल्पना को शब्दों में उतारा। पुस्तक में महात्मा गांधी की नेतृत्वकारी भूमिका का प्रामाणिक विवरण है। गांधी जी ने बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर का संविधान सभा में पुन: प्रवेश संभव कराया। सरदार वल्लभ भाई पटेल ने डॉ. अंबेडकर को प्रारूप समिति में रखवाया और उसका अध्यक्ष बनवाया। डॉ. अंबेडकर ने उद्देशिका में बंधुता का समावेश कराया। राम बहादुर राय ने पुस्तक में लोक मान्य बाल गंगाधर तिलक, एनी बेसेंट, देशबंधु चितरंजन दास, डॉ. मुख्तार अंसारी, डॉ. भगवान दास, मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, पुरु षोत्तम दास टंडन, केएम मुंशी आदि के संविधान संबंधी कार्यों को भी चिह्नित किया है।
पुस्तक बताती है कि संविधान निर्माण में बेनेगल नरसिंहराव नींव के पत्थर हैं, और संविधान को स्वरूप देने का नियतिपूर्ण दायित्व डॉ. अंबेडकर के पास स्वयं चलकर आया। उन्होंने संविधान निर्माण में खून पसीना एक कर सामाजिक सुधार का संवैधानिक दीपक जला दिया जो झिलमिल झिलमिल आज भी जल रहा है। संविधान के इतिहास में एक पन्ना ‘राजद्रोह धाराओं की वापसी’ का भी है, जिसे असंवैधानिक संविधान संशोधन कहना उचित होगा। नेहरू ने यह कराया। यह अनकही कहानी भी पुस्तक में आ गई है। सरदार पटेल ने मुस्लिम सदस्यों को सहमत कराकर पृथक निर्वाचन प्रणाली को समाप्त कराया, जिससे संविधान सांप्रदायिकता से मुक्त हो सका। 51 अध्यायों में विभाजित पांच सौ पृष्ठों की यह किताब भारतीय संविधान के ऐतिहासिक तथ्य, कथ्य और यथार्थ को इस तरह प्रस्तुत करती है कि संविधान का पुनरावलोकन भी हो जाता है, और संविधान की बहस को नया मोड़ भी मिलता है। वह मोड़ बताता है कि रास्ता किधर है!

कृपाशंकर चौबे


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