सरोकार : सवाल की आड़ में सामंती सोच का प्रकटीकरण
सरोकार : सवाल की आड़ में सामंती सोच का प्रकटीकरण
![]() सरोकार : सवाल की आड़ में सामंती सोच का प्रकटीकरण |
बाणभट्ट ने वैयक्तिक सत्य और सामाजिक सत्य के संघर्ष के संबंध में एक बार कहा था- ‘निश्चय ही कोई बड़ा असत्य समाज में सत्य के नाम पर घर बना बैठा है। वस्तुत: व्यक्ति इसी असत्य के खिलाफ लड़ता है।’ बाणभट्ट की आत्मकथा में बाणभट्ट द्वारा
निउनिया के संदर्भ में कही गई ये बात सामाजिक जड़ता के लिहाज से स्त्रियों के संदर्भ में आज बिल्कुल सटीक बैठती है। वे इस स्थापित सत्य कि नारीवादी संघर्ष अप्रासंगिक है क्योंकि अब सब सामान्य है, की असत्यता से लड़ रही है और सत्यता की संधिग्धता पर वैचारिक सवाल खड़े कर रही है।
इसे हाल की एक घटना के आलोक में देखा जा सकता है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) की शनिवार को आयोजित 10वीं की परीक्षा में प्रश्नपत्र में ‘महिलाओं की मुक्ति ने बच्चों पर माता-पिता के अधिकार को समाप्त कर दिया’ और ‘अपने पति के तौर-तरीके को स्वीकार करके ही एक मां अपने से छोटों से सम्मान पा सकती है’ जैसे वाक्यों का इस्तेमाल किया गया था।
सीबीएससी द्वारा ये पूछा जाना निश्चित ही निंदनीय है, जो लिंगवादी दृष्टिकोण के साथ-साथ स्त्रियों के प्रति घोर वैचारिक जड़ता को भी दर्शाता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि कथित रूप से ‘लैंगिक रूढ़िवादिता’ को बढ़ावा देने और ‘प्रतिगामी धारणाओं’ का समर्थन करने वाले ऐसे गद्यांश से महिलाओं की छवि धूमिल हुई है। अपमानित करने वाले इन विचारों से उनकी भावनाएं आहत हुई है। ये न केवल उनकी स्वतंत्र पहचान पर हमला हैं बल्कि लिंग रूढ़िवादिता का पोषण भी करने वाला है। सवाल उठना लाजिमी है। ऐसी विरोधात्मक धारणाएं इस बात का जीवंत प्रमाण है कि महिलाओं को लेकर सदियों पुरानी कुंठित सोच से अब तक नहीं उबरा नहीं जा सका है।
हो सकता है ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हों और सार्वजनिक रूप से किसी वर्ग विशेष का प्रतिनिधित्व नहीं करते हों, लेकिन केवल ये कहकर बचा नहीं जा सकता। पुरातन सोच को अद्यतन मान कर चलने वाले वर्ग विशेष को अब बदलना होगा। माना की कुंठित और प्रतिगामी धारणाएं पल भर में नहीं बदलती। बदलाव का सफर लंबा होता है, लेकिन ये भी याद रखा जाए कि समानता की इस लड़ाई ने अब मीलों लंबा सफर तय कर लिया है।
मौजूदा वक्त में ऐसे कुंठित विचारों की कोई प्रासंगिकता नहीं। इन्हें सिरे से नकार दिया जाना चाहिए। हमारी संस्कृति ‘नारी सर्वत्र पूज्यते’ की अवाधारणा को आत्मसात करती रही है। समय के साथ बदलते परिवेश ने इस अवधारणा की मिथकियता को तोड़ा है। जब समाज में वर्जनाएं और स्थापित पितृसत्तात्मक अवधारणाएं टूटने लगी तो स्त्रियों की अस्मिता पर बेजा सवाल उठने लगे। एक सीमित खांचे में डालकर चारित्रिक पैमाने से उनका आंकन किया जाने लगा और इससे भी बढ़कर उन्हें तमाम कुप्रवृत्तियों और विद्रूपताओं की जननी माना जाने लगा। समानता, सबलता और स्वतंत्रता की उनकी मांग पर चहुमुंखी आलोचनाएं होने लगी। उनके चारित्रिक छिद्रद्न्वेष्णन को ही परमार्थ सत्य मान लिया गया।
अब ऐसी पुरातन सोच से बाहर निकलने का वक्त है। समय के साथ कदमताल करते हुए स्त्रियों की प्रासंगिकता और उनकी अहमियत को स्वीकारने का समय है। उनके सम्पूर्ण समावेशन के बिना एक सजग और सफल राष्ट्र की कल्पना बेमानी है।
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