समाज : अकेलेपन की बढ़ती समस्या
विश्व में अकेलेपन की समस्या कितनी बढ़ गई है, उसका एक अंदाज तो इससे लग सकता है कि ब्रिटेन और जापान जैसे प्रमुख देशों ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में अलग से अकेलेपन को कम करने के मंत्री नियुक्त किए हैं।
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अनेक अध्ययन बता रहे हैं कि डिमेंशिया, हृदय रोग व स्ट्रोक का खतरा अकेलेपन से 30 से 40 प्रतिशत तक बढ़ सकता है। अवसाद की ओर बढ़ाने में भी अकेलेपन की बड़ी भूमिका है।
जापान में कोविड से पहले किए एक सर्वेक्षण में लगभग 55 प्रतिशत लोगों ने कम या अधिक हद तक अकेलेपन से त्रस्त होने की स्थिति बताई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 5 लाख से अधिक व्यक्ति ऐसी स्थिति में हैं, जहां वे अपने को शेष दुनिया से अलग रखने का प्रयास करते हैं, कई मामलों में तो वर्षो तक। अमेरिका में कोविड के आने से पहले एक सर्वेक्षण ने बताया कि 50 प्रतिशत व्यक्ति कभी-कभी या स्थायी तौर पर अकेलेपन से प्रभावित हैं। 12.8 करोड़ परिवारों में से 28 प्रतिशत परिवार ऐसे हैं, जिनमें मात्र एक सदस्य है। सात में से एक वयस्क अकेला रहता है। यदि केवल 9 बड़े शहरों को देखा जाए तो 4 में से एक वयस्क अकेला रहती/रहता है और 50 प्रतिशत पारिवारिक इकाइयों में मात्र एक सदस्य है। अमेरिका में 3.6 करोड़ वयस्क अकेले रहते हैं। अमेरिका में विवाह की औसत आयु मात्र 8 वर्ष है। ब्रिटेन में एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 2 लाख वृद्धों ने 1 महीने से किसी रिश्तेदार या मित्र से बात नहीं की थी। इस सर्वेक्षण के बाद ही वहां अकेलेपन के मंत्री की नियुक्ति हुई।
इन आंकड़ों से पता चलता है कि अनेक धनी देशों में अकेलेपन की प्रवृत्ति भारी पड़ रही है। आधुनिकता के दौर में यहां सामाजिक संबंधों के स्थान पर व्यक्तिवाद को बढ़ावा दिया गया। व्यक्तिवादी सोच और बढ़ती समृद्धि ने अनचाही दिशा-सामाजिक विघटन-की पकड़ ली है व यह बढ़ते अकेलेपन के रूप में प्रकट हो रही है। हालांकि इन प्रवृत्तियों के अनेक चिंताजनक परिणाम सामने आ रहे हैं पर इन्हें रोक पाना कठिन हो रहा है। बच्चों वाले परिवारों के बारे में अमेरिका में पाया गया है कि यदि तलाक या सेप्रेशन की वजह से परिवार टूटता है, तो ऐसे लगभग 50 प्रतिशत परिवारों में आर्थिक तंगी बहुत बढ़ जाती है। इसके बावजूद साथ रहना भी इतना असहनीय माना जाता है कि तलाक या सेप्रेशन को रोका नहीं जा सकता है। इन दिनों नये सिरे से सामाजिक विघटन को पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति से भी जोड़ा जा रहा है। यदि किसी समृद्ध देश में परिवार टूटता है, तो इसके साथ फ्रिज, एयरकंडीशनर, हीटर, कार आदि तमाम तरह की ऊर्जा का निरंतर उपयोग करने वाले उपकरण भी एक से दो या दो से चार तक बढ़ जाते हैं। इस तरह पर्यावरण पर दबाव बढ़ता है। अमेरिका में 33 करोड़ की जनसंख्या पर 13 करोड़ पारिवारिक इकाइयां हैं।
वृद्धावस्था में अकेले रहने में अनेक कठिनाइयां हैं पर युवावस्था में अकेलेपन का अहसास होना भी कोई कम कष्टदायक नहीं है। कुछ व्यक्ति कहते हैं कि वे अकेले रहकर ही सुखी हैं। उनकी बात उनके लिए सही है, और वास्तव में अकेलेपन का अर्थ केवल अकेला रहने में नहीं है अपितु अकेलेपन के अहसास से है। कोई व्यक्ति भीड़ के बीच भी अपने को अकेला महसूस कर सकता है, या सहकर्मिंयों से भरे हुए कार्यालय या छात्रों से भरे कालेज में भी। जहां तक अवसाद की ओर जाने का प्रश्न है तो अकेलेपन का अहसास ही अधिक महत्त्वपूर्ण है। अधिक धनी देशों के अनुभव से अन्य देशों को सीखना चाहिए और सामाजिक संबंधों की प्रगाढ़ता और समरसता पर, सामुदायिक जीवन पर और परिवार की रक्षा पर अधिक ध्यान देना चाहिए अन्यथा बाद में पारिवारिक और सामाजिक टूटन से उत्पन्न समस्याओं को संभालने पर ही बहुत खर्च करना पड़ सकता है।
अमेरिका के बारे में अनुमान लगाया गया है कि टूटे हुए और एकल सदस्य परिवारों की सहायता पर जो राशि आज खर्च की जा रही है, वह उस राशि से 1000 गुणा अधिक है जो परिवार को मजबूत बनाने के लिए खर्च की जा रही है। दरअसल, जब परिवार में टूटन होती है तो इन परिवारों विशेषकर महिलाओं को सरकारी सहायता की बहुत जरूरत होती है। इसके अतिरिक्त मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के इलाज पर भी खर्च बढ़ जाता है। इस बढ़ते खर्च को देखते हुए सवाल उठाया गया है कि परिवारों को बचाने पर खर्च को बढ़ा दिया जाए तो यह बजट के उपयोग का कहीं बेहतर तरीका होगा। इस तरह बहुत सा दुख-दर्द भी कम हो जाएगा। सामाजिक टूटन और अकेलेपन को कम करने के लिए समुदाय, परिवार, शिक्षा संस्थानों के स्तर पर बहुत कुछ किया जा सकता है। समय आ गया है कि इस अति महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर बेहतर ध्यान दिया जाए। यह बेहद रचनात्मक कार्य है जिसमें बच्चों, युवाओं, उनके माता-पिता, बुजुर्गों सभी की सार्थक भागीदारी होनी चाहिए और वे सभी इससे लाभान्वित भी होंगे।
अकेलेपन की समस्या को लेकर पश्चिमी देशों में जो प्रयास किए जा रहे हैं, कभी-कभी लगता है कि वे स्वयं अकेले पड़ गए हैं। कहने का अर्थ यह है कि उनके नेक इरादे होने के बावजूद उनमें समग्रता नहीं है, सामाजिक बदलाव की समग्र समझ नहीं है और सामाजिक मुद्दों के जो अन्य मुद्दों से अंर्तसंबंध हैं, उनकी समझ नहीं है। इस कारण इन प्रयासों के दीर्घकालीन और टिकाऊ लाभ नहीं मिल पा रहे। उनसे सीखते हुए हमें चाहिए कि सामाजिक समरसता को अधिक समग्र समझ बनाने का कार्य करें। सब मामलों में परंपराएं सही नहीं हैं और सब मामलों में आधुनिकता सही नहीं है। हमें परंपरा और आधुनिकता का सही संतुलन बनाना है। यह चुनौती भरा पर बहुत रचनात्मक सार्थक और रोचक कार्य है। प्राय: इस तरह के आर्थिक-राजनीतिक मुद्दों पर तो तुरंत ध्यान दिया जाता है पर इस तरह की सामाजिक समस्याओं को उपेक्षित किया जाता है जिसके कारण वे निरंतर बढ़ती हुई गंभीर रूप धारण कर लेती हैं।
समय आ गया है कि ऐसे सामाजिक मुद्दों पर भी विकास की राह निर्धारित करते समय समुचित ध्यान दिया जाए ताकि बाद में हमें उपेक्षा की महंगी कीमत न चुकानी पड़े। अनेक विकसित देशों के अनुभवों से यह सच्चाई सामने आ रही है, और इसे कतई नजरंदाज नहीं किया जाना चाहिए।
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