मुद्दा : एमएसपी है रार की असल वजह

Last Updated 30 Nov 2021 12:15:44 AM IST

पिछले साल कृषि क्षेत्र में लाए गए तीन कानूनों के निरस्तीकरण और न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की वैधानिक गारंटी की दो मूल मांगों को लेकर किसानों का एक व्यापक और अभूतपूर्व आंदोलन देशभर में चल रहा है।


मुद्दा : एमएसपी है रार की असल वजह

आज संविधान दिवस 26 नवम्बर के अवसर पर इस आंदोलन का एक साल पूरा हो गया है। जब किसान तमाम विषम परिस्थितियों को सहते हुए भी पीछे नहीं हटे तो अंतत: मोदी सरकार ने 19 नवम्बर को इन तीन कानूनों को वापस लेने की घोषणा कर दी, परंतु किसान मोर्चे ने अपनी अन्य मांगों को लेकर आंदोलन को और तेज करने का निर्णय लिया है।
किसानों की मांग है कि घोषित एमएसपी से नीचे फसलों की खरीद कानूनी रूप से वर्जित हो, यानी कोई भी व्यक्ति, व्यापारी या संस्था जब फसलों का क्रय करे तो एमएसपी वैधानिक रूप से ‘आरक्षित मूल्य’ हो जिससे कम मूल्य पर कोई खरीद ना हो। एमएसपी का निर्धारण भी कृषि लागत मूल्य आयोग की ड.2 लागत पर 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर होना चाहिए जैसा स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश थी और भाजपा का वायदा था। एमएसपी की गारंटी की यह मांग किसानों विशेषकर छोटे किसानों के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इस मांग के गणित को समझना बहुत आवश्यक है। अभी देश में 23 फसल की एमएसपी घोषित होती है। इसमें मुख्य रूप से खाद्यान्न-गेहूं, धान, मोटे अनाज, दालें; तिलहन, गन्ना व कपास जैसी कुछ नकदी फसल शामिल हैं। दूध, फल, सब्जियों, मांस, अंडे आदि की एमएसपी घोषित नहीं होती।

2019-20 में इन फसल का एमएसपी पर कुल मूल्य लगभग 11 लाख करोड़ रुपये था। इसमें से गन्ने की फसल की खरीद सरकारी घोषित रेट पर मुख्यत: निजी मिलें करती रही हैं। अत: गन्ने को इस गणना से अलग करके बाकी 22 फसल की कीमत लगभग 10 लाख करोड़ रुपये बनती है। किसान देश की आधी आबादी है अत: वह स्वयं भी बहुत बड़ी मात्रा में इन फसल का उपभोक्ता है। इन फसल में से किसान लगभग 3.5 लाख करोड़ रुपये मूल्य की फसल अपने स्वयं के उपभोग में, अपने पशुओं के आहार में, अगली फसल के बीज आदि में इस्तेमाल कर लेता है। कुछ हिस्सा खराब भी हो जाता है। अत: गन्ना छोड़कर एमएसपी वाली फसल में से लगभग 6.5 लाख करोड़ रुपये मूल्य की फसल ही बाजार में बिक्री हुई। इसमें से सरकारी खरीद लगभग 2.75 लाख करोड़ रुपये मूल्य की फसल की हुई। बाकी लगभग 3.75 लाख करोड़ रुपये के मूल्य की फसल ही निजी क्षेत्र द्वारा खरीदी गई। एक अनुमान के अनुसार निजी व्यापारी एमएसपी से औसतन 20 प्रतिशत कम मूल्य पर फसल खरीदते हैं, अत: किसानों को इन फसल के लगभग तीन लाख करोड़ रुपये ही मिले। अब किसानों की मांग यह है कि ये निजी व्यापारी भी एमएसपी पर ही फसल खरीदें, यह नहीं है कि सारी फसल सरकार खरीदे। सरकार को केवल खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अनुसार या अपनी आवश्यकता की मात्रा ही खरीदनी होगी। किसानों की मांग निजी क्षेत्र या सरकार द्वारा किसानों की सारी फसल खरीदने के लिए बाध्य करना नहीं हैं, परन्तु यदि कोई निजी व्यापारी या सरकार बाजार में उतरते हैं तो वह किसान को एमएसपी वाली कीमत देने के लिए अवश्य कानूनी रूप से बाध्य हों। यदि इस मांग को मान लिया जाता है तो सरकार के ऊपर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा, केवल निजी व्यापारी जो अब तक किसानों का आर्थिक शोषण करते रहे हैं उस पर अंकुश अवश्य लग जाएगा। यदि यह कानून बने तो उपरोक्त वर्ष की गणना में किसानों को निजी व्यापारियों से 75,000 करोड़ रुपये और मिलते। यही मूलभूत लड़ाई है।
प्रश्न यह है कि सरकार इस मांग पर अपने पैर क्यों घसीट रही है, जबकि उसका एक रु पया भी इसमें अतिरिक्त खर्च नहीं होना है। उल्टे यह अतिरिक्त धनराशि किसानों के हाथ में पहुंचने से अर्थव्यवस्था में मांग, रोजगार, कालांतर में निवेश और सरकार का टैक्स बढ़ेगा। कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि एमएसपी निजी क्षेत्र पर बाध्यकारी नहीं  किया जा सकता, परन्तु ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां जनहित या वर्गहित में, आर्थिक व सामाजिक कारणों से सरकार सेवाओं या वस्तुओं का मूल्य निर्धारित या नियंत्रित करती है तो किसानों की आर्थिक सुरक्षा के लिए फसल का न्यूनतम मूल्य निर्धारित क्यों नहीं किया जा सकता। अभी हाल ही में सबसे ताजा उदाहरण कोरोना की वैक्सीन व इसके इलाज में लगने वाली अन्य दवा के मूल्य को निर्धारित करने का है। वास्तव में एमएसपी मूल्य किसानों का अधिकार है जो अब तक उन्हें नहीं दिया गया।

चौधरी पुष्पेन्द्र सिंह
किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष


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