सामयिक : हिंदू बनाम हिंदुत्व
नि:स्संदेह, इसे विडम्बना छोड़ कुछ नहीं कहा जा सकता कि जहां इस समय हिंदू धर्म को अपने समाज के सुधार के लिए व्यापक आंदोलन की दरकार है उसे हिंदुत्व नाम की उस राजनीतिक विचारधारा से उलझना पड़ रहा है, जिसके प्रवर्तक विनायक दामोदर सावरकर खुद लिख गए हैं कि उसका हिंदू धर्म से कोई लेना-देना नहीं है और जो अपने मूल रूप में न सिर्फ खुद को हिंदू धर्म से ऊपर मानती आई है बल्कि उसे भूगोल, रक्त, देश और इतिहास वगैरह से जोड़कर सीमित व हीन भी बनाती रही है।
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बात को ठीक से समझने के लिए उसे कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी की हिंदू धर्म व हिंदुत्व में फर्क या सलमान खुर्शीद द्वारा अपनी ‘सनराइज ओवर अयोध्या’ शीषर्क पुस्तक में हिंदुत्व की आईएसआईएस व बोको हरम जैसे अतिवादी संगठनों से तुलना वाली टिप्पणियों से अलग करना और इस मर्म तक जाना होगा कि जिसे हम हिंदू धर्म कहते हैं, वह अपने अतीत में जड़ बना डालने की तमाम कोशिशों के बावजूद सतत प्रवहमान रह सका तो सुधार के आंदोलनों की लंबी परंपरा के ही कारण। यह परंपरा नहीं होती तो उसमें पैठ बना चुकी सती जैसी नाना दारुण कुरीतियों का उन्मूलन संभव ही नहीं होता और वे उसके पांवों की चक्की बनी रहतीं।
ऐसे आंदोलनों के अवसान का ही कुफल है कि विविधता को सहजतापूर्वक स्वीकार करने की उसकी परंपरा आज जीवंत होने के बजाय जड़ होती दिखती है और उसके जाए पदानुक्रम व असमानता संस्थागत रूप पा गए हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो यही कारण है कि उसके अनेक अनुयायी इक्कीसवीं सदी में भी महिलाओं को पुरु षों के बराबर नहीं समझते, उन्हें अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने तक के अधिकार से वंचित रखना चाहते हैं, साथ ही पुरुषों को पितृसत्तावादी मान्यताएं व विचार नहीं बदलने देते, संविधान के शासन के सात दशकों बाद भी कई जातियों को अनौपचारिक तौर पर दलित, वंचित और अछूत बनाये हुए हैं और जब भी चुनाव आते हैं, उन्हें जातियों के युद्ध में बदल देते हैं।
इतना ही नहीं, कुछ जातियों को हमेशा बाकियों से ज्यादा महत्त्व देकर केंद्र में बनाए रखते हैं और शेष को हाशिये पर उलझे रखते हैं। ऐसे में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को यह देखकर दुख होता है कि इस स्थिति को बदलने के लिए हिंदू समाज के भीतर से किसी पहल के दूर-दूर तक कोई आसार नजर नहीं आते, लेकिन खुशी भी होती है कि इस धर्म ने अभी भी बहुत हद तक अपने उन तत्वों को बचाए रखा है, जिनके मद्देनजर कई विचारक इसे धर्म के बजाय जीवनपद्धति के रूप में देखते हैं।
इसकी सबसे बड़ी मिसाल यह है कि उसका हिंदू नाम भी ‘दूसरों’ का दिया है और उसको अंगीकार किए रखने में उसे कोई परेशानी नहीं है। अलबत्ता, कई लोग जो चाहते हैं कि सारे हिंदू गर्व से अपने हिंदू होने का एलान किया करें, इसके पीछे के बड़प्पन को नहीं समझते, अपने देवताओं व पूजा पद्धतियों के चुनाव की हिंदुओं की स्वतंत्रताएं छीन लेना चाहते और एक संस्था के प्रति अनुपालन, अनुशासन व समर्पण की अपना खास कसौटियों के तहत हिंदुत्ववादी बनाना चाहते हैं।
प्रसंगवश, हिंदू धर्म की प्राचीनता या सनातनता के विपरीत हिंदुत्व की अवधारणा अभी शताब्दी भर भी पुरानी नहीं पड़ी है। हिंदू महासभा के नेता विनायक दामोदर सावरकर ने अपने सुनहरे दिनों में अपनी राजनीतिक विचारधारा के तौर पर इसका प्रवर्तन किया तो उसके पीछे ‘हिंदू सभ्यता की पराजयों, आक्रांताओं के हाथों उसे मिलती रही गुलामियों और अपमानों’ जैसे ऐतिहासिक कारकों से पैदा हुई कुंठाएं थीं। सावरकर के निकट उनकी हिंदुत्व की अवधारणा न सिर्फ राजनीतिक बल्कि हिंदू धर्म से ऊपर भी थी। हिंदू रहते हुए तो कोई किसी भी देवी-देवता की किसी भी रूप में पूजा-अर्चना कर सकता और ‘सबै भूमि गोपाल की’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ या ‘हिंद देश के निवासी सब जन एक हैं’ जैसे विचारों को अपने आचरण में उतार सकता था, लेकिन उसके हिंदुत्ववादी होने की सबसे पहली और अनिवार्य शर्त यह थी कि वह भारत पर पहला हक उनका ही माने, जिनकी वह पितृभूमि भी है, कर्मभूमि भी और पुण्यभूमि भी यानी जिनकी भारत भूमि के प्रति प्रतिबद्धता अखंड है।
इस मान्यता के तहत मुसलमान और ईसाइयों जैसे अल्पसंख्यक तो क्या, विदेश में पैदा हुए और पले-बढ़े हिंदू भी हिंदुत्ववादियों जितने भारतीय नहीं रह जाते। मुसलमान और ईसाई तो अपने सारे नागरिक अधिकारों का विसर्जन की शर्त पर ही देश में रह सकते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि हिंदुत्व की इस राजनीतिक अवधारणा में वैसी असहमतियों और बहसों की भी गुंजाइश नहीं है जो अतीत में सनातन या हिंदू धर्म के अलग-अलग मतों में चलती रही है। जाहिर है कि यह अवधारणा न हिंदू सम्मत है और न संविधान सम्मत। फिर भी एक समुदाय, जिसमें हमारे आज के सत्ताधीश भी शामिल हैं, इस तर्क के साथ इसको हिंदू धर्म का पर्याय बनाना चाहते हैं कि वह सावरकर के वक्त में ही नहीं रुकी हुई और उसने समय के साथ खुद को अनुकूलित, विकसित और परिवर्धित किया है। उनके अनुसार इससे वह वहां तक पहुंच गई है, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत कहते हैं कि सारे भारतीयों का डीएनए एक है, लेकिन वे इस सवाल का जवाब नहीं देते कि क्या इस डीएनए एक होने की बिना पर वे अल्पसंख्यकों की कथित रूप से हिंदुओं से ज्यादा तेजी से बढ़ती आबादी की ‘चिंता’ से मुक्त होने को तैयार हैं?
अगर नहीं तो क्या यह भ्रम पैदा कर उसका लाभ उठाने की वैसी ही रणनीति नहीं है, जिसके तहत सावरकर ने बहुत सोच-समझकर अपनी राजनीतिक विचारधारा को हिंदुत्व का नाम दिया, ताकि जब भी उसकी आलोचना की जाए, हिंदुओं को लगे कि हिंदू धर्म की आलोचना की जा रही है। वे यह न समझ सकें कि हिंदुत्व वास्तव में हिंदू धर्म का नहीं, हिंदू राष्ट्रवाद का दस्तावेज है। सच पूछिये तो यह दस्तावेज हिंदू धर्म को राष्ट्रीय अस्मिता से जोड़कर उसकी सारी उदात्त अपीलों को संकुचित करता और अपना स्थान उससे ऊपर कर लेता है। क्या आश्चर्य कि हिंदुत्व के आलोचकों को लगता है कि वह उस हिंदू धर्म को ही नष्ट करने में लगा है जिसे बचाने का दावा करता है और उनके संकीर्ण राष्ट्रवाद में किसी को भी इत्मीनान या सुकून नहीं हासिल होने वाला।
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