शराबबंदी : माखौल बन कर रह गई सख्ती!

Last Updated 25 Nov 2021 05:44:01 AM IST

बिहार, जहां विगत पांच साल से अधिक समय से शराबबंदी लागू है, जहां शराब पीते पाए जाने पर पीने वाले पर ही नहीं उसके परिवार वालों पर या उसकी संपत्ति पर भी आंच आने का खतरा बना रहता है।


शराबबंदी : माखौल बन कर रह गई सख्ती!

अगर कुछ माह में ही अवैध शराब पीने से मरने वालों की संख्या 40 से अधिक हो जाए, राज्य के अलग-अलग जिलों से ऐसी मौतों की खबरें आने लगें या दस माह के बीच/जनवरी-अक्टूबर, 2012/शराबबंदी उल्लंघन कानून के तहत दर्ज मामलों की संख्या पचास हजार को पार करने लगे तो कहने के पर्याप्त आसार दिखते हैं कि शराबबंदी को लेकर नीतीश सरकार के संकल्प/वायदों व हकीकत में अंतराल जबरदस्त बढ़ रहा है, और शराबबंदी माखौल बन कर रह गई है।
याद रहे 2016 के चुनावों में इसी मसले पर नीतीश कुमार को महिलाओं का जबरदस्त समर्थन मिला था, जिन्होंने चुनाव के पहले सूबे के अलग-अलग हिस्सों में इस मांग को लेकर रैलियां निकाली थीं। उनका कहना था कि शराब पीने से घरों के अंदर स्त्रियों के खिलाफ हिंसा बढ़ती है। अब अगर अवैध शराब का व्यवसाय बदस्तूर जारी है, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे जैसे सर्वेक्षण में इस बात का सामने आना हो कि 15.5 फीसद बिहार के पुरुष शराब पीते हैं, तो फिर  स्त्रियों के अंदर भी इस मसले पर बेचैनी बढ़ रही है कि कहीं न कहीं इस मसले पर सरकार ने उनके साथ खिलवाड़ किया है। इन दिनों विपक्षी हमलों के चलते सरकार अचानक अधिक सख्त उठाने की बात करने लगे, यह कहने लगे कि अगर किसी इलाके में शराब पाई जाती है तो इलाके के एसएचओ को ही नहीं, बल्कि गांव के चौकीदार को-जो पुलिस विभाग का ही एक अदना नौकर रहता है-भी दस साल के लिए निलंबित किया जाएगा, तो यही कहा जाएगा कि यह कदम एक तरह से अपनी झेंप मिटाने के लिए है।

जानकारों का मानना है कि 2017 में भी इसी किस्म के आदेश दिए गए थे, लेकिन जिन ग्यारह पुलिस अधिकारियों को निलंबित किया गया था उन्हें अदालत के आदेश के चलते तत्काल वापस लेना पड़ा था। एसएचओ और चौकीदार को दंडित करने के आदेश से वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों-जिनके मौखिक आदेश ही निचले अधिकारियों के लिए काफी रहते हैं-को दूर रखना भी सरकार की प्राथमिकताओं को बताता है कि वह उन्हें छूना नहीं चाहती। अहम बात यह है कि किसी इलाके का एसएचओ, पुलिस अधीक्षक या जिलाधिकारी के आदेश के बिना-भले ही मौखिक आदेश हों-या उसे विश्वास में लिए  बिना काम नहीं करता।
इसी से जुड़ी बात है कि सारा फोकस अगर निचले दर्जे के पुलिस अधिकारियों पर रहेगा तो जिस अपवित्र गठबंधन के चलते ऐसे तमाम अवैध कारोबार चलते हैं-मसलन माफिया, भ्रष्ट राजनेता एवं बदनाम पुलिस अधिकारी-वह अक्षुण्ण बना रहेगा। विपक्षी पार्टयिों की तरफ से भी इस मसले पर उठाए गए प्रश्नों का जवाब देने से सरकार को बन नहीं रहा। उनके मुताबिक एक तरफ जहां शराबबंदी के सख्त कानून के तहत वंचित तबकों के हजारों लोग जेल में ठूंसे गए हैं, उच्च न्यायालय के पास ऐसे एकत्रित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है, वहीं सरकार यह बताने को आज भी तैयार नहीं है कि उसने कितने अवैध शराब बनाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की, कितने ऐसे लोग जेल में हैं?
सीपीआई एमएल (लिबरेशन) द्वारा की गई फैक्ट फाइंडिंग में दमनकारी शराबबंदी कानून की सख्ती के कुछ ऐसे प्रभावों की तरफ इशारा किया गया है, जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने पाया कि शराबबंदी अधिनियम का खौफ इतना है कि अस्पताल यहां तक कि रिश्तेदार भी शराबखोरी की सच्चाई पर परदा डाले रखने में ही भलाई समझते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि लोगों को वक्त रहते इलाज नहीं मिल पाता और उनकी असमय मौत होती है। उन्होंने यह भी पाया कि ऐसे मामलों में पुलिस-प्रशासन का रवैया भी नकारात्मक होता है, जो मौतों के वास्तविक कारणों पर परदा डाले रखने का दबाव डालते हैं।
राजद एवं कांग्रेस जैसी विपक्षी पार्टयिों ने नीतीश सरकार से मांग की है कि इस मसले पर अपनी असफलता कबूल करके सरकार को इस कानून को ही वापस लेना चाहिए क्योंकि बिहार कोई ‘टापू’ नहीं है, वह विभिन्न राज्यों से सटा हुआ है और जिससे शराब की उपलब्धता आसान रहती है। उनका यह भी तर्क है कि शराबबंदी करके सरकार अपने राजस्व का अच्छा खासा हिस्सा खो रही है, जो बगल के राज्यों को मिल रहा है, जहां शराब निर्माण या विक्रय पर कोई पाबंदी नहीं है।

सुभाष गाताडे


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