सीबीआई और ईडी निदेशक : सेवा विस्तार पर सियासत
ताजा अध्यादेश के जरिए भारत सरकार ने सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के निदेशकों के कार्यकाल को 5 वर्ष तक बढ़ाने की व्यवस्था की है।
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अब तक यह कार्यकाल दो वर्ष का निर्धारित था। अब इन निदेशकों को एक-एक साल करके तीन साल तक और पद पर रखा जा सकता है। पहले से ही विवादों में घिरी ये दोनों जांच एजेंसियां विपक्ष के निशाने पर रही हैं। नये अध्यादेश ने विपक्ष को और उत्तेजित कर दिया है, जो अगले संसदीय सत्र में इस मामले को जोर-शोर से उठाने की तैयारी कर रहा है।
इन दो निदेशकों के दो वर्ष के कार्यकाल का निर्धारण दिसम्बर, 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के ‘विनीत नारायण बनाम भारत सरकार’ के फैसले के तहत किया गया था। इसी फैसले के तहत इन पदों पर नियुक्ति की प्रक्रिया पर भी विस्तृत निर्देश दिए गए थे। उद्देश्य था इन संवेदनशील जांच एजेंसियों की अधिकतम स्वायत्तता को सुनिश्चित करना। इसकी जरूरत इसलिए पड़ी जब हमने 1993 में एक जनहित याचिका के माध्यम से सीबीआई की अकर्मण्यता पर सवाल खड़ा किया था। क्योंकि तमाम प्रमाणों के बावजूद सीबीआई हिजबुल मुजाहिद्दीन की हवाला के जरिए हो रही दुबई और लंदन से फंडिंग की जांच को दो बरस से दबा कर बैठी थी। उस पर भारी राजनैतिक दबाव था। इस याचिका पर ही फैसला देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश जारी किए थे, जो बाद में कानून बने।
ताजा अध्यादेश में सर्वोच्च न्यायालय के उस फैसले की भावना की उपेक्षा कर दी गई है। इससे यह आशंका प्रबल होती है कि जो भी सरकार केंद्र में होगी वो इन अधिकारियों को तब तक सेवा विस्तार देगी जब तक वे उसके इशारे पर नाचेंगे। इस तरह ये महत्त्वपूर्ण जांच एजेंसियां सरकार की ब्लैकमेलिंग का शिकार बन सकती हैं क्योंकि केंद्र में जो भी सरकार रही है, उस पर इन जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगता रहा है। पर मौजूदा सरकार पर यह आरोप बार-बार लगातार लग रहा है कि वो अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वियों या अपने विरुद्ध खबर छापने वाले मीडिया प्रतिष्ठानों के खिलाफ इन एजेंसियों का लगातार दुरुपयोग कर रही है। बेहतर होता कि सरकार अध्यादेश को लाने से पहले लोक सभा के आगामी सत्र में इस पर बहस करवा लेती या सर्वोच्च न्यायालय से इसकी अनुमति ले लेती। इतनी हड़बड़ी में इस अध्यादेश को लाने की क्या आवश्यकता थी? सरकार इस फैसले को अपना विशेषाधिकार बता कर पल्ला झाड़ सकती है। पर सवाल सरकार की नीयत और ईमानदारी का है। सर्वोच्च न्यायालय का वो ऐतिहासिक फैसला इन जांच एजेंसियों को सरकार के शिकंजे से मुक्त करना था जिससे कि वे बिना किसी दबाव या दखल के अपना काम कर सकें क्योंकि सीबीआई को अदालत ने भी ‘¨पजरे में बंद तोता’ कहा था। इन एजेंसियों के ऊपर निगरानी रखने का काम केंद्रीय सतर्कता आयोग को सौंपा गया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह व भाजपा के अन्य नेता गत 7 वर्षो से हर मंच पर पिछली सरकारों को भ्रष्ट और अपनी सरकार को ईमानदार बताते आए हैं। मोदी दमखम के साथ कहते हैं न खाऊंगा, न खाने दूंगा।
उनके इस दावे का प्रमाण यही होगा कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध जांच करने वाली ये एजेंसियां सरकार के दखल से मुक्त रहें। अगर वे ऐसा नहीं करते तो मौजूदा सरकार की नीयत पर शक होना निराधार नहीं होगा। हमारा व्यक्तिगत अनुभव भी यही रहा है कि पिछले इन 7 वर्षो में हमने सरकारी या सार्वजनिक उपक्रमों के बड़े स्तर के भ्रष्टाचार के विरुद्ध सप्रमाण कई शिकायतें सीबीआई व सीवीसी में दर्ज कराई हैं। पर उन पर कोई कार्रवाई नहीं हुई जबकि पहले ऐसा नहीं होता था। इन एजेंसियों को स्वायत्तता दिलाने में हमारी भूमिका का सम्मान करके, हमारी शिकायतों पर तुरंत कार्रवाई होती थी। हमने जो भी मामले उठाए उनमें कोई राजनैतिक एजेंडा नहीं रहा है। जो भी जनहित में उचित लगा उसे उठाया। यह बात हर बड़ा राजनेता जनता है और इसलिए जिनके विरुद्ध हमने अदालतों में लंबी लड़ाई लड़ी वे भी हमारी निष्पक्षता व पारदर्शिता का सम्मान करते हैं। यही लोकतंत्र है। मौजूदा सरकार को भी इतनी उदारता दिखानी चाहिए कि अगर उसके किसी मंत्रालय या विभाग के विरुद्ध सप्रमाण भ्रष्टाचार की शिकायत आती है, तो उसकी निष्पक्ष जांच होने दी जाए। शिकायतकर्ता को अपना शत्रु नहीं, बल्कि शुभचिंतक माना जाए क्योंकि संत कह गए हैं, ‘निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय, बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।’
इसलिए इस अध्यादेश के मामले सर्वोच्च न्यायालय को तुरंत दखल देकर इसकी विवेचना करनी चाहिए। इन महत्त्वपूर्ण जांच एजेंसियों के निदेशकों के कार्यकाल का विस्तार 5 वर्ष करना मोदी सरकार की गलत सोच नहीं है, पर यहां दो बातों का ध्यान रखना होगा। पहली, ये नियुक्ति एकमुश्त की जाएं, यानी जिस प्रक्रिया से इनका चयन होता है, उसी प्रक्रिया से उन्हें 5 वर्ष का नियुक्ति पत्र या सेवा विस्तार दिया जाए; और दूसरी, अधिकारियों में सरकार की चाटुकारिता की प्रवृत्ति विकसित न हो और वे जनहित में निष्पक्षता से कार्य कर सकें। इसके लिए उन्हें 60 वर्ष की आयु के बाद सेवा विस्तार न दिया जाए, बल्कि इन महत्त्वपूर्ण पदों पर उन्हीं अधिकारियों के नामों पर विचार किया जाए जिनका सेवा काल 5 वर्ष शेष हो। अगर सरकार ऐसा करती है तो उसकी विसनीयता बढ़ेगी और नहीं करती है, तो ये जांच एजेंसियां हमेशा संदेह के घेरे में ही रहेंगी और नौकरशाही में भी हताशा बढ़ेगी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नोटबंदी जैसे बहुत सारे महत्त्वाकांक्षी फैसले लेते आए हैं, जिनसे उनकी उत्साही प्रवृत्ति का परिचय मिलता है। हर फैसला जितने गाजे-बाजे और महंगे प्रचार के साथ देश भर में प्रसारित होता है वैसे परिणाम देखने को प्राय: नहीं मिलते क्योंकि उनका व्यक्तित्व प्रभावशाली है, और समाज का एक वर्ग उन्हें बहुत चाहता है। इसलिए शायद वे संसदीय परंपराओं व अनुभवी और योग्य सलाहकारों से सलाह लेने की जरूरत नहीं समझते। अगर वे अपने व्यक्तित्व में ये बदलाव ले आएं कि हर बड़े और महत्त्वपूर्ण फैसले को लागू करने से पहले उसके गुण-दोषों पर आम जनता से न सही कम से कम अनुभवी लोगों से सलाह जरूर ले लें तो उनके फैसले अधिक सकारात्मक हो सकते हैं। उल्लेखनीय है कि स्विट्जरलैंड में सरकार कोई भी नया कानून बनाने से पहले जनमत संग्रह जरूर कराती है। भारत अभी इतना परिपक्व लोकतंत्र नहीं है पर 135 करोड़ लोगों के जीवन को प्रभावित करने वाले फैसले सामूहिक मंथन से लिए जाएं तो यह जनहित में होगा।
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