वैश्विकी : पश्तून असंतोष और पाकिस्तान
वर्ष 1947 को भौगोलिक रूप से पंजाब, सिंध, बलूचिस्तान और खैबर-पख्तूनख्वा के साथ विश्व के नक्शे पर रेखांकित होते ही पाकिस्तान ने पीओके और गिलगित-बाल्टिस्तान को भी भारत से हड़प लिया।
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पाकिस्तान का अपना इतिहास नहीं है, न ही अपनी कोई संस्कृति रही है। इसलिए छद्म राष्ट्रीयता के नाम पर इस्लामिक राष्ट्र के रूप में पहचान को अपना कर उर्दू को अपनी भाषा बना लिया। अपनी इस पहचान को बनाए रखने के लिए इसने बलूचों, सिंधियों व पश्तूनों पर अत्याचार किए।
भारत के विभाजन के समय सीमांत गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान ने पश्तूनों के लिए एक स्वतंत्र राष्ट्र पश्तूनिस्तान की मांग की थी, जिसे अस्वीकार कर दिया गया और 12 अगस्त, 1948 को पाकिस्तानी सेना द्वारा पश्तूनों के खिलाफ बर्बर नरसंहार भी हुआ। 1955 में अफगानिस्तान ने एकीकृत पश्तूनिस्तान का समर्थन किया था तथा डूरंड रेखा को इस शर्त पर मान्यता देने को सहमत हुआ कि पाकिस्तान अपने सीमा-क्षेत्र में रह रहे पश्तून लोगों को स्वायत्तता प्रदान करेगा। परन्तु पाकिस्तानी सेना द्वारा पश्तूनों पर जुल्म होते रहे, जिसके खिलाफ आवाज उठाने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान को 20 जनवरी, 1988 को पेशावर में घर में मरने तक नजरबंद रखा गया। उसके बाद भी पाकिस्तानी सेना का अत्याचार बंद नहीं हुआ, बल्कि वॉर ऑफ टेरर के नाम पर पाकिस्तानी तालिबान (टीटीपी) को खत्म करने की ओट में पश्तूनों का कत्ल-ए-आम किया गया।
इस बीच पश्तून आंदोलित होते रहे। इनकी आवाज दबाने के लिए पाकिस्तानी सेना क्रूरता की हद को भी पार कर जाती है। इस कारण लाखों पश्तून अपना घर छोड़ कर दूर-दराज के शहरों में शेल्टर होम में रहने को विवश हैं। मानवाधिकार के तहत पश्तूनों के लिए जीने का अधिकार मांगने के लिए 2014 में मंजूर अहमद पश्तीन ने पश्तून तहफ्फुज मूवमेंट (पीटीएम) की शुरु आत की थी। सांस्कृतिक रूप से एक कहे जाने वाले पश्तून और बलूच समुदाय को अफगानिस्तान व पाकिस्तान में बंट कर रहना पड़ा है, जिसके खिलाफ लाखों पश्तूनों द्वारा डूरंड रेखा के दूसरी तरफ अफगानिस्तान में रहने वाले पश्तूनों के एकीकरण के लिए ‘ग्रेटर अफगानिस्तान’ के गठन की मांग कर पाकिस्तान के विभाजन की आधारशिला रख दी, जिसको सोशल मीडिया के माध्यम से अफगानिस्तान के पश्तूनों का समर्थन भी मिला। इसमें पाकिस्तान का लगभग 60 प्रतिशत भू-भाग सम्मिलित होने से पाकिस्तान का अस्तित्व संकट में है। यही कारण है कि एकजुट हो रहे पश्तूनों की शक्ति को कमजोर करने के लिए पाकिस्तान डूरंड रेखा के क्षेत्रों में हमले कर अफगान लोगों को डराने व दबाने का प्रयास करता रहा है।
इसके साथ ही अफगान सरकार को अस्थिर करने, बुनियादी ढांचे और अफगानिस्तान की सेना को खत्म करने की साजिश करता रहा है, जिससे अफगानिस्तान उतना शक्तिशाली न रहे और डूरंड रेखा को वास्तविक सीमा मान ले। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए 1993 में डूरंड रेखा के सौ वर्ष का समय पूरा होने के समय से ही पश्तूनों का ध्यान भटकाने की नियत से पाकिस्तान ने 1992 में मुजाहिदीन की स्थापना के साथ तालिबान की सत्ता को समर्थन जारी रखा। साथ ही 1996 से 2001 तक इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान के साथ पश्तूनों के मुद्दे को उलझा कर रखा कि डूरंड रेखा के दोनों पक्षों के जनजातीय लोगों को ही समाधान करने का अधिकार मिलना चाहिए। पाकिस्तान बीस वर्षो तक अफगानिस्तान से भागे तालिबानियों का शरणदाता भी बना रहा तथा अमेरिका के साथ तालिबानियों को खत्म करने के नाम पर पश्तूनों की हत्याएं भी करता रहा।
वर्तमान में 4.3 करोड़ पश्तून पाकिस्तान में हैं, जो वहां का दूसरा बड़ा नृजातीय समूह है तथा 1.5 करोड़ (जनसंख्या का लगभग 42 प्रतिशत) अफगानिस्तान में रहते है। इनकी तीन पीढ़यिा संघर्ष में गुजर गई। तालिबान के कब्जे के बाद अफगानिस्तान में भय, असुरक्षा, संशय और अफरातफरी की स्थिति के साथ ही पश्तून के संघर्ष की श्रृंखला की लंबी यादें हैं। ऐसे में अफगानिस्तान के पश्तून-तालिबानियों का साथ पाकर पश्तूनों के राष्ट्रवादी पुनर्मिंलन का एक रास्ता अवश्य दिखाता है, जो पाकिस्तान को विभाजन की ओर ले जाता है।
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