मीडिया : छवि का गिरना

Last Updated 21 Nov 2021 12:30:02 AM IST

एक पीएम के रूप में मोदी की छवि बेहद रौबदार और ताकतवर पीएम की छवि रही है। छप्पन इंच की छाती, कठोर निर्णय लेने वाले और उनको सख्ती से लागू करने वाले, दिन-रात काम करने वाले, टाइम बाउंड योजना बनाने वाले और लागू करने जैसे ‘नो नोन्सेंस’ वाले-चिह्न उनकी छवि के आभूषण माने जाते रहे हैं।


मीडिया : छवि का गिरना

उनकी आत्मविश्वास भरी चाल, बोलचाल, देखना, सुनना, बैठना, उठना,  साफ-सुथरा एक समान कुरते, चूड़ीदार जाकेट  और अंगवस्त्र, उनकी शासक छवि के नये चिह्न नजर आते रहे हैं। उनकी ठसक उनको अलग तरह का पीएम बनाती रही है। उनकी असली ‘यूएसपी’ यह कैचलाइन रही जो कहती है कि: ‘मोदी है तो मुमकिन है’। यह लाइन गारंटी देती लगती है कि आप मोदी का भरोसा कर सकते हैं। अपने मीडिया ने भी मोदी को एक गारंटीशुदा प्रोडक्ट के रूप में पेश किया है। यह गारंटी अब टूटती दिखती है और इसे खुद मोदी ने ही तोड़ा है।  
कृषि कानूनों की वापसी के ऐलान के बाद व्यापी यह निराशा उनके भक्तों के चेहरों में साफ देखी जा सकती है। कानून वापसी के मुद्दे को लेकर मीडिया में आई बहसों का भी यही सार संक्षेप है। गुरु नानक जी के प्रकाश पूरब के अवसर पर किसानों से माफी मांगते हुए मोदी ने जैसे ही तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान किया वैसे ही उनकी छवि धूमिल होती नजर आई और मीडिया की नजरें भी बदलती नजरें आई। जिन किसानों को मीडिया बार-बार खलनायक बताता रहा और किसानों से गालियां खाता रहा, वही किसान अब मीडिया के खुदा बनते नजर आए। इतना ही नहीं किसानों के तेवर और चढ़ते दिखे। उनकी मांगों की फेहरिस्त लंबी होने लगी। अपनी जीत के घमंड पर इतरा कर कहते दिखे कि जब एमएसपी का कानून बन जाएगा, जब तक शहीदों के परिवारों के लिए कुछ न किया जाएगा, उनकी बिजली के बिल माफ न किए जाएंगे, जब तक सारे मुकदमे वापस नहीं लिए जाते तब तक वे नहीं हटेंगे..। मोदी का उक्त ऐलान उनके कॅरियर का एक बड़ा ‘एंटी क्लाइमेक्स’ है, जिसे मीडिया ने इस तरह के शीषर्कों  से परिभाषित किया है:

‘वोट की राजनीति जीती कृषि सुधार हारे’
‘पापुलिज्म जीता सरकार हारी’
‘सरकार झुकी आंदोलनकारी जीते’
‘अहंकार हारा किसान जीते’


मीडिया यही करता है। वह ताकत का सगा होता है। पहले वह मोदी का सगा था। अब किसानों का है। विपक्ष का सगा है। एक ओर अगर कानून वापसी को सही मानने वाले लोग हैं, तो दूसरी ओर यह भी कहने वाले लोग हैं कि ‘कल को जनता कहने लगे कि हम टैक्स नहीं देंगे तो क्या आप टैक्स खत्म कर देंगे। तब सरकार होती किसलिए हैं? अगर ऐसा ही रहा तो अराजकता पैदा हो जाएगी’।

कहने की जरूरत नहीं कि इस बात में कुछ दम नजर आता है। इसी तरह एक चैनल पर एक नामी इकनॉमिस्ट ने निराश होकर यह तक कहा कि यह कांतिकारी सुधार थे। इनसे भारत में दूसरी ‘हरित क्रांति’ संभव होती। किसान खुशहाल होते। इकनामी बढ़ती। लेकिन इस वापसी के बाद अब कभी कोई सुधारों को हाथ न लगाएगा। अब कृषि को कोई छुएगा भी नहीं। कृषि व्यवस्था जिस बदहाली में है, उसी में रहेगी। मोदी के ऐलान के बाद राहुल गांधी का वह पुराना ‘वीडियो’ सोशल मीडिया में हाथों हाथ लिया जाने लगा जिसमें वे कहते हैं कि ‘मेरी बात लिख लो एक दिन मोदी को ये कानून वापस लेने पड़ेंगे’। उनकी बात कितनी सही साबित हुई। कुछ भक्त मोदी के ऐलान को मोदी की ‘संवेदनशीलता’ और ‘उदारता’ का उदाहरण बताते हैं, लेकिन इन अनुदार दिनों में ऐसी उदारता  के दो टके नहीं उठते। अगर मीडिया एक बडा हिस्सा मोदी को अपना नायक मानता रहा है, तो इसीलिए कि उनमें वह एक ताकतवर नायक देखता है, लेकिन मोदी द्वारा कानून वापसी के ऐलान ने इस मीडिया को भी हिलाकर रख दिया है।
याद रहे कमजोर को न जनता पसंद करती है, न मीडिया। आज के सोशल मीडिया के युग में सब ताकत की भाषा पसंद करते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि मोदी के ऐलान ने उनको ऐसे कमजोर पीएम की तरह पेश किया है, जो दबाव से डरकर पीछे हट जाता है, और इस तरह मोदी असली नहीं, कागजी शेर हैं। आज किसानों के डर से पीछे हटे हैं, तो अगर कल को लोग सीएए, तीन तलाक, तीन सौ सत्तर पर दबाव डालेंगे तो ये फिर पीछे हटेंगे। कहने की जरूरत नहीं कि इस एक ऐलान से मोदी की अपनी ताकत की यूएसपी पिटी है, जो बरसों में बनी थी।

सुधीश पचौरी


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