मीडिया : रीढ़ विहीन मीडिया
इस बार मीडिया की दुनिया में गजब होता नजर आया! उन्हीं चैनलों ने इस दीवाली पर पटाखा फोड़ने के पक्ष में हवा बनाई जो कल तक हर दीवाली पर अभियान चलाया करते थे कि पटाखे न चलाना! पटाखों से हवा में जहर घुलता है जो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है!
![]() मीडिया : रीढ़ विहीन मीडिया |
मीडिया की ऐसी पलटी नई नहीं है! सच तो यह है कि वह भी अवसरवादी है और वह भी ‘जैसी बहे बयार पीठ तब तैसी दीजै’ में यकीन करता है! ध्यान से देखें तो इस पलटी के दो तीन कारण नजर आते हैं : पहला समाज के ध्र्म और परंपरा का दबाव, दूसरा पटाखा उद्योग का दबाव और तीसरा कोरोनाकाल की घुटन से उबरे लोगों का मौज मस्ती मनाने का मूड और उसका दबाव! इस बार मीडिया में सबसे बड़ा हस्तक्षेप था एक अंग्रेजी बाबा का, जिन्होंने पटाखों के पक्ष में खुलकर बोला! बाबा का बोलना धर्म का बोलना था और धर्म के बोलने में बड़ा दम होता है! इसलिए बाबा की बात कई अंग्रेजी एंकरों के समर्थन से और तगड़ी हो गई और दीवाली से ऐन एक दिन पहले ‘एंटी पटाखा लाबी’ किनारे हो गई!
बाबा ने दो तर्क दिए: एक तो यह कि कारों से जितना प्रदूषण फैलता है, ए.सी. से जितना फैलता है उतना एक दिन चलने वाले पटाखों से नहीं फैलता दूसरी बात यह कि भारत का पटाखा उद्योग संकट में है उसमें लाखों लेग काम करते हैं उनको भी रोटी कमाने का हक है! मीडिया ने उनकी बातों को हाथों-हाथ लिया! दीवाली के बाद की एक चरचा में एक अंग्रेजी एंकर ने इस बार की पटाखेबाजी को प्रतिबंध नीति का ‘बैकलेश’ (प्रतिशोध) बताया! उसका कहना था कि एक ‘पटाखा नीति’ होनी चाहिए प्रतिबंध लगाने से तो ‘बैकलेश’ ही हो सकता है! लोग प्रतिशोध में पटाखे चलाते रहे! चरचा में बड़ी अदालत का वह फैसला भी आया, जिसके चलते अरसे से पटाखों पर प्रतिबंध का वातावरण बनाया गया!
इस बार इसकी काट ‘परंपरा’ से आई और तमिलनाडु के ‘जलीकट्ट’ समारोह की ‘बहाली’ से आई! कई लोगों ने कहा कि जिस तरह ‘जलीकट्ट’ की परंपरा को; जिसे ‘पशु रक्षक लॉबी’ ने बैन कराया था। तमिलवासियों ने बाजाप्ता मनाया, उसी तरह दीवाली में पटाखे चलाना उत्तर की परंपरा है उसे उसी तरह रखा जाना चाहिए! एक चैनल पर पटाखेबाजी के पक्ष में कुछ नये तर्क भी सुनाई दिए! कहा गया कि पश्चिम में एक ‘एंटी हिंदू लॉबी’ है, जो अन्य किसी धर्म के त्योहार को आपत्तिजनक नहीं मानती। सिर्फ हिंदू त्योहारों के आते ही सक्रिय हो जाती है। अमेरिका के एक अखबार में तो एक लेखक ने हिंदू त्योहारों को एक दम ‘टॉक्सिक फेस्टीवल’ (जहरीले उत्सव) बताया है! ऐसे लेखक और कथित पर्यावरणविद् ‘क्रिसमस’ को भूल जाते हैं, जिसके लिए पश्चिमी देशों में लाखों पेड़ काट दिए जाते हैं।
यह बात किसी हद तक सच भी नजर आती है क्योंकि चाहे गणेश जी की प्रतिमा का विसर्जन हो या दुर्गा की प्रतिमा का विसर्जन, पर्यावरणवादी लॉबी हर साल सक्रिय होती है। टीवी पर आकर ‘चेताती’ रहती है कि मूर्तियों के रंगों से पानी जहरीला होता है! इसी तरह होली को लेकर भी ऐसे पर्यावरणविद चिल्लाते हैं कि होली के रंग जहरीले होते हैं और कीमती पानी को बेकार खर्च किया जाता है! ऐसे पर्यावरणविद् अक्सर उद्धारक मुद्रा में अपने को पेश करते हैं मानो सिर्फ वे ही इस धरती को बचाने वाले हों और बाकी उसे नष्ट करने वाले हों! और ऐसे बहुत से पर्यावरणवादी अपने ‘एनजीओज’ के लिए पैसा भी उन्हीं से लाते हैं जो कार व पेट्रोल का बिजनेस करते हैं!
प्रदूषण को रोकने का और पर्यावरण की रक्षा करने का यह धंधा कितना बढ़िया है कि जो कार उद्योग हवा में कार्बन को दिनरात जम के घोलता है, जिसके समर्थन में कई पेट्रोल कपंनियां खड़ी रहती हैं-ऐसी ही कंपनियों के पैसे से आज के पर्यावरणवादी पर्यावरण की चिंता में दुबले हुए जाते हैं और जिस-तिस उत्सव को बैन करवाने के लिए दबाव बनाते रहते हैं! ऐसे लोग कार और ए.सी. को बैन करने के लिए क्यों नहीं कहते? क्योंकि वे इनके माई बाप हैं! ऐसे में मीडिया भी पर्यावरण के सवाल को एक धंधई सवाल की तरह देखता है! उसे कार से जितना पैसा मिलता है पटाखों से उतना कभी नहीं मिल सकता! लेकिन विसनीय बने रहने के लिए कभी कभी पब्लिक की हां में हां मिलानी पड़ती है जैसी कि इस दीवाली पर मिलाई! इसीलिए एक दिन मीडिया पटाखा प्रेमी हो जाता है अगले दिन फिर पर्यावरण प्रेमी हो उठता है! इस बार मीडिया इसी तरह से ‘रीढ़ विहीन’ दिखा!
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