रंगा-रंग : लमही गांव का वह उत्सव

Last Updated 18 Jul 2021 12:12:20 AM IST

कुछ ही दिनों बाद 31 जुलाई है। प्रेमचंद का जन्मदिवस। बनारस में लंबे समय तक रहने के कारण मुझे यह तिथि हमेशा से याद रही है।


रंगा-रंग : लमही गांव का वह उत्सव

हम सुबह ही तैयार होकर लमही को निकल पड़ते। बनारस के निकट यह प्रेमचंद का जन्मस्थान है। गांव में प्रेमचंद का घर और उनकी प्रतिमा है। सुबह से ही उस दिन आयोजनों का सिलसिला चल पड़ता। नागरी प्रचारिणी सभा की ओर से संगोष्ठी होती, नगर की कुछ दूसरी साहित्यिक संस्थाएं भी गोष्ठियां करतीं। अभिनय ज्योति, गोकुल आर्ट्स, कला प्रकाश और फिर कला प्रकाश से अलग होकर बनी सेतु संस्थाओं की ओर से नाटकों के मंचन किए जाते। कार्यक्रमों की कुछ ऐसी होड़ होती कि अक्सर एक ही समय में वहां समानांतर दो-दो आयोजन चल रहे होते। कई बार कुछ संस्थाओं ने वाराणसी से लमही तक की पदयात्राओं का भी आयोजन किया। प्रेमचंद जयंती पर लमही में उत्सव जैसा माहौल होता। गोष्ठियां, नाटक, रचनाओं के पाठ होते। प्रेमचंद की कई रचनाओं के पात्र इसी गांव और आसपास के गांवों के लोग रहे हैं। कह सकते हैं कि प्रेमचंद के पात्रों के वंशज इस उत्सव के साक्षी होते। वे वहां खूब जुटते, दीवारों पर पैर लटकाए बैठे देखते या फिर अपने घरों की छतों पर होते। इतना ही नहीं गांव के लोग आखिर में वहां जुटने वालों को भोजन भी कराते।

इस उत्सव की ही धमक थी कि सरकार ने प्रेमचंद के गांव की सुधि ली और केंद्र व प्रदेश सरकार के मिले-जुले प्रयासों से यहां स्मारक का रूप दिया जा सका। प्रेमचंद के आवास का जीर्णोद्धार किया जा चुका है। मुख्य सड़क से जहां संपर्क मार्ग लमही को जोड़ता है, वहां कुछ मूर्तिशिल्प और द्वार भी बना दिए गए हैं। प्रेमचंद शोध संस्थान और प्रेमचंद मार्गदशर्न केंद्र जैसी संस्थाएं अक्सर कुछ आयोजन करती रहती हैं। लमही के साथ ही बनारस में भी प्रेमचंद जयंती पर कई आयोजन होते हैं। कह सकते हैं कि इस विख्यात रचनाकार को उनका नगर जिस प्रकार उनकी जयंती पर कृतज्ञता ज्ञापित करता है, वह प्रशंसनीय है, और एक साहित्यकार के समाज के प्रति योगदान के लिए आवश्यक भी है।
लेकिन यहीं यह भी कहना उचित होगा कि इसी नगर में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और जयशंकर प्रसाद जैसे विख्यात रचनाकारों के आवास भी हैं। श्याम सुंदर दास, रामचन्द्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी की स्मृतियां भी हैं। क्या ही अच्छा हो कि प्रेमचंद की तरह ही हम इन रचनाकारों के जन्मदिवस पर भी उनसे जुड़े स्थलों पर एकत्र हों, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा करें, उनकी रचनाओं का पाठ करें, संभव हो तो उन पर नाट्य प्रस्तुतियां भी करें। विडंबना है कि बार-बार की मांग के बाद प्रेमचंद के जन्मस्थान को तो स्मारक का रूप दे दिया गया लेकिन अन्य ज्यादातर प्रसिद्ध रचनाकारों की स्मृतियां उपेक्षित हैं। और बनारस में ही क्यों, देश के दूसरे नगरों में भी विख्यात रचनाकारों से जुड़े स्थलों का यही हाल है।
क्या ही अच्छा हो कि विख्यात रचनाकारों के जन्मदिवस उनसे जुड़े स्थलों पर उत्सव के रूप में मनाए जाएं। लोग इकट्ठे हों और अपने साहित्यकार को कृतज्ञता ज्ञापित करें। कितना ही अच्छा हो, लखनऊ में अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा और यशपाल के जन्मदिवस पर भी ऐसे ही आयोजन हों। भगवतीचरण वर्मा के आवास चित्रलेखा पर उनके परिवारीजन स्मृति सभा करते हैं, लेकिन नगर की दूसरी संस्थाओं को भी आगे आना चाहिए। प्रयागराज में निराला, महादेवी, पंत, सुभद्राकुमारी चौहान और दूसरे रचनाकारों से जुड़े स्थलों पर ऐसे ही आयोजन हों। मिर्जापुर में देवकी नंदन खत्री, पांडेय बेचन शर्मा उग्र, कानपुर में रांगेय राघव, रायबरेली में महावीर प्रसाद द्विवेदी, आजमगढ़ में राहुल सांकृत्यायन, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔंध, झांसी में मैथिली शरण गुप्त, वृंदावन लाल वर्मा, उन्नाव में शिवमंगल सिंह सुमन, नंददुलारे वाजपेयी, रामविलास शर्मा, अलीगढ़ में जैनेन्द्र कुमार, आगरा-अमृतलाल नागर, द्वारिका प्रसाद माहेरी, बांदा में केदारनाथ अग्रवाल, सुल्तानपुर में त्रिलोचन, फतेहपुर में सोहनलाल द्विवेदी़ के जन्मदिवस पर भी संस्कृतिकर्मी जुटें और अपने साहित्यकार को याद करें।
और केवल उत्तर प्रदेश ही क्यों, देश के दूसरे प्रदेशों में भी ऐसे ही आयोजन हों, साहित्यकारों को उनके जन्मदिवस पर याद किया जाए और उनसे जुड़े स्थलों पर उत्सव जैसा माहौल हो। कुछ समय पहले मैंने इसी स्तंभ में साहित्यकारों से जुड़े स्थलों को पर्यटन से जोड़ते हुए साहित्यकार सर्किट बनाने की बात कही थी। इस सर्किट को और विस्तार देते हुए इसमें उर्दू तथा अन्य भाषाओं के विख्यात रचनाकारों से जुड़े स्थलों को भी शामिल किया जा सकता है। प्रेमचंद के गांव की तरह साहित्यकारों से जुड़े स्थलों पर अगर इसी प्रकार उत्सव शुरू हुआ तो निश्चय ही सरकार और उसके विभागों का ध्यान भी इस ओर जाएगा। किसी साहित्यप्रेमी के लिए यह सब कुछ स्वप्न सरीखा है, लेकिन मैं इस बात का साक्षी हूं कि प्रेमचंद के गांव के लिए भी कुछ लोगों ने पहले ऐसा स्वप्न ही देखा था!

आलोक पराड़कर


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