वैश्विकी : काबुल की सुरक्षा का सवाल

Last Updated 18 Jul 2021 12:25:59 AM IST

अफगानिस्तान में भारतीय मूल के फोटो पत्रकार की मौत ने दुनियाभर में विशेषकर मीडिया जगत में शोक और क्षोभ की लहर पैदा की है।


वैश्विकी : काबुल की सुरक्षा का सवाल

कंधार के पास न्यूज एजेंसी रॉयटर के साथ जुड़े जुड़े दानिश सिद्दीकी अफगान विशेष सुरक्षा बलों के साथ थे। सुरक्षा बल कंधार शहर को तालिबान के कब्जे से बचाने की जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं। यह आश्चर्य की बात है कि दानिश सिद्दीकी की मौत की निंदा करने वाले देश-विदेश के नेता और मीडियाकर्मी इस पर ज्यादा चर्चा नहीं कर रहे हैं कि आने वाले दिनों में तालिबान के संभावित कब्जे के बाद अफगानिस्तान में मीडिया स्वतंत्रता और आम नागरिकों के मानव अधिकारों का क्या होगा। सबसे भयावह स्थिति महिलाओं के लिए पैदा होने वाली है। जिन इलाकों पर तालिबान ने कब्जा कर लिया है वहां वह अपनी कट्टर मजहबी विचारधार के अनुरूप कायदे कानून लागू कर रहे हैं। महिलाओं की दशा मध्ययुगीन बर्बरता के दौर वाली हो सकती है। काबुल में कार्यरत पेशेवर लोग विशेषकर महिलाएं आशंकित हैं कि यदि  राजधानी पर तालिबान का कब्जा हो गया तो उनका जीवन कैसा होगा।

दो दशक बाद यदि अफगानिस्तान में फिर तालिबान काबिज होते हैं तो इसके लिए किसे दोषी ठहराया जाएगा? पहली उंगली अमेरिका की ओर उठाई जाएगी। राष्ट्रपति जो बाइडेन ने पिछले 6 महीनों के दौरान पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अनेक फैसलों को बदल दिया, लेकिन अफगानिस्तान से अमेरिकी सेनाओं की वापसी के मामले में उन्होंने ट्रंप से भी ज्यादा उतावलापन दिखाया। बाइडेन ने सेनाओं की वापसी के संबंध में जो बयान दिया वह अंतरराष्ट्रीय राजनीति के अमानवीय और क्रूर चेहरे को उजागर करता है। उनके बयान का मतलब यह  था कि अमेरिका राष्ट्र-निर्माण के लिए अफगानिस्तान नहीं गया था। न्यूयॉर्क में ट्विन टॉवर के हमले का बदला लेने के लिए अमेरिकी सेनाएं वहां गई थीं। बदला ले लिया गया अब हम वापस लौट रहे हैं। यह सोच कितनी असंवेदनशील है इसका अंदाजा इस तथ्य से से लगाया जा सकता है कि दो चार हजार अमेरिकी नागरिकों की हत्या का बदला लेने के लिए कई देशों के लाखों करोड़ों लोगों का जीवन संकट में डाल दिया गया है।

फिलहाल काबुल और आसपास के सूबों में सरकारी सेनाएं अपनी पकड़ बनाए हुए हैं। अत्याधुनिक हथियारों और अपने प्रशिक्षण के बलबूते सरकारी सेनाएं काबुल स्थित केंद्रीय सत्ता की सुरक्षा कर सकती हैं, लेकिन अमेरिका के नेतृत्व वाली अंतरराष्ट्रीय सेनाओं की वापसी मनोवैज्ञानिक रूप से उनके लिए एक झटका है। दूसरी ओर इससे तालिबान के हौसले बुलंद हैं।
पूरे घटनाक्रम से सबसे अधिक खुश पाकिस्तान है। फिलहाल प्रधानमंत्री इमरान खान और सैनिक नेता तालिबान के पक्ष में खुला बयान नहीं दे रहे हैं, लेकिन वे आश्वस्त हैं कि तालिबान के रूप में उन्हें एक सहयोगी मुल्क हासिल होगा। देरसबेर पाकिस्तानी सेना अफगानिस्तान की सरजमीं पर आतंकवादियों को प्रशिक्षण देगी। इन आतंकवादियों के निशाने पर प्रमुख रूप से जम्मू कश्मीर रहेगा। चीन के शिनिजयांग प्रांत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न पर इमरान खान आंखें मूंदे हुए हैं। शिनिजयांग में चीन के विरुद्ध संघषर्रत गुट अफगानिस्तान में सक्रिय था। तालिबान और पाकिस्तान इन गुटों की गतिविधियों को जारी रखने की अनुमति नहीं देगा। हाल ही में खैबर पख्तूनख्वा में एक बस पर हुए आतंकी हमले में कई चीनी नागरिक मारे गए थे। इस पर चीन ने कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा था कि यदि पाकिस्तान आतंकवादियों पर काबू पाने की क्षमता नहीं रखता तो चीन कार्रवाई करने में नहीं हिचकेगा।
तालिबान, अल कायदा और इस्लामिक स्टेट  जैसे जिहादी संगठनों से इस क्षेत्र को अभी भी बचाया जा सकता है बशत्रे इस इलाके में छोटे-बड़े देश सामूहिक रूप से कदम उठाएं। शंघाई सहयोग संगठन ऐसा ही प्रभावी माध्यम सिद्ध हो सकता है। दो दशक पहले अफगानिस्तान में नॉर्दर्न अलायंस के रूप में एक शक्तिशाली भारत समर्थक सैन्य शक्ति मौजूद थी।  आज की स्थिति इससे अलग है। अफगानिस्ता ने के लगभग सभी उत्तरी सूबे तालिबान के कब्जे में हैं। सैनिक परिदृश्य सेना बनाम तालिबान का है। भारत के लिए आने वाला समय अनिश्चित और आशंकाओं से भरा है।

डॉ. दिलीप चौबे


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